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केजरीवाल के बयानों और भाषणों में अब वह तल्खी क्यों नहीं है? 

केजरीवाल के बयानों और भाषणों में अब वह तल्खी क्यों नहीं है? 

दिल्ली नगर निगम के चुनाव में अरविंद केजरीवाल बीजेपी के खिलाफ आक्रामक नहीं रहे और उनका अधिकतर वक्त गुजरात में चुनाव प्रचार करते हुए बीता। ऐसा क्यों हुआ?

दिल्ली के नगर निगम चुनाव में आम आदमी के मुखिया अरविंद केजरीवाल इस बार कम सक्रिय हैं क्योंकि वह गुजरात में व्यस्त हैं। वहां उनके लिए काफी कुछ दांव पर है। वहां के चुनाव प्रचार में वह अपने को नरेन्द्र मोदी के समकक्ष रखने की कोशिश में जुटे हुए है ताकि विपक्ष के राष्ट्रीय नेता के तौर पर वह स्थापित हो जाएं। उनका यह प्रयास वाराणसी से शुरू हुआ था जहां वह प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के खिलाफ उतर गये थे और बड़ी-बड़ी बातें कर रहे थे।

ज्यादातर लोग यह समझ नहीं पा रहे थे कि हार की पक्की संभावना के बावजूद केजरीवाल चुनाव में क्यों उतर गये हैं। तब कुछ समझदार विश्लेषकों ने यह बात पकड़ ली थी कि दरअसल केजरीवाल, राष्ट्रीय रंगमंच पर आने के इरादे से ही वाराणसी के बहुप्रचारित चुनाव में उतरे हैं न कि जीतने के इरादे से। 

इसके बाद दिल्ली के मुख्य मंत्री के तौर पर केजरीवाल अपना काम-धंधा छोड़कर पीएम मोदी और उनके सहयोगियों पर लगातार हमले करते रहे। लगभग तीन वर्षों तक ऐसा करने के बाद उन्हें समझ में आया कि इससे बात नहीं बनेगी। इतना ही नहीं अरुण जेटली सहित कई नेताओं से उन्हें माफी भी मांगनी पड़ी। उसके बाद से उनका टोन वैसा तो नहीं रहा। उन्होंने आक्रामक हमले कम कर दिये। 

आश्चर्यजनक रूप से इस बार वह दिल्ली के नगर निगम चुनाव में काफी शांत नज़र आये। उन्होंने हमले तो किये लेकिन पहले वाली बात नहीं दिखी। उनका फोकस गुजरात ही रहा है। दिल्ली के चुनाव में वह ज्यादा सक्रिय नहीं रहे। अपने विश्वसनीय सहयोगी और पंजाब के मुख्य मंत्री भगवंत सिंह मान के साथ वह उधर ही प्रचार करते रहे।

उन्होंने दिल्ली में अपनी सभाओं में बीजेपी पर खुलकर कोई जबर्दस्त हमला नहीं किया जैसा वह एक साल पहले कर रहे थे। पार्टी के प्रचार की कमान उन्होंने मनीष सिसोदिया को दे रखी है जो घूम-घूम कर प्रचार और मीटिंग कर रहे हैं। सिसोदिया अपने स्वभाव के अनुरूप कभी तल्ख नहीं होते हैं। इस बार पब्लिक मीटिंगों में वह साफ तौर पर कहते रहे कि आप किसी भी पार्टी का बेशक समर्थन करें लेकिन इस चुनाव में जो शहर की साफ-सफाई से जुड़ा हुआ है, उसमें हमारे उम्मीदवार को जितायें। 

इस बार तो वह शांत हैं और पार्टी की प्रचार मशीनरी तो बिल्कुल ही दबी पड़ी है। उनके प्रचार एसएमएस का एक नमूना तो देखिये। पार्टी कहती है “मनीष जी ने बहुत मुश्किल से दिल्ली में स्कूलों को बेहतर किया है, बीजेपी अगर नगर निगम में जीती तो वह उन्हें बंद करवा देगी।“ इसी तरह की अन्य हल्की-फुल्की बातें एसएमएस के जरिये भेजी जा रही है जो लोगों के सिर के ऊपर से गुजर रही हैं। वह आक्रामकता कहीं नहीं दिख रही है। केजरीवाल दिल्ली नगर निगम में हुए भ्रष्टाचार की बातें करते हैं और दावा करते हैं कि पार्टी अगर वहां सत्ता में आई तो वह उसे जड़ से उखाड़ फेंकेगी। वह कूड़े के पहाड़ों की चर्चा भी करते हैं लेकिन थोड़े दबे स्वर में क्योकि उन्होंने पिछले विधान सभा चुनाव में दावा किया था कि वह दो वर्षों में दिल्ली को पॉल्यूशन से मुक्ति दिला देंगे। इतना ही नहीं यमुना को स्वच्छ बना देंगे, उसमें नाले का पानी गिरने नहीं देंगे। लेकिन ये बातें वह भूल गये।

पंजाब का डि फैक्टो सीएम बनने के बाद तो वह वहां किसानों को पराली जलाने से रोकने की बात भी नहीं कर रहे हैं। दिल्ली की हवा में ज़हर घुल रहा है और यनुना काली होती जा रही है। लेकिन दिल्ली के मुख्य मंत्री केजरीवाल इस ओर से उदासीन हैं। उन्हें पता है कि अगर वह कूड़े और सफाई पर अगर ज्यादा मुंह खोलेंगे तो उन पर ही उंगलियां उठने लगेंगी। बीजेपी उन पर आक्रामक ढंग से हमले करेगी। वह इस समय इन सब बातों से बचना चाहते हैं। शायद यह एक कारण है कि वह अभी हमलावर नहीं हो रहे हैं। 

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दूसरी बात यह है कि दिल्ली में मुस्लिम मतदाताओं का उनसे मोह भंग होता दिख रहा है। नोटों पर लक्ष्मी-गणेश के चित्र छापने वाली बात से बड़ी तादाद में उनके मुस्लिम मतदाता बिदक गये हैं। दिल्ली के उन इलाकों में जहां मुस्लिम मतदाता सीटें जिता सकते हैं, वहां हवा का रुख बदला हुआ है। वे अब दूसरी ओर देख रहे हैं। कई प्रभावशाली मुस्लिम पार्टी से दूर जा चुके हैं और उनका विरोध कर रहे हैं। दूसरा फैक्टर यह भी है कि यहां औवैसी की पार्टी भी उतर गई है जो समीकरण गड़बड़ा रही है। उनकी धारदार और लच्छेदार बातें सुनकर कई इलाको में मुस्लिम मतदाता केजरीवाल की पार्टी से दूरी बना चुके हैं। उनके वोट बहुत महत्वपूर्ण साबित होंगे। 

उर्दू के वरिष्ठ टीवी ऐंकर मारूफ रज़ा कहते हैं कि लगभग सत्तर प्रतिशत मुसलमान केजरीवाल से दूर हो गये हैं और उनके वोटों का असर उनकी उम्मीदों पर पड़ेगा। वह आगे कहते हैं कि यूं तो मुसलमान उसे ही वोट देना पसंद करते हैं जो बीजेपी विरोधी है और उसके खिलाफ जीत सकता है लेकिन इस बार कुछ अलग सा हो सकता है। मुस्लिम बहुल इलाकों में कांग्रेस के प्रति पहलें से ज्यादा रुझान है। मतदाता उसके बारे में गंभीर चर्चा कर रहे हैं। इसलिए केजरीवाल के सामने अब खतरे की घंटी बज गई है। 

एक और बड़ी बात सामने आ रही है कि इस बार दलित वोटर केजरीवाल से कुछ छिटकते दिख रहे हैं। एक वरिष्ठ और बड़े दलित अफसर ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि केजरीवाल अब उनमें अपनी लोकप्रियता खो बैठे हैं। उन्होंने दलितों के लिए कुछ भी नहीं किया है। बल्कि उनके प्रतिनिधि और अपने मंत्री संदीप कुमार को पद से तुरंत हटा दिया। एक टीवी क्लिप के आधार पर ऐसा करना कितना उचित है, यहां सोचने की बात है। इस घटना का असर त्रिलोकपुरी जैसे इलाकों में देखने को मिल रहा है जहां बड़ी संख्या में दलित रहते हैं। उनमें केजरीवाल के प्रति निराशा का भाव दिख रहा है। फिर जिस तरह से दूसरे दलित मंत्री गौतम को भी बिना किसी कारण के हटा दिया वो भी दलित वर्ग को पच नहीं रहा है। 

कुल मिलाकर जो कुछ हो रहा है वह आम आदमी पार्टी के लिए उत्साहवर्धक नहीं है। चुनाव परिणाम 7 दिसंबर को आयेंगे, तब तक इंतजार कीजिए। 

(मधुरेंद्र सिन्हा नवभारत टाइम्स के संपादक रह चुके हैं)

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