दिल्ली मेयर चुनाव: हर बार हार जाती है जनता!
आज दिल्ली नगर निगम के सभा-कक्ष के मंजर ने मुझे दहशत से भर दिया। वे कौन थे, जो अपशब्द बोल रहे थे, मारपीट कर रहे थे या धक्का-मुक्की में शामिल थे? ये राह चलते अराजक तत्व नहीं, बल्कि दिल्ली की जनता द्वारा उम्मीदों के साथ चुनकर भेजे गए माननीय सभासद थे। दिल्ली नगर निगम एक ताकतवर संस्था है। उसका सालाना बजट 16 हजार करोड़ के आसपास है। इस नगर प्रदेश की तमाम जिम्मेदारियां उसके ऊपर हैं। इसे संभालने की जिम्मेदारी उनके ऊपर है। आज सदन में उनका पहला दिन था। उन्होंने किस जिम्मेदारी का परिचय दिया?
जो लोग शांति से शपथ नहीं ले सकते, वे शपथ का क्या निर्वाह करेंगे?
आपको पिछले महीने में वापस ले चलता हूं। सारा मीडिया गुजरात और हिमाचल विधानसभाओं के साथ दिल्ली नगर निगम का भी नाम लेता था। माना यह जा रहा था कि यह किसी स्थानीय निकाय का नहीं बल्कि राष्ट्रीय महत्व का चुनाव है। पिछले पंद्रह सालों से इस पर भारतीय जनता पार्टी का कब्जा था। सवाल उठ रहे थे कि क्या आम आदमी पार्टी इस बार वहां कमल को खिलने से रोक देगी?
आप के लिए यह चुनाव इतना अहम था कि बाद के दिनों में अरविंद केजरीवाल ने अपना समूचा ध्यान गुजरात से हटाकर दिल्ली पर केन्द्रित कर दिया था। हिमाचल की आकांक्षाओं पर भी उन्होंने इस चुनाव के कारण ब्रेक लगा दिए थे। नतीजे आप के पक्ष में आए थे और इसके साथ ही सवाल सिर उठाने लगा था कि क्या आम आदमी पार्टी अपना मेयर बना पाएगी?
कायदे से जिसका बहुमत होता है, मेयर उसी का बनता है। यह सवाल उठना ही नहीं चाहिए था पर इसकी शुरुआत भी आम आदमी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने की थी। उन्होंने आरोप जड़े थे कि हमारा मेयर न बनने देने के लिए साज़िश रची जा रही है। भाजपा के कुछ लोगों ने गोलमोल बयान देकर इस सियासी चकरी को चकोर की चाल बना दिया था। सनसनी, आरोप और प्रत्यारोप ने आशंकाओं को नए आसमान दे दिए थे। यही वजह है कि आज दोनों पक्ष समूची तैयारी के साथ वहां पहुंचे थे। नतीजा सामने है।
बेहतर होता, इन सभासदों ने अपने अपने वायदों को परवान चढ़ाने के लिए नीति तैयार की होती। हमारा सियासी वातावरण इतना प्रदूषित हो गया है कि हमारे राजनेता सिर्फ और सिर्फ जीत की कामना करते हैं, वह चाहे जैसे भी मिले।
हार-जीत की इस मुसलसल जद्दोजहद में हर बार कौन हारता है? सिर्फ जनता।
आप सोचते होंगे कि मैं आज की घटना से कैसे दहल गया। लम्बे करियर में मैंने कई बार ऐसे हादसे देखे हैं। उत्तर प्रदेश विधान सभा की मारपीट और जयललिता के साथ सदन में हुई बदसलूकी आज भी मेरे जेहन में ताजा है। ऐसे तमाम उदाहरण हैं, जिन्हें मैं बिना पलक झपकाए गिना सकता हूं। यही वजह है कि ऐसी हर घटना पहले से अधिक दहशतजदा कर जाती है।
बरसों पहले एक बडे़ नेता ने मुझसे कहा था कि एक समय था, जब हम गुंडों का सहारा लेते हुए भी उन्हें परदे के पीछे रखते थे। जो पार्श्व में था, वह सामने आ गया है और जो सामने था, वह पीछे चला गया है। वे तो कब के परलोकगामी हुए पर उनकी यह बात हर ऐसी टकराहट के समय दिमाग पर हथौड़े चलाने लगती है।
आप मेरे संताप का कारण समझ रहे होंगे।
आज मुझे एकबार फिर महाभारत याद आता है। द्रौपदी के शर्मनाक चीरहरण से उपजा युद्ध घातक था। इसमें इतनी हिंसा हुई कि समूचे आर्यावर्त में हर कुटुंब को कोई न कोई हानि उठानी पड़ी। इसका असर विदेशी ताक़तों से जूझने की हमारी जिजीविषा पर पड़ा। जो अपनों से लड़ते हैं, वे परायों से हमेशा हार जाते हैं।
अपने ही इतिहास के इस सबक को हम और हमारे बीच से उभरे राजनेता भूल क्यों जाते हैं? इस सवाल पर गौर जरूर फरमाइएगा। उम्मीद है, आपको भी साथ के फोटोग्राफ्स देखकर थोड़ी शर्म, थोड़ी झुंझलाहट और थोड़ा आक्रोश महसूस हो रहा होगा।
ठंड से ठिठुर रही दिल्ली इस अवांछित राजनीतिक तापमान से शर्मसार है।
(शशि शेखर के फ़ेसबुक पेज से साभार)
(शशि शेखर - हिंदुस्तान के प्रधान संपादक हैं)