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प्रवासी मज़दूर घर भी लौट जाएँ तो काम क्या करेंगे और खाएँगे क्या?

प्रवासी मज़दूर घर भी लौट जाएँ तो काम क्या करेंगे और खाएँगे क्या?

केंद्र और राज्य सरकारें यह दावा कर रही हैं कि इन मज़दूरों को खाने के सामान उपलब्ध कराये जा रहे हैं पर तमाम राज्यों और शहरों से गाँवों की तरफ़ सड़कों पर उमड़ती भीड़ इन दावों की सच्चाई पर गंभीर सवाल खड़ा करती हैं। 

दुनिया भर में अब तक ज्ञात रूप से 37 लाख से अधिक लोग कोरोना वायरस से संक्रमित हो चुके हैं और लगभग ढाई लाख लोगों की इससे मौत हो चुकी है। चीन से शुरू होकर यह महामारी भारत समेत दुनिया के लगभग 200 देशों में फैल चुकी है। वैक्सीन या किसी दूसरी कारगर दवा के अभाव में दुनिया के तमाम देशों ने इस बीमारी से निपटने के लिए जो सबसे पहला क़दम उठाया, वह है, पूर्ण या आंशिक लॉकडाउन का।

भारत में यह लॉकडाउन 24 मार्च से शुरू हुआ जो अब तक जारी है। इस लॉकडाउन के लंबे समय तक खिंचने, काम-धंधों के बंद हो जाने और सार्वजनिक यातायात बंद होने के कारण देश भर में लाखों मज़दूर जो असंगठित क्षेत्र में (ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में) काम करते हैं उनके समक्ष रोज़ी-रोटी और जीविका चलाने की गंभीर समस्या उत्पन्न हो गयी है। असंगठित क्षेत्र वह क्षेत्र है जिसमें कोई सामाजिक सुरक्षा भुगतान जैसे पेंशन, पेड लीव, जॉब सिक्योरिटी, महँगाई भत्ता और घर का किराया इत्यादि नहीं मिलता।

भारत में लगभग 92 प्रतिशत कामगार इसी असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। इस असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले करोड़ों लोग अपने मूल घरों से निकल कर दूसरे ग्रामीण या शहरी इलाक़ों में प्रवासी मज़दूर के रूप में काम करते हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में कुल प्रवासियों की संख्या 43.4 करोड़ थी जिनमें क़रीब 10.7 करोड़ लोग ऐसे थे जो काम करने के सिलसिले में एक स्थान से दूसरे स्थान पर गये थे। इस परिप्रेक्ष्य में यह समझना लाज़िमी है कि कुल 10.7 करोड़ प्रवासियों में 9 करोड़ से अधिक लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते रहे हैं जिन्हें दैनिक, साप्ताहिक या मासिक मज़दूरी या तनख्वाह मिलती है। 

काम के सिलसिले में बाहर गए प्रवासियों की कुल संख्या का सबसे अधिक उत्तर प्रदेश से 23 प्रतिशत और बिहार से 14 प्रतिशत है। यानी कुल प्रवासियों का लगभग 4 करोड़ लोग सिर्फ़ उत्तर प्रदेश और बिहार से सम्बन्ध रखते हैं। 

आमदनी के अभाव में इन सभी मज़दूरों के समक्ष खाने-पीने और अन्य ज़रूरी सामानों की विकट समस्या पैदा हो गयी है। हमारे देश में खाद्य सामग्री का भण्डारण करने वाले फ़ूड कॉरपोरेशन ऑफ़ इंडिया के गोदामों में 30 मार्च 2020 को कुल गेहूँ और चावल का भण्डारण 584.9 लाख मिट्रिक टन था। सवाल उठता है कि क्या सरकारें खासकर केंद्र सरकार इन प्रवासी कामगारों को हो रही खाद्यान्न की इस तात्कालिक समस्या से निजात दिलाने के लिए सस्ते दर पर अनाज का वितरण करने वाली सार्वजनिक वितरण प्रणाली का उपयोग कर इन शहरी और कस्बाई इलाक़ों में प्रवासी मज़दूरों को ज़रूरी राशन उपलब्ध नहीं करा सकतीं 

केंद्र और राज्य सरकारें यह दावा कर रही हैं कि इन मज़दूरों को खाने का सामान उपलब्ध कराया जा रहा है पर तमाम राज्यों और शहरों से गाँवों की तरफ़ सड़कों पर उमड़ती भीड़ इन दावों की सच्चाई पर गंभीर सवाल खड़ा करती है।

गृह मंत्रालय द्वारा जारी नए आदेशों के अनुसार इन प्रवासी मज़दूरों को राज्य सरकारें चाहें तो बस या ट्रेन द्वारा उनके मूल स्थान पर भिजवा सकती हैं। इसके लिए इन प्रवासी मज़दूरों को अपने अपने राज्य के नोडल अधिकारियों के पास रजिस्टर कराना है। गृह मंत्रालय द्वारा जारी इन नए आदेशों ने नए तरह के सवालों को जन्म दिया है – क्या प्रवासी जिन राज्यों से सम्बन्ध रखते हैं वहाँ पर्याप्त संख्या में क्वॉरंटीन केंद्र बनाए गये हैं क्या इन प्रवासियों के लौटने पर इनका कोरोना टेस्ट किया जाएगा या नहीं ये सवाल पूछना इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह पता लगाना आवश्यक है कि लौट रहे प्रवासी कामगार कोरोना से संक्रमित तो नहीं हैं। यदि इन प्रवासियों का कोरोना टेस्ट नहीं किया गया तो ख़तरा यह भी है कि अब तक जिन राज्यों या ज़िलों में संक्रमण की संख्या कम है, वहाँ तेज़ी से संक्रमण फैल सकता है। भारत में अभी भी प्रति 10 लाख आबादी पर महज 864 लोगों का टेस्ट हो पा रहा है, जो काफ़ी कम है।

राज्यों के सामने आर्थिक संकट

अब जबकि कई राज्य अपने ख़र्च पर प्रवासियों को उनके मूल राज्य में भेज रहे हैं या वापस बुला रहे हैं, यह उन सभी राज्यों के लिए एक नए आर्थिक संकट का सबब बनेगा। इन लौट आये कामगारों के समक्ष ख़ुद अपने गाँव और कस्बों में काम मिलना मुश्किल होगा, क्योंकि नियमित काम के अभाव में ही ये लोग दूसरे ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में जाकर काम करने के लिए बाध्य थे। इसलिए आवश्यक है कि केंद्र सरकार ग्रामीण रोज़गार (मनरेगा, प्रधानमंत्री आवास योजना, नेशनल रूरल लाइवलीहुड मिशन, इत्यादि) पर और अधिक ख़र्च करे ताकि अधिक से अधिक लोगों को रोज़गार दिया जा सके। इस बीच सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से गाँवों और शहरों में हर घर को शामिल कर उन्हें ज़रूरी राशन मुहैया कराया जाए। 

काम के छूट जाने और मज़दूरी नहीं मिलने से आयी खरीदने की क्षमता में कमी से पीडीएस के माध्यम से निपटा जा सकता है। इस माध्यम से लोगों को सस्ते दर पर अनाज उपलब्ध कराकर लोगों की खाद्य असुरक्षा को आसानी से दूर किया जा सकता है, बशर्ते कि सरकार और ब्यूरोक्रेसी के अन्दर इस समस्या से लड़ने की राजनीतिक इच्छाशक्ति हो।

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