महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के प्रमुख राज ठाकरे ने एलान किया है कि उनकी पार्टी बृहन्मुंबई महानगरपालिका यानी बीएमसी के चुनाव में अकेले उतरेगी। अभी तक इस बात की अटकलें लगाई जा रही थी कि मनसे राज्य में सरकार चला रही बीजेपी और एकनाथ शिंदे के गुट के साथ चुनावी गठबंधन कर सकती है।
कहा जा रहा था कि चूंकि बीजेपी की तरह राज ठाकरे भी हिंदुत्व की राजनीति करते हैं इसलिए बीएमसी के चुनाव, 2024 लोकसभा चुनाव और उसके 6 महीने बाद होने वाले महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के लिए बीजेपी, एकनाथ शिंदे और मनसे साथ आ सकते हैं।
पिछले महीने राज ठाकरे की मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और उप मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस से भी मुलाकात हुई थी और उसके बाद भी बीएमसी चुनाव के लिए गठबंधन की चर्चाओं ने जोर पकड़ा था। लेकिन अंततः ऐसा नहीं हो सका। बीएमसी के चुनाव में 236 सीटें हैं।
बताना होगा कि बीएमसी के चुनाव बेहद अहम होते हैं और लंबे वक्त तक यहां पर बीजेपी-शिवसेना का कब्जा रहा है। लेकिन इस साल जून महीने में शिवसेना में हुई बगावत के बाद शिवसेना के उद्धव ठाकरे गुट और एकनाथ शिंदे गुट के बीच तलवारें खिंच गई हैं।
राज ठाकरे ने बीएमसी चुनाव के लिए मनसे के कार्यकर्ताओं के साथ बैठक की और इस बैठक में मुंबई, पुणे, नासिक, ठाणे, पालघर, रायगढ़ सहित कई इलाकों से कार्यकर्ता शामिल हुए। महाराष्ट्र में अगले महीने अंधेरी ईस्ट विधानसभा सीट के लिए उपचुनाव होना है। मनसे ने कहा है कि वह इस चुनाव में अपना उम्मीदवार नहीं उतारेगी।
सियासी ग्राफ गिरा
एक वक्त में महाराष्ट्र में विधानसभा की 13 सीट जीतने वाली मनसे का राजनीतिक ग्राफ लगातार गिरता जा रहा है। हालांकि राज ठाकरे ने बीते महीनों में हिंदुत्व के मुद्दे को जोर-शोर से उठाकर खुद को महाराष्ट्र की सियासत में फिर से जिंदा करने की कोशिश की है। लेकिन अब जब महाराष्ट्र के अंदर उद्धव ठाकरे की हुकूमत जा चुकी है, ऐसे में राज ठाकरे के लिए उम्मीदें जगी हैं।
हालांकि मनसे अभी सियासी रूप से इतनी ताकतवर नहीं है लेकिन अगर वह अकेले चुनाव लड़ रही है तो क्या इससे बीजेपी-एकनाथ शिंदे गुट को कोई नुकसान होगा। निश्चित रूप से अगर बीजेपी-एकनाथ शिंदे गुट और राज ठाकरे की पार्टी मिलकर चुनाव लड़ते तो इससे हिंदुत्व और मराठी मानुष वाला सियासी दांव मजबूत हो सकता था। एकनाथ शिंदे और देवेंद्र फडणवीस इसीलिए शायद राज ठाकरे के साथ गठबंधन करना चाहते थे।
उद्धव गुट हुआ कमजोर
शिवसेना में हुई बगावत के बाद उद्धव ठाकरे का गुट भी कमजोर पड़ गया है क्योंकि बड़ी संख्या में शिवसेना के विधायक, सांसद और जिला प्रमुख एकनाथ शिंदे के गुट के साथ आ गए हैं। शिवसेना पर कब्जे की जंग भी दोनों गुटों के बीच जोर-शोर से जारी है और इसे देखते हुए चुनाव आयोग ने शिवसेना के अधिकृत चुनाव चिन्ह धनुष और बाण को फ्रीज कर दिया है और दोनों ही पार्टियों को नए चुनाव चिन्ह के साथ ही नए नाम भी दे दिए हैं।
एकनाथ शिंदे गुट को दो तलवार और ढाल दी गई है जबकि उद्धव ठाकरे गुट को मशाल का चुनाव चिन्ह मिला है।
उद्धव ने दी थी चुनौती
शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने पिछले महीने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को चुनौती दी थी कि अगर उनमें हिम्मत है तो वह 1 महीने के अंदर बीएमसी के चुनाव कराकर दिखाएं। बीएमसी के चुनाव में बीजेपी और एकनाथ शिंदे का गुट मिलकर उम्मीदवार उतारेगा जबकि शिवसेना का उद्धव ठाकरे गुट, कांग्रेस और एनसीपी भी मिलकर चुनाव लड़ सकते हैं। हालांकि इस बारे में अभी एलान नहीं हुआ है।
क्यों अहम हैं बीएमसी चुनाव?
शिवसेना में हुई बड़ी बगावत के बाद अंधेरी ईस्ट सीट पर होने वाला उपचुनाव और उसके बाद बीएमसी चुनाव शिवसेना के उद्धव ठाकरे गुट के साथ ही एकनाथ शिंदे गुट और बीजेपी के लिए भी बेहद अहम हैं। क्योंकि साल 2024 का लोकसभा चुनाव अब दूर नहीं है।
ऐसे में उपचुनाव और उसके बाद बीएमसी चुनाव में जीत हासिल करने के लिए यह सभी दल पूरी ताकत लगाएंगे। लेकिन अगर मनसे और बीजेपी-एकनाथ शिंदे का गठबंधन होता तो महा विकास आघाडी गठबंधन को बड़ी चुनौती मिल सकती थी लेकिन देखना होगा कि बीएमसी के चुनाव में कौन जीत हासिल करता है।
बीएमसी के बजट की बात की जाए तो इसका सालाना बजट लगभग 46000 करोड़ रुपए है जो देशभर के कई छोटे राज्यों के बजट से ज्यादा है। इसलिए यह नगर निगम बेहद ताकतवर है और इस पर कब्जे के लिए जबरदस्त जंग होती है।
2017 के बीएमसी के चुनाव में बीजेपी और शिवसेना ने मिलकर चुनाव लड़ा था और तब बीजेपी को 82 सीटों पर शिवसेना को 84 सीटों पर जीत मिली थी जबकि कांग्रेस को 31, एनसीपी को 7 और मनसे को 6 सीटों पर जीत मिली थी। बीएमसी में पिछले 25 सालों से शिवसेना का ही मेयर बनता रहा है लेकिन इस बार पार्टी के भीतर जो जबरदस्त टूट हुई है उसके बाद सवाल यही है कि क्या शिवसेना महा विकास आघाडी के दलों के साथ मिलकर फिर से अपना मेयर बना पाएगी।
बीएमसी के चुनाव में उत्तर भारत के राज्यों के मतदाता भी अहम रोल अदा करते हैं। उत्तर भारत के राज्यों की आबादी यहां 30 फीसद है।