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प्रिंट की तरह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को नियमित करने के लिए तंत्र क्यों नहीं है: कोर्ट

प्रिंट की तरह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को नियमित करने के लिए तंत्र क्यों नहीं है: कोर्ट

बॉम्बे हाई कोर्ट ने केंद्र सरकार से पूछा है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर जारी किए जा रहे कंटेंट के रेग्युलेशन के लिए कोई वैधानिक तंत्र क्यों नहीं है। 

दूसरों को सवालों के कटघरे में खड़ा करने वाला टीवी मीडिया टीआरपी घोटाले और पत्रकारिता के स्टैंडर्ड्स को बुरी तरह रौंदने के कारण ख़ुद सवालों के घेरे में है। कुछ दिन पहले ही सुदर्शन न्यूज़ चैनल के ‘यूपीएससी जिहाद’ कार्यक्रम के प्रसारण को लेकर सुनवाई के दौरान देश की शीर्ष अदालत ने टेलीविज़न चैनलों के ‘बेलगाम’ हो चुके कार्यक्रमों पर नाराजगी जताई थी। 

कोर्ट ने टीआरपी के लिए मुसलिम समुदाय को बदनाम करने से लेकर किसी व्यक्ति की छवि को ख़राब करने, मीडिया एथिक्स और प्रेस की आज़ादी पर खरी-खरी टिप्पणियां की थीं। 

अब बॉम्बे हाई कोर्ट ने सख़्त रूख़ दिखाया है। हाई कोर्ट ने केंद्र सरकार से पूछा है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर जारी किए जा रहे कंटेंट के रेग्युलेशन के लिए कोई वैधानिक तंत्र क्यों नहीं है। अदालत ने कहा कि जिस तरह प्रिंट मीडिया के लिए प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया जैसी संस्था है, वैसी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए क्यों नहीं है। 

अदालत ने मीडिया ट्रायल के ख़िलाफ़ किसी तरह का एक्शन नहीं होने को लेकर कहा कि सुप्रीम कोर्ट के द्वारा इस संबंध में कई ऑर्डर पास किए गए लेकिन किसी को इसकी परवाह नहीं है। 

हाई कोर्ट की डिजीवन बेंच में शामिल चीफ़ जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस गिरीश एस. कुलकर्णी ने केंद्र से पूछा- ‘क्या ब्रॉडकास्टर्स के लिए कोई वैधानिक तंत्र है। उन्हें क्यों इस तरह की खुली छूट दी जानी चाहिए।’

बेंच सुशांत राजपूत की मौत मामले में मीडिया कवरेज को लेकर दायर कई जनहित याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी। इसमें महाराष्ट्र के आठ पूर्व सीनियर पुलिस अफ़सरों की याचिका भी शामिल है, यह याचिका भी मीडिया ट्रायल के ख़िलाफ़ दायर की गई है। 

अदालत में सुनवाई के दौरान कहा गया कि मीडिया ट्रायल किसी अभियुक्त के जीने के अधिकार, उसकी गरिमा और व्यक्तिगत आज़ादी का उल्लंघन करता है। 

प्रेस की आज़ादी की दुहाई 

केंद्र सरकार की ओर से पेश हुए एडिशनल सॉलिसिटर जनरल अनिल सिंह ने अदालत को बताया, ‘ऐसा नहीं है कि सरकार कुछ नहीं कर रही है। वह चैनलों के ख़िलाफ़ शिकायतें मिलने पर कार्रवाई करती है। कुछ और तंत्र या व्यवस्था भी हैं। हम यह सुनिश्चित करते हैं कि मीडिया आज़ाद रहे। लेकिन सरकार हर चीज को नियंत्रित नहीं कर सकती। प्रेस की भी आज़ादी और उसके अपने अधिकार हैं।’ 

अब बर्दाश्त नहीं 

सुशांत राजपूत की मौत मामले में जिस तरह कुछ मीडिया चैनलों ने बॉलीवुड की कुछ हस्तियों के ख़िलाफ़ मीडिया ट्रायल चलाया और बॉलीवुड में ड्रग्स एंगल की जांच के नाम पर पूरी इंडस्ट्री को बदनाम किया गया, उसके ख़िलाफ़ फ़िल्मी सितारे खुलकर मैदान में आ गए हैं। 

फ़िल्म उद्योग के चार संगठनों और 34 फ़िल्म निर्माताओं ने मिल कर दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका दायर की है। याचिका में मांग की गई है कि ये चैनल और इनके सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म ग़ैर ज़िम्मेदाराना, अपमानजनक और अवमानना वाली सामग्री प्रकाशित न करें। कहा गया है कि फ़िल्मी हस्तियों का मीडिया ट्रायल बंद हो और इस उद्योग के लोगों की निजता के अधिकार का उल्लंघन न किया जाए।

फ़िल्म निर्माताओं की ओर से रिपब्लिक टीवी और टाइम्स नाऊ के ख़िलाफ़ मुक़दमा दायर किया गया है। मुक़दमे में रिपब्लिक टीवी के संपादक अर्णब गोस्वामी व पत्रकार प्रदीप भंडारी और टाइम्स नाऊ के पत्रकार राहुल शिवशंकर व नाविका कुमार को भी नामज़द किया गया है।

डिजिटल मीडिया पर नज़र

हाल ही में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि यदि उसे मीडिया से जुड़े दिशा-निर्देश जारी करने ही हैं तो सबसे पहले वह डिजिटल मीडिया की ओर ध्यान दे, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े दिशा-निर्देश तो पहले से ही हैं। सरकार ने कहा है कि डिजिटल मीडिया पर ध्यान इसलिए भी देना चाहिए कि उसकी पहुंच ज़्यादा है और उसका प्रभाव भी अधिक है। 

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