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मेरठ एसपी बोले - 'पाकिस्तान चले जाओ'; क्या एक समुदाय के ख़िलाफ़ है पुलिस?

मेरठ एसपी बोले - 'पाकिस्तान चले जाओ'; क्या एक समुदाय के ख़िलाफ़ है पुलिस?

मेरठ के एसपी अखिलेश नारायण सिंह एक गली में मौजूद मुसलिम समुदाय के कुछ लोगों को धमकाते हैं और कहते हैं कि वे पाकिस्तान चले जाएं। 

सरकार के काम को ज़मीन पर उतारना नौकरशाही का काम है। इसलिए किसी भी सफल सरकार का श्रेय नौकरशाही को और सरकार के असफल होने का ठीकरा भी नौकरशाही के सिर फोड़ा जाता है। इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्री रहते हुए उनके प्रधान सचिव पी.एन. हक्सर ने ‘कमिटेड ब्यूरोक्रेसी’ को लागू करने की बात कही थी। ‘कमिटेड ब्यूरोक्रेसी’ का सीधा मतलब यह है कि नौकरशाही सरकारी योजनाओं और नीतियों को लागू करने के लिए पूरी तरह से राजनीतिक दल को समर्पित हो और उसकी विचारधारा के हिसाब से काम करे। परेशानी तब खड़ी होती है जब नौकरशाही का राजनीतिकरण हो जाए। यानी नौकरशाही वह काम करे जिससे सरकार की राजनीतिक मंशाओं को ख़ुराक मिलती हो। 

यहां पर इस बात का जिक्र इसलिए किया गया क्योंकि उत्तर प्रदेश में पुलिस विभाग के नौकरशाहों या अफ़सरों ने ऐसा कारनामा कर दिखाया है जिसे पढ़ने के बाद सवाल उठता है कि क्या यूपी में वास्तव में पुलिस का राजनीतिकरण हो गया है

पहले समझते हैं कि यह मामला क्या है - उत्तर प्रदेश में नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ हो रहे विरोध प्रदर्शनों के दौरान मेरठ के एसपी अखिलेश नारायण सिंह एक गली में मौजूद मुसलिम समुदाय के कुछ लोगों को धमकाते हैं। एसपी कहते हैं, ‘हाथ में काली-पीली पट्टी बाँध रहे हो, बता रहा हूँ, उनको कह दो पाकिस्तान चले जाएँ। देश में रहने का मन नहीं है तो चले जाओ भैया। खाओगे यहां का और गाओगे कहीं और का। मैंने फ़ोटो ले लिया है। इनको बता देना, इस गली को मैं ठीक कर दूंगा।’

एसपी ने आगे कहा, ‘ये गली मुझे याद हो गई है और जब मुझे कुछ याद हो जाता है तो नानी तक मैं पहुंचता हूं, अगर इसी गली में कुछ हो गया तो तुम लोग इसकी क़ीमत चुकाओगे। आ जाना, फिर इस गली से।’ इस दौरान एसपी थोड़ा आगे जाते हैं और बार-बार पीछे लौटकर आते हैं। जिन लोगों के बारे में वह बात कर रहे हैं उन्हें वह गालियां भी देते हैं। 

एसपी आगे कहते हैं कि इस गली के एक-एक घर के एक-एक आदमी को जेल में बंद कर दूंगा। इस दौरान वह प्रदर्शनकारियों को सामने आने की चुनौती भी देते हैं। इस बीच में एक अन्य पुलिस अफ़सर कहता है कि फ़्यूचर काला होने में एक सेकेंड लगेगा। यह अफ़सर कहते हैं कि वे 4 लोग थे और उनके फ़ोटो ले लिये गए हैं। 

इस वीडियो के सामने आने के बाद सोशल मीडिया में भूचाल आ गया है। लोगों का कहना है कि मुसलमानों को खुलेआम इस तरह धमकी देना कि पूरी गली को ठीक कर देंगे और पाकिस्तान चले जाने की बात कहना जिले के पुलिस अधीक्षक जैसे अहम पद पर बैठे व्यक्ति की इस समुदाय के लोगों के प्रति सोच को दर्शाता है। लोगों का यह भी कहना है कि पहले ट्रोल आर्मी ही उन्हें पाकिस्तान जाने के लिए कहती थी लेकिन अब पुलिस विभाग भी इसमें शामिल हो गया है। 

मुसलमानों को मानते हैं अपराधी: रिपोर्ट

यहां पर कुछ महीने पहले आई एक रिपोर्ट का जिक्र करना ज़रूरी होगा। सीएसडीएस की लोकनीति और काॅमन कॉज की ओर से तैयार की गई यह रिपोर्ट कहती है कि देश में हर दो में से एक पुलिसकर्मी को यह लगता है कि मुसलमानों के अपराधी होने की संभावना स्वाभाविक रूप से ज़्यादा होती है। ऐसे में सवाल यह खड़ा होता है कि कैसे पुलिसकर्मी किसी मामले में मुसलमानों के साथ न्याय कर पाएँगे क्योंकि वह पहले से ही मान बैठे हैं कि मुसलमानों के अपराधी होने की संभावना ज़्यादा है। इस रिपोर्ट को तैयार करते वक़्त 21 राज्यों के 12 हज़ार पुलिसकर्मियों का इंटरव्यू लिया गया था। 

हाशिमपुरा दंगा 

लोकनीति और काॅमन कॉज की इस रिपोर्ट को पढ़ने के बाद और मेरठ के एसपी के बयान को सुनने के बाद एक सवाल मन में उठता है कि क्या पुलिस मुसलिम समुदाय के ख़िलाफ़ है। इसके बाद 1987 में मेरठ के हाशिमपुरा में हुए नरसंहार की ओर ध्यान जाता है। मेरठ में कर्फ्यू के दौरान 22 मई, 1987 को पीएसी के जवान हाशिमपुरा मुहल्ले से 50 लोगों को जिनमें सभी मुसलमान थे, को ट्रक में भरकर ले गए थे और इन सभी को गोली मार दी गई थी। इनकी लाशों को गंग नहर और हिंडन नदी में फेंक दिया गया था। गोली लगने के बाद बचे कुछ लोगों ने इस मामले की शिकायत की थी और तब इस हत्याकांड का पता चला था। 

पुलिस बोली, पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाए

वीडियो वायरल होने के बाद एसपी की ओर से मामले में सफाई सामने आई है। एसपी ने कहा, ‘हमें देखकर कुछ लड़कों ने पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाए और भागने लगे। मैंने उनसे कहा आप पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगा रहे हैं और भारत से इतनी नफरत करते हैं कि पत्थर फेंक रहे हैं तो पाकिस्तान चले जाते। उनकी पहचान की जा रही है।’ जबकि मेरठ के एडीजी प्रशांत कुमार का कहना है, ‘अगर स्थिति सामान्य होती तो शब्दों का चुनाव बेहतर हो सकता था लेकिन उस दिन स्थिति बेहद ख़राब थी। पथराव किया जा रहा था, भारत-विरोधी और पड़ोसी देश के समर्थन में नारे लगाए जा रहे थे।’

पुलिस यह दावा कर रही है कि इन लड़कों ने पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाये थे। लेकिन पुलिस के इस बयान की जाँच करना बेहद ज़रूरी है क्योंकि पुलिस ने इस मामले में कोई सबूत पेश नहीं किया है। जब तक पुलिस अपने बयान के समर्थन में कोई ठोस सबूत नहीं देती तो यह कैसे मान लिया जाएगा कि ऐसे नारे लगाए गए थे। घटना के दौरान वहां कई पत्रकार भी मौजूद थे लेकिन किसी के पास ऐसा कोई वीडियो नहीं है जिसमें ऐसे नारे लगाये जाने की कोई घटना दर्ज हुई हो।

नागरिकता क़ानून के विरोध में हुए प्रदर्शनों में उपद्रवियों द्वारा सार्वजनिक संपत्ति को नुक़सान पहुंचाने के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने नुक़सान की भरपाई उपद्रवियों से करने और ‘बदला’ लेने की बात कही थी। मुख्यमंत्री के बयान के बाद यूपी पुलिस मुसलिम समुदाय के घरों में घुसकर उन्हें पीट रही है। मुज़फ़्फरनगर में एक बुजुर्ग की पिटाई का वीडियो ख़ूब वायरल हुआ है। ऐसे में सवाल यही है कि जो ‘बदला’ लेने वाली भाषा सरकार की है, वैसा ही पुलिस कर रही है। और पुलिस ने उत्तर प्रदेश में उपद्रवियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने के नाम पर दिखाया है कि सरकार को जो भाषा पसंद है वह वैसी ही भाषा बोलेगी और कार्रवाई के नाम पर जो पसंद होगा, वही वह करेगी। क्योंकि जैसा इस ख़बर की शुरुआत में कहा गया है कि नौकरशाही का राजनीतिकरण होना बेहद ख़तरनाक है, वैसा ही इस मामले में पुलिस विभाग के साथ होता देखा गया है। 

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