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क्या कांग्रेस पर प्रहार राष्ट्रहित में है? 

क्या कांग्रेस पर प्रहार राष्ट्रहित में है? 

जहाँ आठ साल से सत्ता में बीजेपी है वहाँ क्या विपक्षी दल की आलोचना की जानी चाहिए? राष्ट्रहित में सवाल सत्ता से किया जाना चाहिए या फिर विपक्ष से? लोकतंत्र का तकाजा क्या कहता है? 

क्या आप जानते हैं कि केंद्र सरकार को पत्रकारों का समर्थन क्यों नहीं चाहिए? या ये कहें कि पत्रकारों को अपनी निष्पक्षता की दुंदुभि बजाते हुए सरकार के साथ क्यों नहीं खड़ा होना चाहिए? जरा गौर कीजिए।

ग्लोबल फायर पावर इंडेक्स (2020), के अनुसार भारत दुनिया की चौथी सबसे ताक़तवर मिलिटरी है। संख्या बल के मामले में भारत विश्व में दूसरी सबसे बड़ी मिलिटरी है। कुल रक्षा कर्मियों की संख्या 14 लाख से भी अधिक है और इसके साथ ही भारत का रक्षा बजट अमेरिका और चीन के बाद दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा बजट है। भारत के पास अनगिनत मिसाइलें, हथियार, फाइटर जेट्स, सबमरीन और युद्धक पोत हैं। इसके अलावा रॉ और आईबी जैसी संस्थाएं दिन रात देश की आँखें और कान बने हुए हैं। सीबीआई, ईडी, नारकोटिक्स और ऐन्टी करप्शन ब्यूरो, लगातार सरकार के हथियार के रूप में काम कर रहे हैं। केंद्र सरकार 58 मंत्रालय और 93 विभागों के माध्यम से लगभग हर छोटे-बड़े मुद्दे को लेकर बजट और योजना का निर्माण करती है। और इसके लिए हज़ारों की संख्या में आईएएस (6,715) और आईपीएस (4,982) अधिकारी सरकार के दिशानिर्देशों पर काम करने को तत्पर रहते हैं। सरकार जब चाहे किसी भी अख़बार में लेख लिख सकती है, अपना प्रचार कर सकती है। जब चाहे देश के किसी भी या सभी चैनलों में एक साथ लाइव आ सकती है। देश के हर प्रदेश में केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में काम करने वाले राज्यपाल विभिन्न चुनी हुई सरकारों को कभी संवैधानिक तो कभी बनावटी तरीके से विनियमित करते रहते हैं। इसके अतिरिक्त सरकार का अपना खुद का सरकारी प्रसारण तंत्र भी है जो, रेडियो, टीवी, प्रिन्ट और डिजिटल मीडिया में लगातार सरकार का पक्ष रखता रहता है। लगभग हर मंत्रालय का अपना सरकारी प्रवक्ता है जो सरकार का पक्ष रखने में सक्षम है। 

तथ्य बता रहे हैं कि सरकार को न कोई भय है और न ही पत्रकारों की जरूरत! पिछले 75 सालों में भारत इतना सशक्त हो चुका है कि बिना नागरिकों की लोकतान्त्रिक सहमति के कोई भी व्यक्ति या संस्था, देश की या विदेशी, भारत की चुनी हुई सरकार के कदम हिला नहीं सकती। सरकार की इतनी ताकत के बावजूद अपनी निष्पक्षता की धुन में आप अर्थात पत्रकार सरकार के समर्थन में लेख लिखते हैं, डिबेट करते हैं तो इसका मतलब है कि आप पृथ्वी के टेक्टोनिक संचलन में अपना हाथ लगाकर अपना ‘कर्तव्य’ साबित करना चाहते हैं। परंतु मेरी राय में यह पूर्णतया व्यर्थ है।

हो सकता है कि बहुत से लोग मेरी राय से सहमत न हों, फिर भी मेरा स्पष्ट मत है कि यदि कोई पत्रकार या पत्रकारों से जुड़ी कोई संस्था किसी भी राजनैतिक दल के साथ खुद को जोड़कर देखना चाहती है तो उसे हमेशा विपक्ष का कार्यकर्ता/नेता बनकर सोचना चाहिए। सरकार कोई भी हो पत्रकार का पक्ष हमेशा विपक्ष के नज़रिए से जुड़ा होना चाहिए। उसे सरकार की लगभग हर बात/दावे को संदेह से देखना चाहिए पड़ताल करनी चाहिए और अंत में सब कुछ सही पाने पर भी संदेह के साथ खड़े रहना चाहिए। यह सच है कि पत्रकारों की इस भूमिका को न ये सरकार पसंद करेगी और न ही आने वाले दलों की अन्य सरकारें लेकिन इसके बावजूद यही वो भूमिका है जो एक पत्रकार को अपनानी चाहिए।

स्वस्थ लोकतंत्र एक ऐसी ‘नागरिक अभिक्रिया’ है जिसके ‘उत्पाद’ के रूप में सत्ता और विपक्ष में स्पष्ट द्वन्द्व दिखना ही चाहिए। इस द्वन्द्व के अभाव में लोकतंत्र दरकने लगता है और लोकतंत्र की यह नागरिक अभिक्रिया मंद पड़ जाती है। और इस मंदी से जन्म होता है ‘अधिनायकवाद’ का। ऐसे में इस द्वन्द्व को बनाए रखने का कार्य मीडिया का होता है जोकि इस लोकतान्त्रिक अभिक्रिया का कैटलिस्ट (उत्प्रेरक) है। लोकतान्त्रिक सरकार और प्रधानमंत्री का पद किसी का जन्म सिद्ध अधिकार नहीं है और न ही किसी एक दल का हमेशा सत्ता में बने रहने का अधिकार है। राष्ट्र अनवरत होता है, अटूट होता है। सरकारें और राजनीतिक दलों को बदलते ही रहना चाहिए। बदलती हुई सरकारें और सक्षम संस्थाएं ही लोकतान्त्रिक धागों को इस्पात सा मजबूत बनाती हैं। कोई सरकार अपने अच्छे कामों और उपलब्धियों का प्रचार करने में पूरी तरह सक्षम है। सरकार के पास प्रचार के संचालन के लिए पूरा तंत्र है और सरकार चलाने के लिए संविधान प्रदत्त लोकतंत्र है।

देश इस समय न सिर्फ संस्थागत संकट से जूझ रहा है बल्कि देश के ऊपर ऐसे बादल मंडरा रहे हैं जो लोकतंत्र को बिखेर देने की क्षमता रखते हैं। ऐसे में देश को आज़ादी दिलाने वाले और सबसे पुराने दल कांग्रेस से प्रश्न पूछना सभी को आम लग रहा है।

आज का ‘अपेक्षाकृत-निष्पक्ष’ मीडिया कांग्रेस से कुछ सवाल कर रहा है। जैसे- ‘कांग्रेस जमीन पर नहीं आ रही’, ‘गाँधी परिवार हट क्यों नहीं जाता?’, किसी अन्य (गैर-गाँधी) को नेतृत्व क्यों नहीं सौंपते?’ और सबसे अहम कि ‘विचारधारा और रणनीति को बीजेपी के अनुसार क्यों नहीं ढाल लेते?’

एक-एक करके इन सब पर बात करना बेहद ज़रूरी है। ‘अपेक्षाकृत-निष्पक्ष’ मीडिया अच्छे से जानता है कि करोड़ों तक मिनटों में पहुँच बनाने वाला मीडिया विपक्ष के किसी भी ऐसे क़दम को दिखाने को तैयार नहीं है जिससे विपक्ष जनता के बीच काम करता दिखे, जिससे लगे कि इस देश में विपक्ष जिंदा है, जिससे लगे कि कोई ऐसा नेता है जो वर्तमान सरकार और प्रधानमंत्री को चुनौती दे सकता है। इसके उलट वो ऐसी डिबेट ज़रूर कार्यान्वित करते हैं जिसमें विपक्ष के नेताओं का मखौल उड़े, उन्हें कमतर दिखाया जाए, उन्हें हिन्दू विरोधी और धर्म विरोधी साबित किया जाए।

ऐसे में मीडिया में न दिखना, यह नहीं साबित करता कि विपक्ष काम नहीं कर रहा। इस दौर में 90 करोड़ मतदाताओं तक घर-घर जाकर मिलना अगर असंभव नहीं तो असंभव से कम भी नहीं। एक क्लिक से दिमाग बदल देने वाली सूचनाएँ लाखों लोगों तक पहुँच रही हैं, जिसमें अरबों रुपया ख़र्च हो रहा है। यदि कोई दल इस अवस्था में ही नहीं कि वो इतना पैसा खर्च कर सके तो इसका मतलब यह तो नहीं कि वो काम नहीं कर रहा है। यूपीएससी की परीक्षा में CSAT को लेकर विवाद हुआ। छात्र सड़कों पर आ गए। लेकिन मीडिया ने इस आंदोलन को नहीं दिखाया। छात्र मंत्री से मिलने गए पर मीडिया ने नहीं दिखाया। छात्रों ने यूपीएससी के बाहर प्रदर्शन किया, मीडिया ने नहीं दिखाया। फिर छात्र जान हथेली पर लेकर भारत की संसद के बाहर, मुख्य गेट से 10 फुट दूर तक पहुँच गए, एक घंटे तक जमे रहे, नारे लगाए, पर्चे उछाले, वीआईपी निकल रहे थे और सुरक्षाकर्मी किसी भी अनहोनी से निपटने के लिए अपनी बंदूकों को लेकर तैयार बैठे थे। बगल के लॉन में 20 से अधिक मीडिया की गाड़ियां थीं। सब ने वीडियो बनाया लेकिन कभी उसे टेलीविज़न पर नहीं दिखाया गया। ‘अपेक्षाकृत-निष्पक्ष’ पत्रकार चाहें तो कह सकते हैं कि छात्रों ने कुछ नहीं किया, पर उन्हें पता है कि वो गलत हैं। निष्पक्ष मीडिया के बिना विपक्ष, जंगल में खिले एक सुंदर से फूल सा है जिसे बहुत कम लोग ही देख पाते हैं। 

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दूसरा तर्क गांँधी परिवार के हटने और किसी और को पार्टी का पद देने से जुड़ा हुआ है। देश की आजादी से भी 65 साल पुरानी पार्टी का नेतृत्व किसको दिया जाना चाहिए था? हुमंत विस्व सरमा को? जो मुख्यमंत्री बनने के लिए बीजेपी में कूद गए या ज्योतिरादित्य सिंधिया को? जिनकी महत्वाकांक्षा ने उन्हें दल-बदलने को मजबूर कर दिया। या सचिन पायलट को? जो अपने 18 विधायक लेकर रिज़ॉर्ट में जाकर बैठ गए। किसी व्यक्ति को सांसद, या मंत्री बनाना एक अलग बात है लेकिन जिस व्यक्ति को 135 साल पुरानी पार्टी का अध्यक्ष चुनना है उसमें पार्टी के प्रति अटूट निष्ठा होना बेहद ज़रूरी है। भले ही परिस्थितियाँ कुछ भी हों। कुछ विचारकों का मत उनकी जिह्वा में धंसा होता है जो मन में आया बोल दो। ऐसे ही एक विचारक कहते पाए गए कि- गाँधी परिवार हटे, किसी और को मौका दिया जाए, और अगर वो फेल हो जाए और पार्टी बिखर जाए तब भी कोई बात नहीं, यदि पार्टी की विचारधारा में दम होगा तो वो निखरकर आएगी अन्यथा कुछ और होगा। क्या यह जिम्मेदार भाषा है? क्या इसे एक बार भी सुनना चाहिए?

नेताओं के भागने से कांग्रेस पर प्रश्न उठे कि नेता क्यों भागे? यह प्रश्न नेताओं से नहीं पूछा गया कि आप क्यों भागे? जब आप मंत्री थे तब आपने पार्टी क्यों नहीं छोड़ी? या आपकी पार्टी छोड़ने की प्रवृत्ति आपके अधिकार-बोध के विलोपन से जुड़ी हुई है?

कपिल सिब्बल को ही ले लीजिए। बहुत जाने माने वकील हैं, उन्नत बौद्धिक क्षमता है। न पैसे की कमी न ही उन्हें जानने वालों की। उन्हें इतनी आसानी से कोई भी सरकार किसी भी कानूनी दांव-पेंच में नहीं फंसा सकती। जहां खड़े हो जाएँ बहुत से लोग सुनने आ जाते हैं। जब चाहें जिस भी चैनल को इंटरव्यू दे सकते हैं। इसके बावजूद वो इस इंतजार में थे कि पार्टी उनके लिए कुछ करे। कांग्रेस जब 10 साल सरकार में रही वो लगातार मंत्री रहे। आज जब सरकार नहीं थी तो स्वयं पार्टी के लिए ही कुछ करते। उन्हें कौन रोकता? कोई बौद्धिक पहल करते कोई रचनात्मक कार्य शुरू करते जो कांग्रेस और उसकी विचारधारा को समृद्ध करती। मुझे नहीं लगता कि कांग्रेस कोई खिलाफत करती। कांग्रेस ने तो तब भी कोई खिलाफत नहीं की जब उन्होंने G-23 नाम का बागी संगठन बना लिया था। पार्टी अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने सिर्फ इतनी बात कही थी कि पार्टी ने आपको सब कुछ दिया है अब आपकी बारी है पार्टी को कुछ देने की। अपनी बारी आते ही सिब्बल जी निकल गए।

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हार्दिक पटेल के जाने से हल्ला हुआ मानो कांग्रेस अब मृत हो जाएगी। उन्हें पार्टी ने पूरा सम्मान दिया और गुजरात का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया। इस हैसियत से उन्हें अपना योगदान देना चाहिए था। इतना महत्व नेतृत्व क्षमता दिखाने के लिए पर्याप्त था। लेकिन उन्हें लगता था कि पूरी गुजरात कांग्रेस उनकी बातों को अक्षरशः सुने और उनकी ही बनाई हुई रणनीतियों का पालन करे। सभी वरिष्ठ नेताओं को छोड़कर अगर कांग्रेस हार्दिक पटेल को यह अधिकार दे भी देती तो उसे कभी कैसे पता चलता कि वो तो वास्तव में सिर्फ ‘अधिकार-प्रेमी’ था न कि विचारधारा का प्रेमी। हुआ भी यही इन दिनों वो राम का नाम ‘इस्तेमाल’ कर रहे हैं। राम का ‘नाम लेना’ कांग्रेस में हमेशा से रहा है। महात्मा गांधी तो बिना राम के अधूरे थे। लेकिन राम नाम का ‘इस्तेमाल’ पिछले 3 दशकों पुराना प्रोपेगैंडा है।

क्या यह वाजिब तर्क है कि राहुल गाँधी अगर अच्छे फिलॉसफर हैं तो किसी विश्वविद्यालय में क्यों नहीं जाकर पढ़ाते, राजनीति में उनकी क्या ज़रूरत है? भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में कौन ऐसा नेता था जो दार्शनिक स्वभाव का नहीं था? भगत सिंह, महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, कौन ऐसा था जो दार्शनिक स्वभाव का नहीं था? भारत के जितने भी प्रधानमंत्री हुए हैं उन सभी में दार्शनिक प्रवृत्ति रही है। भारत के दूसरे राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृषणन को तो ‘दार्शनिक राजा’ कहकर संबोधित किया जाता था। ऐसा तर्क देने वालों को यह समझना चाहिए कि दर्शन संघर्ष का परिणाम है। संघर्ष जितना सघन और संवेदनशील होगा दर्शन उतना ही उत्कृष्ट निकल कर आएगा। यदि आप आज ऐसे माहौल में हैं, जहां बड़े नेताओं और मंत्रियों की डिग्री और पढ़ाई ही 8 साल में निर्धारित नहीं हो पाई, जिनकी एक मात्र उपलब्धि इस देश में हिन्दू-मुस्लिम विभाजन को प्रश्रय देना है, जो लोकतंत्र और चुनाव में फ़र्क नहीं समझते, तो इसमें उसका कोई दोष नहीं जो इन सब दोषों से मुक्त है।

आजादी की लड़ाई के दौर में विदेशी मीडिया भी इस स्तर पर नहीं उतरा था जहां आज के भारत का अपना मीडिया धंस गया है। पूरी दुनिया में भारत का स्वतंत्रता संघर्ष पहुँच पाया क्योंकि वेब मिलर जैसे तमाम बड़े पत्रकार भारत के संघर्ष को पूरे संसार तक पहुँचा रहे थे।

लेकिन आज का दौर मीडिया के लकवेपन के कारण अभूतपूर्व है। शायद लोग आलोचना में इतना मशगूल हैं कि ध्यान ही नहीं दे पा रहे हैं कि भारत इस समय ‘मीडिया-पैन्डेमिक’ से जूझ रहा है। पैन्डेमिक इसलिए क्योंकि भारत का मीडिया वायरस दुनिया के तमाम देशों में जा जाकर अपना संक्रमण फैला रहा है। यह कोविड से ज्यादा खतरनाक है क्योंकि इसका समाधान खोजने वाला वर्ग वायरस फैलाने वालों से नहीं पीड़ित से लड़ाई लड़ने में जुटा है।

लगभग सभी मीडिया चैनल जिनका प्रसारण सम्पूर्ण भारत में हो रहा है या तो उन्हें खरीदा जा चुका है या वो अपनी मर्जी से देश के विभाजन का एजेंडा चला रहे हैं ताकि बाहर के विश्वविद्यालओं में पढ़ने के लिए उनके बच्चों को फीस की कमी न रह जाए। मैलकम एक्स ने मीडिया को लेकर कहा था “मीडिया इस पृथ्वी की सबसे शक्तिशाली वस्तु है। ताकत इतनी है कि वो किसी दोषी को बेकसूर साबित कर सकता है और किसी बेकसूर को दोषी। यह इसलिए है क्योंकि वो लोगों के दिमाग पर नियंत्रण कर लेता है’। 

मैं इसी को वायरस कह रही हूँ। यह अपनी ताकत से देश की चेतना को खा रहा है। उद्योगपतियों को लाभ पहुँचाया जाना और बदले में उद्योगपतियों द्वारा राजनेताओं को आर्थिक मदद करना और इसी विशियस साइकिल का लगातार चलते रहना देश को अंदर से कमजोर कर रहा है। मीडिया वायरस इन दोनों लोगों से लाभ कमाकर देश के ताने बाने को तोड़ रहा है। विपक्षियों को कभी ‘पप्पू’ तो कभी ‘पिंकी’ तो कभी ‘विदेशी मूल’ का बताकर मीडिया की मदद से, मनोबल पर लगातार प्रहार किया जाता है। नेता-उद्योगपति-मीडिया के इस वित्तीय मॉडल को तोड़ा जाना देश को बचाए जाने से सीधा संबंधित है। जब तक यह अस्तित्व में है, न कांग्रेस, न ही कोई अन्य दल या गठबंधन केंद्र तक पहुँच पाएगा।

आज की सबसे बड़ी समस्या यह है कि ‘अपेक्षाकृत-निष्पक्ष’ पत्रकारों को कांग्रेस एक डूबता हुआ जहाज समझ आ रहा है। कितना दुखद है कि दशकों तक पत्रकारिता करने के बावजूद उन्हें एक पार्टी जहाज सी समझ आती है। राजनैतिक दल कोई जहाज नहीं है जिससे लोग उतरकर भाग रहे हैं। वास्तव में यह विचारधारा का एक सागर है जो अगर सूखा तो अनगिनत जैव विविधता नष्ट हो जाएगी। असलियत यह है कि जो लोग भाग रहे हैं वो अपने लिए नया ‘इकोसिस्टम’ चुनना चाहते हैं जो उनकी महत्वाकांक्षाओं के अनुकूल हो। 

किसी भी आर्थिक विकास किसी भी गतिशक्ति से सड़क व बंदरगाह से देश तब तक आगे नहीं बढ़ सकता जब तक चोरी चुपके लोकतान्त्रिक ढांचे में पड़ रही चोट को न रोका जाए।

ऐसे में सभी एक विक्षिप्त व बिखरे हुए अवशेष रूप लोकतंत्र के नागरिक होंगे जहां हो सकता है जेबें भरी हों लेकिन सड़कें लोगों से खाली और भय से कराह रही होंगी।

राष्ट्रवाद का विद्रूप रूप चौखटों से घरों में घुसकर लोगों की खाने की प्लेटों व बेडरूम में पहुँच चुका होगा। यह सच में डरावना है, इसलिए मुझे लगता है कि पत्रकार होने के नाते मैंने ‘ठेका लिखाया है’ कि प्रश्न सिर्फ सत्ता से और समर्थन सिर्फ विपक्ष का होना चाहिए। वरना जो मेरा डर है वो भी सच हो जायेगा। क्योंकि ‘अपेक्षाकृत-निष्पक्ष’ लोगों द्वारा कांग्रेस की आलोचना की बीमारी और मग्नता इस देश को डुबो सकती है।

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