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सेठ पोषित राजतंत्र में बदल रहा है देश 

सेठ पोषित राजतंत्र में बदल रहा है देश 

भारत में पहले दौर के पूंजीपतियों और मौजूदा दौर के पूंजीपतियों का महीन अंतर समझा रहे हैं पत्रकार और लेखक अपूर्वानंद। उनके मुताबिक पहले दौर के पूंजीपति राष्ट्र निर्माण में भी भूमिका निभाते रहे हैं। नया दौर सेठ तंत्र विकसित कर रहा है, जो सिर्फ अपने मुनाफे के बारे में सोचता है। 

“टाटा बिड़ला की सरकार, नहीं चलेगी, नहीं चलेगी।”छात्रजीवन में जाने कितनी बार यह नारा लगाया हमने सरकार विरोधी प्रदर्शनों में। तब टाटा और बिड़ला के नाम प्रतीक थे पूँजीपति वर्ग के। हम सरकार की उन नीतियों का विरोध कर रहे थे जो हमारी समझ से पूँजीपति वर्ग को लाभ पहुंचाते थीं। तब हमारे आंदोलनों का विरोध करते हुए उन्हें किसी ने देश का प्रतिनिधि नहीं कहा था। उन्होंने भी कभी ख़ुद को इस रूप में पेश नहीं किया था। हालाँकि टाटा, बिड़ला और बजाज को हम सिर्फ़ पूँजीपतियों के तौर पर नहीं जानते। उनकी भूमिका राष्ट्र निर्माण में मात्र अपने लिए मुनाफ़ा कमाने और अपनी संपत्ति की वृद्धि तक नहीं थी। आधुनिक भारत के निर्माण में उनका योगदान है। उद्योग स्थापित करने तक ही नहीं, शिक्षा और शोध या स्वास्थ्य के क्षेत्रों में उनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण है। देश के आरंभिक पूँजीपतियों में देश के लोगों के प्रति ज़िम्मेवारी का भाव था। बजाज ने तो अंग्रेज़ी राज में भी खुलकर गाँधी और आज़ादी के आंदोलन का साथ दिया।

टाटा , बिड़ला का नाम लेते हुए हम कहना चाहते थे कि सरकार की नीतियों से पूंजीपतियों को लाभ हो रहा था, सामान्य जन को नहीं। लेकिन तब की सरकार या शासक दल, कॉंग्रेस पार्टी ने हमारे ऊपर यह कहकर हमला नहीं किया कि हम भारत विरोधी षड्यंत्र कर रहे हैं या भारत को कमजोर करना चाहते हैं। तब टी वी का प्रसार उतना नहीं हुआ था लेकिन अख़बारों और शेष मीडिया ने हमें राष्ट्रविरोधी नहीं बतलाया। उससे भी ऊपर उन्होंने टाटा और बिड़ला के पक्ष में अभियान नहीं चलाया।

आज स्थिति बदली हुई है। एक समय टाटा और बिड़ला के नाम ही चमकते थे लेकिन सच्चाई यह थी कि पूंजीपति वर्ग इससे कहीं बड़ा था। वह धीरे धीरे और विस्तृत होता गया।बजाज का  नाम तो था। फिर ये नाम पीछे हुए और दूसरे नाम आए। लेकिन पिछले 10 साल में , और उसमें भी 8 सालों में इन सबके नाम कहीं विलुप्त हो गए। यानी भारतीय पूँजीवाद जिनके नामों से जाना जाता था, वे गायब हो गए। दो नाम हर तरफ़ चमकने लगे। अंबानी औरअदाणी। इन दो में भी एक नाम जैसे भारत का एकमात्र पूंजीपति बनकर उभरा: गौतम अडानी।

गौतम अडानी के साथ 2001 से 2014 तक गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की नज़दीकी को दोनों में किसी ने नहीं छिपाया।इसका कारण बहुत साफ़ है। गुजरात में 2002 की हिंसा के बाद भारतीय पूँजीपति समुदाय ने मोदी की आलोचना की। उस वक्त गौतम अदाणी ने मोदी के पक्ष में पूँजीपतियों के एक हिस्से को जमा किया। यह समर्थन उस समय  चारों तरफ़ से आलोचना झेल रहे मोदी  लिए जीवनदान ही था।हिंसा के नायक के मुख्यमंत्री केबचाव का प्रतिदान अडानी को तब से मोदी नहीं, भारत दे रहा है। मोदी और अदाणी की जोड़ी तब से मज़बूत होती चली गई है। बाक़ी पूँजीपतियों ने एक एक करके मोदी के सामने आत्मसमर्पण किया। मुनाफ़ा और आत्मा के  बीच चुनाव में पूँजीवाद ने कभी गलती नहीं की है।

2014 के आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की जीत के बाद उसके प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने गुजरात से दिल्ली जिस हवाई जहाज पर उड़कर आए, उसके बाहर लिखा था: गौतम अदाणी।यह उड़ान अत्यंत प्रतीकात्मक थी। नरेंद्र मोदी को भारत केनया पूँजीपति वर्ग अपने कंधों पर बिठाकर दिल्ली लायाथा। 

फिर जैसा विपक्ष और कॉंग्रेस के नेता राहुल गाँधी ने संसद में कहा, पहले नरेंद्र मोदी अदाणी के जहाज़ पर उड़ते थे, 2014 के बाद से अदाणी भारत के प्रधानमंत्री के जहाज पर घूमने लगे। देश विदेश, हर जगह, कोयले खानें हों, या ऊर्जा के स्रोत या बंदरगाह या हवाई अड्डे, एक एक कर सब अडानी को सौंपे गए। जैसा कई बार कहा जा चुका है, अडानी मार्का पूँजीवाद उत्पादन नहीं, नियंत्रण या क़ब्ज़का पूँजीवाद है। भारत की नरेंद्र मोदी नीत सरकार अपने प्रभाव का इस्तेमाल देश के बाहर अदाणी के पक्ष में कररही थी, यह सबको साफ़ साफ़ दिख रहा था। लेकिन खुली प्रतियोगिता में यक़ीन करने वाला पूँजीपति समुदाय इसकी आलोचना नहीं कर पाया कि क्यों सरकार  ने अपना हाथ अडानी की पीठ ही पर रखा है। क्यों वह प्रतियोगिता के नियमों से परे और ऊपर है। 

बिना उत्पादन किए किसी पूँजीपति की संपत्ति में यकायक इतनी नाटकीय वृद्धि कैसे हो सकती है? इस प्रश्न का उत्तरकॉरपोरेट दुनिया और बाज़ार को समझनेवालों ने खोजनाशुरू किया। परंजय गुहा ठाकुरता जैसे पत्रकार ने जब अडानी की उछाल के पीछे के कारणों का पर्दाफाश किया तो उनपर भयंकर क़ानूनी आक्रमण हुआ। ‘इकोनॉमिक एंड पॉलीटिकल वीकली’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका ने डर के मारे परंजय को संपादक पद से हटा दिया और उनके लेख भी अपनी वेब साइट से हटा दिए। अडानी की सफलता की छानबीन ख़तरे से ख़ाली न थी। लेकिन ऐसे भारतीय थे जो सावधान कर रहे थे कि अडानी की चढ़ान में धोखा है ।

अमेरिका की छोटी सी कंपनी हिंडनबर्ग ने कुछ रोज़ पहले जब इस धोखे का पर्दाफाश किया तो विश्व बाज़ार में बाजार अडानी की क़ीमत लुढ़कने लगी। जो शख़्स चमत्कारी रूप से दुनिया का तीसरे नंबर का सबसे धनी आदमी बन बैठा था, वह रातों रात सबसे धनी बीस की सूची से भी बाहर हो गया। 

पूँजी राष्ट्रीय या राष्ट्रवादी नहीं होती। इसलिए पूरी दुनिया  के पूँजी जगत में हिंडनबर्ग रिपोर्ट की प्रतिक्रिया हुई और सबने इस धोखे को पहचाना। अमेरिका हो या यूरोप, मीडिया ने कॉरपोरेट जगत् के सबसे बड़े घोटाले की सुर्ख़ियाँ बनाईं। भारत के मीडिया ने क्या किया? क्या उसने अपने दर्शकों और पाठकों को उस बारे में ज़रूरी जानकारियाँ दीं? क्या हिंदी के सामान्य पाठक या दर्शक को मालूम है कि अडानी पर किस क़िस्म की धोखाधड़ी का इल्ज़ाम है? कॉरपोरेट दुनिया के कारोबार की निगरानी करने वाली राजकीय संस्थाओं ने क्या किया?


जिन साधारण भारतीयों ने अपना पैसा अडानी की कंपनियों के शेयर में लगा दिया है, उनके हित अधिक महत्त्वपूर्ण हैं या उन्हें धोखा देने का आरोप झेल रहे अदाणी के? अडानी ने इस पर्दाफाश को भारत पर हमला बतलाया। जालियाँवाला बाग़ में फँसे भारतीयों से अपनी तुलना की। हिंडनबर्ग की तुलना डायर से। जो भारतीय हिंडनबर्ग की रिपोर्ट के सहारे अडानी और सरकार से जवाब तलब कर रहे हैं, उनको भाड़े के सिपाही ठहराया। 

विपक्षी दलों का काम है सरकार से सवाल करना, उसे जवाबदेह ठहराना। इसकी जगह संसद है और सड़क भी। कोई प्रधानमंत्री अपनी लोकप्रियता का हवाला देकर इस जवाबदेही से अपनी सरकार को बचा नहीं सकता। हर सरकार ने ऐसे मामलों में जवाबदेही स्वीकार की है। जाँच बिठाई है। जवाहरलाल नेहरू की लोकप्रियता में किसे संदेह हो सकता है? लेकिन जब संसद में उन्हीं के दामाद और शासक दल यानी कॉंग्रेस पार्टी के सदस्य फ़िरोज़गाँधी ने कुख्यात मुँद्रा घोटाले का मसला उठाया तो जाँच बैठी। तत्कालीन वित्त मंत्री ने इस्तीफ़ा दिया। 

नेहरू ने मसले की गंभीरता से इंकार नहीं किया। संसद और बाहर यह नहीं कहा कि मुझे जनता का समर्थन प्राप्त है इसलिए मेरी सरकार से कोई सवाल नहीं किया जा सकता। सवाल करने वालों पर राष्ट्रविरोधी होने का आरोप नहीं लगाया। उस वक्त के मीडिया ने इस खबर को न सिर्फ़ नहीं दबाया बल्कि प्रमुखता से प्रकाशित किया और इस पर चर्चा बनाए रखी। उसी के नतीजे में वित्तमंत्री को इस्तीफ़ा देनापड़ा। यही जनतंत्र की ताक़त है। इसीलिए वह राजतंत्र से बेहतर है।

आज की सरकार क्या कर रही है? वह इस मसले पर बात नहीं करना चाहती। जबकि पूरी दुनिया जानती है और बोल रही है कि अडानी मोदी के बिना मुमकिन न था। सरकार ने होंठ सिल लिए हैं। विपक्ष आवाज़ उठा रहा है। लेकिन इसकी आवाज़ को बनाए रखने और अवाम तक ले जाने वाले मीडिया ने तय कर लिया है कि वह आवाज उठाने वालों पर ही हमला करेगा। उन्हें शर्मिंदा करेगा कि क्या वे एक भारतीय पूँजीपति की आलोचना कर रहे हैं।


यह सब कुछ अभूतपूर्व है। आज तक भारत की किसी सरकार और किसी वक्त के मीडिया ने ख़ुद को एक पूँजीपति से नत्थी नहीं किया है। यह पहली बार इस देश में हो रहा है। फिर भी यह देश ख़ुद को जनतंत्र की जननी मानकर एक भुलावे में जीना चाहता है जबकि वह एक नए क़िस्म के सेठ पोषित राजतंत्र में बदल रहा है।

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