पूर्वोत्तर में हिंदुओं के लिए अल्पसंख्यक के दर्जे की मांग के पीछे संघ की साज़िश?
गुवाहाटी हाई कोर्ट और मेघालय हाई कोर्ट में दो जनहित याचिकाएं (पीआईएल) दायर कर पूर्वोत्तर राज्यों में हिंदुओं को अल्पसंख्यक का दर्जा देने की मांग की गई है। इन याचिकाओं के पीछे संघ परिवार की सोची-समझी साज़िश नजर आती है।
कश्मीर से धारा 370 हटाने का मसला हो, नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) लागू करना हो या एनआरसी के जरिये मुसलमानों से नागरिकता छीनकर उनको डिटेंशन कैंपों में कैद करने की मंशा हो, संघ परिवार की विभाजनकारी सोच के आधार पर ही सरकार सारे फ़ैसले करती रही है। ऐसा लगता है कि बहुसंख्यकवाद के दबदबे वाली मानसिकता के कारण ही हिंदुओं के लिए आठ राज्यों में अल्पसंख्यक के दर्जे की मांग की जा रही है।
संघ परिवार की विचारधारा से जुड़े एक वकील अश्विनी उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर मांग की थी कि आठ राज्यों में हिंदुओं को अल्पसंख्यक का दर्जा मिलना चाहिए। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उस जनहित याचिका पर सुनवाई करने से इनकार कर दिया था। 20 फरवरी, 2020 को जस्टिस आर. फली नरीमन की पीठ ने याचिकाकर्ता को संबंधित उच्च न्यायालय जाने की स्वतंत्रता दे दी और याचिकाकर्ता ने जनहित याचिका को वापस ले लिया था।
याचिका में लक्षद्वीप, मिजोरम, नगालैंड, मेघालय, जम्मू-कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और पंजाब में हिंदुओं को अल्पसंख्यक घोषित करने की मांग की गई थी।
याचिका में कहा गया था कि इन राज्यों में अल्पसंख्यक होने के बावजूद हिंदुओं को अल्पसंख्यक घोषित नहीं किया गया और अल्पसंख्यकों को मिलने वाले लाभ बहुसंख्यक वर्ग के लोग ले रहे हैं और हिंदू इन सुविधाओं से वंचित हैं। याचिका में ये भी कहा गया है कि केन्द्र सरकार तकनीकी शिक्षा लेने वाले अल्पसंख्यक छात्रों को 20000 रुपये की छात्रवृत्ति देती है। जम्मू-कश्मीर में 68.30 फीसदी मुसलमान हैं और सरकार 753 में से 717 छात्रवृत्तियां मुसलिम छात्रों को देती है।
स्पष्ट है कि सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद ही गुवाहाटी हाई कोर्ट और मेघालय हाई कोर्ट में इसी तरह की याचिका दायर की गई है। इनमें से एक याचिका शिलांग के अधिवक्ता और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता डेलिना खोंगडुप ने मेघालय हाई कोर्ट में दायर की है जबकि दूसरी सामाजिक कार्यकर्ता पंकज डेका ने अपने वकील एच. तालुकदार के माध्यम से गुवाहाटी हाई कोर्ट में दायर की है।
याचिकाकर्ताओं ने 23 अक्टूबर, 1993 की उस अधिसूचना को चुनौती दी है, जिसके तहत मुसलिम, ईसाई, सिख, बौद्ध, पारसी और जैन धर्म को मानने वालों को अल्पसंख्यक घोषित किया गया था।
इन जनहित याचिकाओं में यह कहा गया है कि उत्तर-पूर्व के राज्यों में ज्यादातर ईसाई लोगों की बहुलता है। उनकी मांग है कि अल्पसंख्यकों की गणना राज्यों में उनकी आबादी के अनुसार की जानी चाहिए, न कि राष्ट्रीय संख्या के आधार पर। राष्ट्रीय आंकड़ों के आधार पर गणना से राज्य के अल्पसंख्यकों को इसके लाभ से वंचित होना पड़ता है।
हिंदुओं को रखा गया बाहर
याचिका में कहा गया है कि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम 1992 में बना और 17 मई, 1993 को जम्मू-कश्मीर को छोड़ कर पूरे भारत में लागू हुआ। केन्द्र सरकार ने कानून की धारा 2(सी) के तहत 23 अक्टूबर, 1993 को पांच समुदायों मुसलिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी को अल्पसंख्यक समुदाय घोषित किया। 2014 में इसमें जैन धर्म को भी शामिल कर दिया गया जबकि आठ राज्यों में अल्पसंख्यक होने के बावजूद हिंदुओं को इसमें शामिल नहीं किया गया।
याचिका में कहा गया है कि 2011 की जनगणना के मुताबिक़ हिन्दू आठ राज्यों लक्षद्वीप (2.5 फीसदी), मिजोरम (2.7 फीसदी), नगालैंड (8.75 फीसदी), मेघालय (11.53 फीसदी), जम्मू-कश्मीर (28.44 फीसदी), अरुणाचल प्रदेश (29 फीसदी), मणिपुर (31.39 फीसदी) और पंजाब में (38.40 फीसदी) अल्पसंख्यक हैं। लेकिन उन्हें अल्पसंख्यक घोषित नहीं किया गया है और इन राज्यों में अल्पसंख्यकों को मिलने वाले लाभ बहुसंख्यक ले रहे हैं।
इन राज्यों मे न तो केन्द्र ने और न ही राज्य सरकारों ने कानून के मुताबिक़ हिन्दुओं को अल्पसंख्यक समुदाय अधिसूचित किया है। इस वजह से इन राज्यों में हिन्दू संविधान के अनुच्छेद 25 और 30 के तहत अल्पसंख्यक वर्ग को मिलने वाले लाभ से वंचित हैं।
याचिका में आगे कहा गया है कि इन राज्यों में बहुसंख्यक समुदाय "अल्पसंख्यक" समुदायों के लिए निर्धारित सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं और इस तरह करदाताओं का पैसा बर्बाद हो रहा है। याचिका के मुताबिक़, इन क्षेत्रों में अल्पसंख्यकों को लाभ प्रदान करने के लिए संविधान की नए सिरे से व्याख्या आवश्यक है।