मीडिया का मायाजाल: मीडिया के वीभत्स चेहरे को उघाड़ती एक किताब
‘मीडिया का मायाजाल’ मीडिया विषयक चार दर्जन लेखों का संग्रह है जिसमें बीते चार-पाँच साल में मीडिया के स्वभाव में आए परिवर्तन चिंता के साथ व्यक्त हुए हैं। यह पुस्तक लेखक डॉ. मुकेश कुमार के सतत लेखन का संकलन निश्चित रूप से है लेकिन इसका मज़बूत वैचारिक पक्ष पुस्तक को उपयोगी बनाता है। पत्रकारिता के छात्रों समेत हर वर्ग के लोगों के लिए यह पुस्तक महत्वपूर्ण है चाहे वे राजनीतिक हों या बुद्धिजीवी या फिर आम लोग।
लेखक ने 3 दशक से अधिक समय के अपने पत्रकारीय अनुभवों से इस पुस्तक के हर पन्ने और पंक्तियों को बुना है। यह कहना ज़रूरी नहीं है कि लेखक पत्रकारिता की दुनिया में कितने नामचीन हैं क्योंकि इस परिचय के बगैर भी पाठक पुस्तक के कथ्य को सहज सहर्ष स्वीकार कर लेंगे। यही पुस्तक की खासियत है। तथ्य, कथ्य, विचार, अभिव्यक्ति का सौंदर्य… सबकुछ इस पुस्तक के बागीचे में माली रूपी लेखक के तन-मन-धन से बोए गये हैं, संजोए गये हैं।
सन्नाटे को चीरने की बेचैनी दिखती है जब डॉ. मुकेश कुमार चकित होकर पूछते हैं इतना सन्नाटा क्यों है भाई...! रुपर्ट मर्डोक की पत्रिका न्यूज़ ऑफ़ द वर्ल्ड के फ़ोन हैकिंग कांड के बाद पत्रकारिता के अपराधीकरण का सच सामने आया था। जस्टिस लेवसन की अध्यक्षता में गठित कमेटी ने मीडिया को सनसनी के पीछे भागता हुआ, धंधेबाज़ी करता हुआ पाया था।
हिन्दुस्तान में भी वैसी ही कहानी लगातार दोहरायी जा रही है। मगर, सन्नाटा है कि टूटता नहीं। संपादकों के हृदय परिवर्तन की झूठी आशा पर लेखक ने कठोर सवाल खड़ा किया है- ‘...संपादक वही लोग बनाए जा रहे हैं जिनमें संपादकीय नहीं, व्यावसायिक दक्षता होती है। और ये तो आप जानते हैं कि व्यवसाय में रीढ़ का होना एक ग़ैर ज़रूरी शर्त है।’
सवाल के रूप में मीडिया में दलाल तंत्र की मौज़दूगी की बात को लेखक ने बड़ी शिद्दत से उठाया है। नीरा राडिया टेप कांड, अगस्ते वेस्टलैंड हेलीकॉप्टर सौदे में रिश्वतखोरों में पत्रकारों के नाम और ऐसी ही घटनाओं से पत्रकार बिरादरी शक के दायरे में आ गयी है। डॉ. मुकेश लिखते हैं, ‘यह न तो मीडिया के लिए शुभ है और न ही लोकतंत्र के लिए।’
प्रसार भारती से लोक प्रसारक होने का तमगा छीनने की वकालत लेखक करते हैं क्योंकि बकौल लेखक यह नालायक हो गया है। प्रसार भारती के 20 साल के कामकाज की समीक्षा से लेखक पाते हैं कि निष्पक्षता तो दूर यह सरकारी प्रोपेगंडा में लगा हुआ दिखता है।
कैराना में एक बीजेपी नेता की कथित सूची के आधार पर मुसलमानों के डर से हिन्दुओं के पलायन की कहानी पर डॉ. मुकेश कुमार की बेबाक क़लम चली है। इसे उन्होंने ‘काले मुंह वाले चैनलों का कैराना’ बताया है। पत्रकारिता में सही-ग़लत को परखने की क्षमता में जो गिरावट आयी है या आ रही है उसका बारीकी से विश्लेषण इसमें मिलता है। टीवी की एक खासियत बताते हुए लेखक लिखते हैं कि अगर यह छवि निर्माण का शक्तिशाली औजार है तो इसे छवि को ध्वस्त करने में भी वक़्त नहीं लगता।
‘टाइम्स नाउ’ के एंकर अर्णब गोस्वामी पीएम उम्मीदवार नरेंद्र मोदी का पहला इंटरव्यू लेकर वाहवाही लूटते हैं, उन्हीं की चारों तरफ़ निंदा-भर्त्सना होने में भी देर नहीं लगती। उनकी छवि 2014 में हुए सत्ता परिवर्तन के बाद से सरकार परस्त, संघपरस्त और मोदी परस्त राष्ट्रवादी पत्रकार की हो चुकी है।
लेखक इस बात पर चिंता जताते हैं कि मुख्यधारा के मीडिया में उग्र, नस्लवादी और हिंसक पत्रकारों की नयी जमात पैदा हो गयी है। यह जमात अज्ञानी भी है, कूपमंडूप भी। भ्रम का शिकार भी है यह और अहंकारी भी। इनके सहारे ही नकली विकास का प्रोपेगेंडा चलता है। एक झूठ को सौ बार दोहराने पर सच महसूस कराने का गोएबल्स फ़ॉर्मूला मीडिया के ज़रिए अमल में लाया जाता है। फर्जी आँकड़ों से कभी गुजरात मॉडल की बात होती है, कभी बिहार मॉडल की। समय इन सभी दावों को ध्वस्त भी कर देता है।
स्वच्छता अभियान को कवर करते समय यही मीडिया कैसे और कब खुद कूड़ा-करकट फैलाता नज़र आने लगता है किसी को महसूस ही नहीं होता। मलिन बस्तियों तक की तसवीरें भुलाकर प्रायोजित तसवीरों की गंदगी फैलाकर मीडिया महापाखंडी होने का सबूत ख़ुद सामने रखता है।
लेखक का मानना है कि आज का मीडिया जंगखोर है। शांति के बजाए जंग की वकालत करता है। युद्ध को मनोरंजन के तौर पर पेश करता है।
1991 में सीएनएन की लोकप्रियता के बाद यह ट्रेंड चला था, लेकिन अब यह और भी बुरे स्वरूप में सामने आ चुका है। हथियार बेचने वाले गिरोह के हाथों मीडिया इस्तेमाल होने लगा है। लेखक कहते हैं, ‘ये कोई छिपी बात तो है नहीं कि पूरा का पूरा मीडिया काले धन के कीचड़ में लोटपोट हो रहा है। अगर कोई ईमानदार जाँच एजेंसी मीडिया संस्थानों के खाते ढंग से खंगाले तो सबकी पोल-पट्टी खुल जाएगी।’
टीवी रेटिंग में ‘धांधली’ के सवाल को लेखक ने 2016 में ही उठाया था जो आज की तारीख़ में बहुत मौजूं हो चुका है। तब इंडिया न्यूज़ और तीन अन्य टीवी चैनलों को चार हफ्ते तक सस्पेंड करने का निर्णय ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च कौंसिल ने लिया था।
लेखक ने मीडिया के प्रति नरेंद्र मोदी सरकार के रुख को बहुत पहले सामने रख दिया था। नरेंद्र मोदी बनारस की सभा में नोटबंदी के सवाल पर एक रिपोर्टर की खिल्ली उड़ाते हैं तो सूचना एवं प्रसारण मंत्री वेंकैया नायडू दिल्ली में सरेआम मीडिया पर बरसते हैं। स्मृति ईरानी, रविशंकर प्रसाद, गिरिराज सिंह जैसे नेता भी अपने ओहदे के दम पर पत्रकारों को धमकाते नज़र आते हैं। लेखक ने 2016 में ही पूछा था कि ये अंदाज़-ए-गुफ्तगू क्या है? आज यह स्थिति और गंभीर हो चुकी है।
‘ट्रम्प और मोदी का मीडिया’ के ज़रिए लेखक बताते हैं कि अमेरिका में मोदी के विरोध की हिम्मत मीडिया में है जबकि यही हिम्मत भारत में खोता नज़र आ रहा है।
मोदी हों या ट्रंप दोनों ने मीडिया के सवालों से बचने के लिए मीडिया को ही भ्रष्ट बताने का तरीक़ा अपनाया।
मोदी तो मीडिया को न्यूज़ ट्रेडर तक बता चुके हैं।
फ़ेक न्यूज़ के ख़तरनाक जाल से लेखक आगाह करते हैं। सूचनाओं के विस्फोट ने पूरी दुनिया को पारदर्शी और विश्वसनीय बनाने के बजाए संदिग्ध बना दिया है। अब ख़बर भी शक के साथ देखी जाने लगी है। डोनल्ड ट्रंप जैसे शक्तिशाली अमेरिकी राष्ट्रपति भी फेक न्यूज़ को अनजाने में आगे बढ़ाते नज़र आते हैं यानी फ़ेक न्यूज़ का शिकार हो जाते हैं।
लेखक बताते हैं कि झूठ फैलाने के कारोबार में राजनीति से जुड़े लोग अधिक सक्रिय हैं। घिनौनी पत्रकारिता के अंध जागरण से लेखक ने आगाह किया है। सांप्रदायिक संपादकीय नीति ने मीडिया के एक तबक़े को हिन्दुत्ववादियों का प्रवक्ता बना डाला है। जब आम लोगों की अभिव्यक्ति से मीडिया दूर होने लगता है तो गुरमेहर के पोस्टर बच्ची की मार्गदर्शक बनकर सामने आ जाते हैं। सर्वशक्तिमान मीडिया एक बच्ची के प्रतिरोध की कवर उठाने को मजबूर हो जाता है।
मीडिया पत्थरबाज़ी का विरोध करते-करते इंसान को ह्यूमन शील्ड बनाने की सैन्य हरकत का समर्थन करने की हद तक जा पहुँचता है। यह योगी आदित्यनाथ को स्वामी विवेकानंद से अधिक महान बताने की मूर्खता भी करता है। सुपारी पत्रकारिता इसकी अनन्य खासियत है। रिपब्लिक टीवी और अर्णब गोस्वामी इसके उदाहरण हैं। वहीं, शशि थरूर और लालू प्रसाद सुपारी किलिंग के उदाहरण। अमरनाथ यात्रियों पर हमले के मामले में तीर्थयात्रियों की जान बचाने वाला ड्राइवर सलीम मुसलमान था। लेकिन, मीडिया ने उसे हिन्दू बताया और मनगढ़ंत कहानियाँ छापीं। ड्राइवर को मुसलमान बताने वाले मीडिया के एक तबक़ ने तो उसे आतंकवादियों से मिला हुआ क़रार दिया। मीडिया के बेहद घिनौने सांप्रदायिक रूप का यह उदाहरण है।
नोबल पुरस्कार से सम्मानित प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन पर बनी डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म ‘द आर्ग्यूमेंटेटिव इंडियन’ को इसलिए हरी झंडी नहीं दी जाती है क्योंकि उसमें गाय, हिन्दुत्व और गुजरात जैसे शब्द हटाने की शर्त नहीं मानी जाती। असहमति सरकार को पसंद नहीं और इस वजह से तर्क भी नापसंद हैं। मीडिया इसी सरकारी सोच का भोंपू बन चुका लगता है। लेखक ने बताया है कि त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार के स्वतंत्रता दिवस के संबोधन को दूरदर्शन एवं आकाशवाणी द्वारा प्रसारित नहीं किया जाता है। मगर, इसकी ज़िम्मेदारी कोई नहीं लेता। नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पंसारे और एमएम कलबुर्गी के बाद गौरी लंकेश की हत्या के बाद मीडिया के रुख की भी लेखक चर्चा करते हैं। हत्यारों को संरक्षण के ख़िलाफ़ उठ खड़े होने के बजाए मीडिया उल्टे गौरी लंकेश के चरित्र मर्दन में जुटा नज़र आता है।
मीडिया में सवर्णवाद हावी है। कोरेगाँव की लड़ाई के नायक और खलनायक की डिबेट में मीडिया का यह सवर्णवादी चेहरा सामने दिख जाता है। मीडिया की पोल तब भी खुल जाती है जब वह प्रवीण तोगड़िया के रुदन पर खामोश हो जाता है। यही तोगड़िया कभी मीडिया के लाड़ले हुआ करते थे। मीडिया में मर्दानगी दिखाते एंकरों में महिला एंकर भी शुमार हो चुकी हैं। वह भी ‘मर्द’ दिखना चाहती हैं। लेखक ने होली परेड के बहाने बखूबी बताया है कि टीआरपी के नाम पर माथापच्ची करती संपादकीय टीम को संघ की ओर से आइडिया सुझाए जाते हैं और यही वजह है कि हर मीडिया हाऊस होली के दिन सोच रहा होता है कि उसका आइडिया न्यूज़ रूम से चोरी कैसे हुआ। जबकि, सच यह है कि यह आइडिया चोरी से कब कैसे न्यूज़ रूम में पैठ कर चुका है ख़ुद उन्हें नहीं पता।