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वर्तमान नेतृत्व, लोकतंत्र और प्रेस स्वतंत्रता का अपराधी है

वर्तमान नेतृत्व, लोकतंत्र और प्रेस स्वतंत्रता का अपराधी है

न्यूज क्लिक के संस्थापक संपादक प्रबीर पुरकायस्थ की रिहाई के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला ऐतिहासिक है। सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया कि किसी को भी अपनी गिरफ्तारी की वजह जानने का हक है। प्रबीर पुरकायस्थ के मामले में इंसाफ के इस तकाजे को तोड़ा गया। लेकिन यह महज न्यूज क्लिक के संपादक का मामला नहीं है, यह मीडिया की आजादी का सवाल है। जिसे सरकार तमाम तरह के फर्जी आरोपों के सहारे नियंत्रित करना चाहती है। स्तंभकार वंदिता मिश्रा का साप्ताहिक कॉलमः 

3 अक्टूबर 2023 को डिजिटल न्यूज पोर्टल न्यूजक्लिक के प्रधान संपादक प्रबीर पुरकायस्थ को दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। पुरकायस्थ पर आरोप था कि उन्होंने अपने पोर्टल पर राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए चीन से फन्डिंग प्राप्त की है। दिल्ली पुलिस ने हड़बड़ी में अगले दिन यानि 4 अक्टूबर को सुबह 6 बजे ही पुरकायस्थ को मजिस्ट्रेट के सामने पेश कर दिया। कोर्ट में पेशी से पहले पुरकायस्थ के वकील तक को सूचित करना जरूरी नहीं समझा। उन्हे इतना भी नहीं बताया गया कि उन्हे किस आरोप में गिरफ्तार किया गया है। इसी बात को आधार बनाते हुए सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस बी.आर. गवई और संदीप मेहता की पीठ ने न्यूज़क्लिक के प्रधान संपादक प्रबीर पुरकायस्थ की गिरफ्तारी को अवैध ठहराते हुए उन्हें 15 मई को हिरासत से रिहा करने का निर्देश दे दिया।

प्रवर्तन निदेशालय (ED) की तथाकथित जांच ने प्रबीर पुरकायस्थ के खिलाफ चीन से फंडिंग के साक्ष्य मिलने का दावा किया, जिसे आधार बनाकर अगस्त 2023 में दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने न्यूजक्लिक और इसके संपादक पुरकायस्थ के खिलाफ गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम (संशोधन) अधिनियम (Unlawful Activities Prevention Amendment Act-UAPA), 2019  के तहत मामला दर्ज किया था। अब सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली पुलिस और सरकार पर प्रश्न उठाते हुए विधि सम्मत प्रक्रिया का पालन न करने के कारण प्रबीर पुरकायस्थ की गिरफ़्तारी को ही अवैध ठहरा दिया है।

UAPA,1967 कानून अपने आप में एकअलोकतांत्रिक कानून था जिसे 2019 में संशोधन करके ‘बेरहम’ कानून के रूप में बदल दिया गया है। कानून की धारा 13 के तहत किसी भी व्यक्ति या संगठन पर UAPA के तहत मामला चलाने के लिए गृहमंत्रालय की अनुमति की आवश्यकता होती है। इसका मतलब यह हुआ कि सरकार यदि अनुमति दे तो किसी पर भी UAPA लगाया जा सकता है। इस कानून के तहत किसी भी व्यक्ति को सरकार ‘आतंकवादी’ घोषित कर सकती है। किसी व्यक्ति को आतंकवादी घोषित करने के लिए सरकार को मात्र एक नोटिफ़िकेशन भर निकालना होगा। सरकार किसेआतंकवादी घोषित करे और किसे नहीं यह पूरी तरह सरकार पर निर्भर है इसके लिए किसी प्रक्रिया की चर्चा कानून में नहीं की गई है। सरकार को ऐसी शक्तियां प्रदान किया जाना खतरनाक होता है क्योंकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि सत्तारूढ दलअपने चुनावी हित के लिए किसी व्यक्ति या संगठन को इस कानून की आड़ में फंसा दे। सजल अवस्थी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले में याचिककर्ता का डर यही था। इसके बाद इस कानून की धारा 45D(5)जमानत के नियमों को बेहद कठोर बना देती है। सामान्य तौर पर UAPA कानून को ‘आतंक विरोधी’ कानून के नाम से भी जाना जाता है। इसका उद्देश्य यह है कि जब भी कोई व्यक्ति या संगठन भारत की संप्रभुता के खिलाफ किसी गतिविधि में शामिल हो तो उसे दंडित किया जा सके। लेकिन बीते दिनों यह कानून सरकार के लिए एक ऐसे हथियार के रूप में तैयार होकर शामिल हो गया है जिसका इस्तेमाल सरकार समाजिक कार्यकर्ताओं और उसकी नीतियों के विरोधियों को‘सबक’ सिखाने के लिए कर रही है। प्रबीर पुरकायस्थ तो बस एक मामला है। ऐसे कई अन्य मामले भी हैं जहां सरकार और न्यायपालिका के रवैये का शिकार सामाजिक कार्यकर्ताओं को होना पड़ा है। ऐसा ही एक नाम फादर स्टेन स्वामी का है।

स्टेन स्वामी को भीमा-कोरेगाँव मामले में अक्टूबर 2020 में UAPA के तहत गिरफ्तार किया गया। 85 वर्ष के स्टेन स्वामी ने मेडिकल आधार पर जमानत लेनी चाही लेकिन हर बार सरकार के विरोध के कारण कोर्ट द्वारा उनकी जमानत खारिज कर दी गई। इसके बाद खराब स्वास्थ्य से गुजर रहे स्वामी ने जेल से ही UAPA के जमानत संबंधी कानून को बॉम्बे हाईकोर्ट में चैलेंज किया। लेकिन सुनवाई के दौरान ही उनकी कोविड-19 से मौत हो गई।

कोविड के दौरान जब देश-दुनिया के तमाम बुजुर्ग अपने घरों में थे और बीमारी से बच रहे थे तब सरकार के क्रूर रवैये की वजह से स्टेन स्वामी को जेल में रहने को बाध्य किया गया। जब देश में हर जगह ‘लॉकडाउन’ लगा हुआ था, अपने घरों से भी लोग बाहर नहीं निकल पा रहे थे तब संभवतया सरकार को लगा हो कि एक 85 साल का बीमार बूढ़ा तथाकथित साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ कर देगा या फिर केस और गवाहों को प्रभावित करने की कोशिश करेगा, इसलिए उनकी जमानत का विरोध लगातार जारी रहा। सरकार ने कोर्ट में यह साबित करने की कोशिश की, कि 85 साल के स्टेन स्वामी से भारत की संप्रभुता को खतरा है, यह सब तब किया गया जबकि दुनिया सदी की सबसे बड़ी महामारी कोविड-19 से जूझ रही थी।स्टेन स्वामी के केस के बारे में 2021 में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायधीश न्यायमूर्ति आफताब आलम ने एक वेबिनार के दौरान कहा कि UAPA के कारण ही फादर स्टेन स्वामी की बिना मुकदमे के मौत हो गई।

जिस कानून को भारत की संप्रभुता को अक्षुण्ण रखने के लिए बनाया गया था उसे सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले प्रदर्शनकारियों पर भी थोप दिया गया और दो-दो सालों तक ऐसे लोगों को जेल से बाहर नहीं निकलने दिया गया। 2019 में CAA-NRC के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में शामिल सामाजिक कार्यकर्ता और विधायक अखिल गोगोई पर UAPA लगा दिया गया और सालों तक उन्हे जमानत नहीं मिली। यही हाल भीमा-कोरेगाँव मामले के आरोपियों का रहा है जिनमें से एक को तो बड़ी मुश्किल से 4 साल बाद जमानत मिली है।  

शरजील इमाम, उमर खालिद और खुर्रम परवेज तो आज तक न्याय की आस में जेलों में बंद हैं। यह तब है जबकि NCRB के आँकड़े चीख-चीख कर कह रहे हैं कि UAPA कानून के तहत दर्ज किए गए मामलों में दोषसिद्धि दर मात्र 2% है(2016-2020)।


इसके बावजूद हजारों लोगों की जवानी और कितनों का बुढ़ापा जानबूझकर जेल में झोंक दिया जा रहा है जिससे सत्ता पर प्रश्न उठाने वालों को सबक सिखाया जा सके।  

सरकार भूल रही है कि सत्ता पर प्रश्न उठाना भारत की संप्रभुता पर प्रश्न उठाने के बराबर नहीं है।


भारत में जिस तरह UAPA कानून का दुरुपयोग किया जा रहा है उससे संयुक्त राष्ट्र तक भी हैरान है। मई 2020 में संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत द्वारा भारत सरकार के साथ पत्राचार में कहा गया कि- UAPA कानून के तमाम प्रावधान संयुक्त राष्ट्र द्वारा की गई मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा,1948 के साथ सुसंगत नहीं हैं इन्हे बदला जाना चाहिए।

पुरकायस्थ के मामले और सुप्रीम कोर्ट की दृढ़ता और विधि के शासन के प्रति उसकी प्रतिबद्धता ने सरकार और पुलिस के द्वारा किए जा रहे शोषण को बेआबरू कर दिया है।


 इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों का प्रश्न उठाया। माननीय न्यायालय ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद-22 यह स्पष्ट घोषणा करता है कि- कोई भी व्यक्ति जिसे हिरासत में रखा गया है उसे उसकी हिरासत का कारण जानने का पूरा हक है। लेकिन दिल्ली पुलिस ने प्रबीर पुरकायस्थ को उनके मौलिक अधिकार से वंचित रखा, पेशी के समय उन्हे उनके वकील से भी दूर रखा गया और 8 महीनों के लिए जेल में ठूंस दिया गया। अनुच्छेद-22 वास्तव में संविधान के ड्राफ्ट-1948 का हिस्सा नहीं था लेकिन ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष बी आर अंबेडकर ने इसे अत्यंत जरूरी अधिकार समझते हुए 15 सितंबर 1949 को संविधान सभा में बहस के लिए पेश किया। दो दिन की बहस के बाद अनुच्छेद-22(तत्कालीन 15-A संविधान का हिस्सा बन गया)। पुरकायस्थ मामले में देश की सबसे बड़ी अदालत ने इसी अनुच्छेद का हवाला देकर न्याय और औचित्य की अनुपस्थिति का सवाल उठाया है।

कानून का यह दुरुपयोग वास्तव में संविधान द्वारा प्रदत्त सबसे महत्वपूर्ण मौलिक अधिकार‘जीवन का अधिकार’(अनुच्छेद-21) का भी उल्लंघन है। वर्ष 2021 में भारत संघ बनाम के.ए. नजीब के मामलें में सुप्रीम कोर्ट ने लंबे समय तक कारावास (कैद या हिरासतमें रहने) के कारण अनुच्छेद 21 के अधिकारों के उल्लंघन का मामला उठाया भी था और इसे जमानत का वैध आधार भी माना था। जब कोई वैधानिक संस्था जिससे विधिसम्मत कार्यवाही की आशा की जाती है वह ही अवैध व्यवहार करने लगे तो विधि के शासन को कैसे स्थापित किया जा सकेगा। दिल्ली पुलिस ने ऐसा ही कार्य किया है, उसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट को एक्शन लेना चाहिए।

भले ही प्रबीर पुरकायस्थ का मामला मात्र UAPA कानून से जुड़ा हुआ दिख रहा हो लेकिन इसके पीछे सबसे अहम वजह सत्ता द्वारा मीडिया को ‘नियंत्रित’ करना है। पुरकायस्थ के मामले को भारत में प्रेस स्वतंत्रता की लचर स्थिति से जोड़कर देखना ज्यादा ठीक रहेगा। प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक-2024 में भारत के स्कोर में तीन अंकों की कमी हुई है। भारत की यह स्थिति पाकिस्तान से भी बदतर है। 

न्यूजक्लिक के मामले में पुलिस के द्वारा की गई जल्दबाजी, विधि सम्मत प्रक्रिया का पालन न करना आदि एक उभरते हुए स्वतंत्र मीडिया संस्थान को जल्दबाजी में देश के सबसे ‘बेरहम’ कानून की आड़ में फँसाने की साजिश जैसा प्रतीत हो रहा है।


एक तरफ राष्ट्रविरोधी और चीन-परस्त होने का आरोप लगाकर डिजिटल मीडिया को नुकसान पहुँचाया जा रहा है जिससे वो सत्ता के सामने झुक जाए तो दूसरी तरफ देश के प्रमुख राजनैतिक दलों के साथ पराया व्यवहार किया जा रहा है, सरकार की आलोचना के उनके अधिकार को दबाया जा रहा है। हाल ही में सीपीआई(एम) नेता सीताराम येचुरी और ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक नेता जी. देवराजन के साथ कुछ ऐसा ही व्यवहार किया गया। बड़ी मशक्कत के बाद दूरदर्शन और ऑल इंडिया रेडियो ने इन दोनो नेताओं को अपनी बात रखने के लिए समय तो दिया लेकिन इसके पीछे लगाई गईं शर्तें, भारत के संविधान में प्रदत्त ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ के अधिकार का उल्लंघन कर रहीं थीं। इन दोनो सरकारी प्रसारणकर्ताओं ने लोकतान्त्रिक मर्यादाओं को तोड़ते हुए दोनो ही नेताओं के भाषणों में से कुछ शब्दों को निकालने को कहा। नेताओं से कहा गया कि वो ‘ड्रकोनियन लॉ’, ‘मुस्लिम’, ‘बैंकरप्सी ऑफ द गवर्नन्स’ और ‘कम्यूनल अथॉरिटेरीयन रिजीम’ जैसे शब्दों को अपने भाषणों से हटा दें। उन्हे यह भी कहा गया कि बिना इन शब्दों को हटाए उनके भाषणों का प्रसारण नहीं किया जाएगा। 

इन सभी शब्दों का इस्तेमाल वर्तमान सत्ताधारी दल के खिलाफ उनकी आलोचना में किया गया था। देश के मुख्यधारा के दलों के बड़े नेताओं के साथ ऐसा दुर्व्यवहार यह दर्शाता है कि सरकार आलोचना से डरती है और अभिव्यक्ति की आजादी का समर्थन नहीं करती है।

मेरा सवाल यह है कि ‘भय’ सत्ता को हो सकता है, सत्ता में बैठे लोगों को हो सकता है, एक राजनैतिक दल और विचार को हो सकता है लेकिन उसके लिए भारत की समृद्ध लोकतान्त्रिक विरासत को डरपोक क्यों बनाया जा रहा है? भारत की संस्थाओं के चरित्र के साथ खिलवाड़ क्यों किया जा रहा है?


भारत की वर्तमान 140 करोड़ आबादी जिसकी तमाम पीढ़ियों ने आजादी के बाद यहाँ के लोकतंत्र को बचाकर रखने में हर पाँच सालों बाद बुद्धिमत्ता पूर्ण फैसले लिए उसके ऊपर एक कमजोर लोकतंत्र के नागरिक होने का ठप्पा क्यों लगे? वास्तविकता तो यह है कि भारत के वर्तमान नेतृत्व को उसे दुनिया में लोकतंत्र, प्रेस स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तमाम आयामों में सबसे पीछे रखने का दोषी माना जाना चाहिए और ऐसे दोषी नेतृत्व के साथ अब और आगे बढ़ने से इंकार कर देना चाहिए अन्यथा भारत में नागरिकों के लिए लोकतंत्र और स्वतंत्रता हमेशा के लिए अनुपलब्ध हो जाएगी।      

(वंदिता मिश्रा दिल्ली स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं। सत्य हिन्दी के लिए वो हर हफ्ते लिखती हैं)

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