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राजा की खिड़की पर खिला कला का फूल

राजा की खिड़की पर खिला कला का फूल

हमारे समय के कलाकार क्या कर रहे हैं? क्या वे झूठी प्रेरणाओं पर अपने चित्र बना रहे हैं? ‘मन की बात’ की सौ क़िस्तें पूरी होने पर चित्र बनाना क्या उनकी अंत:प्रेरणा का नतीजा है?

दिल्ली के नेशनल गैलरी ऑफ़ मॉडर्न आर्ट में इन दिनों एक कला-प्रदर्शनी चल रही है जिसमें देश के 13 जाने-माने कलाकारों की कलाकृतियां शामिल हैं। यह प्रदर्शनी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यक्रम ‘मन की बात’ से प्रेरित कृतियों की है। ‘मन की बात’ की सौ किस्तें पूरी होने के उपलक्ष्य में जो विराट कार्यक्रम देश भर में आयोजित किया गया, यह प्रदर्शनी उसी का हिस्सा है। प्रधानमंत्री भी यह कला-प्रदर्शनी देखने पहुंचे। चूंकि प्रधानमंत्री गए तो उनके पीछे-पीछे मीडिया भी पहुंचा, वरना मीडिया का जो मौजूदा चरित्र है, उसमें कलाओं के प्रति संवेदनशीलता या सरोकार बहुत दूर की चीज़ है।

लेकिन यह सरोकार क्यों रहे? कला की दुनिया में ऐसा क्या हो रहा है जिसकी वजह से उसे देखा जाए? कला करती क्या है? क्या वह किन्हीं राजनीतिक या सामाजिक मुद्दों की प्रचार सामग्री भर होती है? क्या उसका काम लोगों के बीच कोई संदेश पहुंचाना भर होता है? निस्संदेह कलाओं के बारे में यह आम राय है कि उनका काम लोगों को सुशिक्षित करना और संस्कार देना है। निश्चय ही इस राय में ग़लत कुछ नहीं है। लेकिन समझना यह ज़रूरी होता है कि कलाएं यह काम सपाट ढंग से करें तो कला नहीं रह जातीं। उनके संप्रेषण का एक सूक्ष्म तरीक़ा होता है। किसी कलाकार से इसीलिए यह अपेक्षा की जाती है कि वह जो कुछ रचे, अपने भीतर की प्रेरणा से रचे, उसका एक स्वायत्त संसार हो जिसमें वह दिए हुए मूल्यों या दृश्यों को अपने ढंग से बदल या पुनर्परिभाषित कर सके। इसी क्रम में यह भी उसका दायित्व बनता जाता है कि वह अपने समाज की राजनीतिक-सामाजिक विसंगतियों, विरूपताओं को पहचाने और अपनी कला में उसे व्यक्त करने का रास्ता खोजे। एक कलाकार का आत्मसंघर्ष इस तरह सामाजिक संघर्ष का भी हिस्सा होता है।

लेकिन हमारे समय के कलाकार क्या कर रहे हैं? क्या वे झूठी प्रेरणाओं पर अपने चित्र बना रहे हैं? ‘मन की बात’ की सौ क़िस्तें पूरी होने पर चित्र बनाना क्या उनकी अंत:प्रेरणा का नतीजा है या फिर किसी राजनीतिक दल या सरकार से मिले आदेश या मुद्रादेश का प्रभाव?

दरअसल, यह प्रदर्शनी नए सिरे से याद दिलाती है कि हमारी कला में न समाज की चिंता बची है न सामाजिक सरोकार बचे हैं। अगर बचे होते तो हमारे कलाकार ‘मन की बात’ से प्रेरित होने की जगह उन बेहद प्रत्यक्ष विडंबनाओं को देख और रच पाते जो हमारे समाज में लगातार बढ़ती जा रही हैं और जिसकी ज़िम्मेदार वह दक्षिणपंथी राजनीति है जो इन दिनों सत्ता में है और जिसके अलग-अलग संघ और दल तरह-तरह से सक्रिय हैं। 

एक बहुत मज़बूत प्रचारतंत्र की मार्फ़त वे एक कीर्तिगान रचने में व्यस्त हैं और उनके सारे साधन-संसाधन एक ‘महामानव’ बनाने में लगे हुए हैं। इस विराट प्रचार तंत्र की तुलना किसी और सक्रिय तंत्र से नहीं की जा सकती। उनके पास सरकारी साधन हैं, उद्योगपतियों का समर्थन है, सोशल मीडिया का बल है और एक पूरी ट्रोल सेना है जो हर प्रतिरोध के ख़िलाफ़ खड़ी हो जाती है।

दरअसल ‘मन की बात’ के लिए कलाकारों का इस्तेमाल इसी प्रचार-तंत्र का हिस्सा है जो अंततः कलाओं को बेमानी बना देता है, कलाकारों को कुछ कम सम्मान से देखे जाने लायक हैसियत बख़्शता है।

लेकिन क्या इसके लिए सिर्फ कलाकार ही ज़िम्मेदार हैं? क्या कुछ ज़िम्मेदारी हमारी भी नहीं बनती कि हम अपने कलाकारों के काम पर सख़्त नज़र रखें और उन्हें यह एहसास हो कि उनका समाज उन्हें देख रहा है, कोई लोकलाज उन्हें घेरे, उनके भीतर के किसी प्रलोभन को रोके? दुर्भाग्य से लगातार छिछले होते भारतीय समाज में किसी भी गंभीर उपक्रम के लिए जगह घटती जा रही है। उसे सनसनी चाहिए, सस्ता मनोरंजन चाहिए, सांप्रदायिकता में बदलती सरल और कर्मकांडी धार्मिकता चाहिए और बहुत आसान किस्म की देशभक्ति चाहिए जिसमें सरकार की तारीफ़ करते हुए और पाकिस्तान को कोस कर काम चल जाता हो- साथ में उन लोगों को ट्रोल करके भी, जो इस समाज की इन प्रवृत्तियों पर चिंता जताते हों। 

यह अनायास नहीं है कि हमने कला को इतना स्वायत्त कर दिया है कि वह सिर्फ़ बाज़ार के हवाले है और पैसे वालों के काम आ रही है। पिछले दिनों नीरव मोदी के घर छापे पड़े तो तमाम भारतीय कलाकारों की बड़ी कलाकृतियां भी मिलीं। जाहिर है, इनकी कला उनके ड्राइंग रूम की शोभा बनी हुई थी।

लेकिन इस पूरे प्रसंग का सच यही है कि इस बेहद मुश्किल समय में, जब नफ़रत की तरह-तरह की पोशाकों में सांप्रदायिकता अट्टहास कर रही है, लोकतांत्रिक मूल्यों को और लोकतांत्रिक संस्थानों को लोकतंत्र की आड़ में ही कुचला जा रहा है, तब हमारी कलाएं राजा के काम आ रही हैं। 

मगर सवाल है, यह सब होता हो तो हम परेशान क्यों हों?

अगर हमारी कला मुक्तिबोध के शब्दों में ‘कीर्ति व्यवसायी’ ही रह गई है तो वह अप्रासंगिक हो जाएगी, उससे हमें चिंतित क्यों होना चाहिए?

इसके जवाब पर कुछ ठहर कर हमें विचार करना चाहिए। कला-साहित्य या संस्कृति क्या काम करती है? वे बहुत चुपचाप हमें भीतर से बदलती हैं। वे हमें बेहतर मनुष्य बनाती हैं। वे हमें न्याय, बराबरी और करुणा की ओर ले जाती हैं। जो विधाएं ऐसा नहीं करतीं, या इसके ख़िलाफ जाती हैं, वे अंतत: आततायियों और अत्याचारियों के काम आती हैं। तो अपनी कला को खोकर, अपने साहित्यिक सरोकारों को भूल कर, अपनी सांस्कृतिक चेतना से विलग-विरत होकर हम कुछ कम मनुष्य रह जाने को अभिशप्त हैं- कुछ कम देखने, सुनने और कहने को- और मनुष्यता का यह त्याग स्वैच्छिक नहीं है, वह आरोपित है। वह धीरे-धीरे हमारी प्रतिरोध क्षमता सोख लेता है, हमें सहजता से जीने की जगह यांत्रिक तौर पर जीवन से जुड़ी क्रियाएं कर लेने वाले मनुष्य भर में बदल देता है।

क्या यह सच नहीं है कि हमारे साथ ऐसा ही होता जा रहा है- हम सबकुछ भूल कर एक सामूहिक अट्टहास में शामिल हैं- और यह मान रहे हैं कि इसी में हमारी भलाई और ख़ुशी है?

अवतार सिंह पाश की एक कविता है- ‘अगर देश की सुरक्षा यही होती है’ जिसकी अंतिम पंक्तियां कुछ इस तरह हैं- 

‘अगर देश की सुरक्षा ऐसी होती है

कि हर हड़ताल को कुचलकर अमन को रंग चढ़ेगा 

कि वीरता बस सरहदों पर मरकर परवान चढ़ेगी

कला का फूल बस राजा की खिड़की में ही खिलेगा 

अक़्ल, हुक्म के कुएँ पर रहट की तरह ही धरती सींचेगी 

मेहनत, राजमहलों के दर पर बुहारी ही बनेगी 

तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है।’

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