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यूपी में अपनी ज़मीन क्यों गँवा रही है बीएसपी?

यूपी में अपनी ज़मीन क्यों गँवा रही है बीएसपी?

वैचारिक विचारधारा से इतर जातियों की गिनती कर अपनी पार्टी से जोड़ने का यह फ़ॉर्मूला बीएसपी को नुक़सान पहुँचा रहा है और वह लगातार अपने जनाधार गँवा रही है।

बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) 2012 से ही सत्ता से बाहर है। पार्टी का आधार उसके बाद लगातार गिरा है। नरेंद्र मोदी की लहर में 2014 के लोकसभा चुनाव में शून्य पर पहुँची बीएसपी ने 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अपना आधार और गँवा दिया। अब पार्टी समाजवादी पार्टी (सपा) के साथ 2019 के लोकसभा चुनाव में ताल ठोकने की तैयारी में है।

यूपी में ताक़तवर होने के साथ ही देश के अन्य हिंदी भाषी प्रांतों में भी बीएसपी ने पैठ बनाना शुरू कर दिया था। सत्ता में आने पर जब पार्टी आर्थिक रूप से सशक्त हुई तो पूर्वोत्तर से लेकर केरल और तमिलनाडु तक पार्टी हर सीट पर अपने प्रत्याशी उतारने लगी। कम से कम मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हरियाणा और पंजाब में दलितों के एक बड़े तबक़े ने बीएसपी में अपने उद्धार की उम्मीद देखी और राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बीएसपी को इतने मत मिल जाते थे कि वह कांग्रेस को नुक़सान पहुँचा सके।

मायावती से मोहभंग

यूपी की सत्ता से बाहर होने और बीएसपी के लगातार पिटने का असर मायावती से उम्मीद लगाए दलितों के मनोबल पर पड़ा है। कम से कम मध्य प्रदेश के चंबल और ग्वालियर इलाक़े में दलित मतदाताओं के मतदान का पैटर्न बदला है। मध्य प्रदेश के इन मतदाताओं ने हाल में हुए राज्य विधानसभा चुनाव में बिल्कुल मुसलिमों की ही तरह भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से मुक्ति पाने के लिए कांग्रेस को मतदान किया और पार्टी राज्य में खींचतान कर सत्ता पाने में कामयाब रही।

काँशीराम की तैयार ज़मीन पर माया हुईं कामयाब

बीएसपी के लिए कांशीराम ने वैचारिक आधार तैयार किया था। गाँव-गाँव घूमकर उन्होंने दलितों को जोड़ा। उन्होंने मामूली फ़ायदे और शराब पर दलित मत को बिक जाने से रोक दिया। पार्टी के आइकन में ज्योतिबा फुले, शाहू जी महाराज, भीमराव आम्बेडकर रहे। साथ ही उन्होंने पिछड़े वर्ग को पार्टी से जोड़ा, जिससे ताक़तवर लाठी वाला ओबीसी तबक़ा दलितों को बचा सके और उन्हें मतदान स्थल तक सुरक्षित लाने और ले जाने में मददगार बन सके। साथ ही समाजवादी पार्टी से तालमेल कर उन्होंने अपने इस फ़ॉर्मूले को और मज़बूती दी। मायावती मुख्यमंत्री बनने में कामयाब रहीं।

2007 में यूपी में बीएसपी के बहुमत में आने के बाद पार्टी का रुख़ बदल गया। 

बौद्ध विचारधारा से लिया गया बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय के नारे को मायावती ने सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय में बदल दिया। कार्यक्रमों में बाकायदा शंख, चुटियाधारकों को पर्याप्त जगह मिलनी शुरू हो गई। नारा लगा कि ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा।

मायावती का नारा कितना सफल

अब तक के चुनाव परिणाम बताते हैं कि बीएसपी का नारा ‘ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा’ औंधे मुँह गिरा है। ब्राह्मण-मुस्लिम-दलित समीकरण को ध्यान में रखते हुए मायावती ने इसी क्रम में 2012, 2014 और 2017 के चुनाव में टिकट बांटे थे और टिकट पाने वालों की संख्या इसी क्रम में रही। दलितों को भी टिकट किसी रणनीति या समीकरण के तहत नहीं, बल्कि सुरक्षित होने की वजह से मिले। 

  • बीएसपी ने दलितों का अपना पक्का वोट बैंक मानकर उसमें मुसलिम और ब्राह्मण जोड़ लेने के सपने देखे। जब से पार्टी इस सपने पर काम कर रही है, लगातार पतनोन्मुख है। 

टिकट बेचवा पार्टी का आरोप कितना सही

वैचारिक आधार गँवाने में टिकट बेचवा पार्टी होने के आरोपों ने भी अहम भूमिका निभाई है। उत्तर प्रदेश से इतर राज्यों में जनता के बीच यह संदेश गया कि पार्टी पैसे लेकर राज्य में लड़ रहे दलों के कहे मुताबिक़ जातीय उम्मीदवार उतारती है। वहीं यूपी में यह नारे आम हो गए ‘जिसकी जितनी थैली भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’। 

ऐसे में कांशीराम ने दलितों को शराब या मामूली प्रलोभन पर न बिकने और सत्ता पर कब्ज़ा करने का वैचारिक आधार दिया था, वह बीएसपी ने गँवा दिया। पार्टी के समर्थक भी अपने फ़ायदे के मुताबिक़ वोट देने लगे।

सामान्यतया बीएसपी के मत प्रतिशत को दलितों से जोड़कर देखा जाता है। यह अवधारणा स्थापित की जाती है कि पार्टी को जितने मत मिले हैं, वह दलितों के ही हैं। हकीक़त इससे कहीं इतर है। पार्टी जिस प्रत्याशी को टिकट देती है, वह सामान्यतया बहुत अमीर प्रत्याशी होते हैं और उनका अपने इलाक़े में असर होता है। धुआँधार प्रचार की वजह से दलितों से इतर भी वोट मिल जाते हैं। अब जब पार्टी लगातार हार रही है, ऐसे में उसके दलित मतदाता भी निराश होकर अलग ठौर तलाश रहे हैं।

मायावती की छवि बदल गयी

मायावती की छवि एक सख़्त नेता की रही है। ख़ासकर दलितों से इतर अराजनीतिक मतदाता मायावती के प्रशासन की सराहना करते रहे हैं और लोगों का मानना रहा है कि मायावती के सत्ता संभालने के बाद अपनी नौकरी व रोजी-रोज़गार में लगे लोगों को सुकून से काम करने का मौक़ा मिलता है। केंद्र सरकार इस समय लगातार बीएसपी पर हमले कर रही है। सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय से लेकर विभिन्न एजेंसियाँ बीएसपी से जुड़े लोगों की जाँच कर रही हैं। इस समय उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव रहे नेतराम आयकर के निशाने पर और सुर्खियों में हैं। वह आय से ज़्यादा संपत्ति के मालिक हैं या नहीं, उनके पास से धन, कागज़ात आदि बरामद हुए या नहीं, यह बाद में न्यायालय में साबित होगा। फ़िलहाल अख़बारों, चैनलों, समाचार माध्यमों के शीर्षक में आयकर विभाग की ओर से दी गई यह सूचना ही है कि नेतराम के 300 करोड़ रुपये से ज़्यादा के निवेश दस्तावेज़, करोड़ों की ज़मीन व फ्लैट के कागज़ात ज़ब्त किए गए हैं। साथ में यह भी जुड़ा होता है कि नेतराम पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के प्रमुख सचिव थे। इस तरह के तमाम मामले और जाँच सामने आ रहे हैं। मायावती सरकार पर हमलावर नहीं हैं। दलित मसलों पर भी वह कभी-कभी ही प्रेस कॉन्फ्रेंस करती हैं। 

चंद्रशेखर मामले में तो मायावती इतनी डरी नज़र आईं, जैसे उनके विकल्प के रूप में कोई नया नेता तैयार हो रहा हो। ऐसे में मायावती की छवि कड़क प्रशासक से एक ऐसे नेता की बन गई है, जो अपना धन बचाने के लिए हर मुद्दे पर खामोश हैं और डरी हुई हैं।

2019 के आम चुनाव में बीएसपी अब ब्राह्मण, मुसलिम और दलित समीकरण से एक कदम आगे बढ़ी है। पार्टी ने समाजवादी पार्टी से गठबंधन कर उसमें यादव मत भी जोड़ लिए हैं। साथ ही उसे यह निश्चिंतता भी लग रही है कि मुसलिम मतों में विभाजन नहीं होगा और पार्टी जीत जाएगी। वैचारिक विचारधारा से इतर जातियों की गिनती कर पार्टी से जोड़ने का यह फ़ॉर्मूला बीएसपी को नुक़सान पहुँचा रहा है और वह लगातार अपने जनाधार गँवा रही है।

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