बीएसपी संस्थापक कांशीराम के 15वें निर्वाण दिवस पर लखनऊ में आयोजित रैली में दो लाख से ज्यादा लोग पहुंचे थे। माना जाता है कि यूपी में सबसे ज्यादा भीड़ जुटाने का माद्दा आज भी मायावती के पास है। बीजेपी के अलावा यूपी में बीएसपी ही कैडर आधारित पार्टी है। बीएसपी में सर्वमान्य सुप्रीमो मायावती के कार्यकर्ता बहुत अनुशासित हैं। मायावती की अपील उनके लिए मसीहा का हुकुम माना जाता है।
हालांकि अपने गठन (1984) से लेकर बीएसपी में अब तक बहुत परिवर्तन आ चुका है। दलित अस्मिता की आक्रामक राजनीति करने वाली बीएसपी पिछले सात साल से सुरक्षात्मक मुद्रा में हैं।
मायावती पर आरोप लगता है कि उन्होंने लोगों के बीच उनके मुद्दों को उठाकर संघर्ष करने की राजनीति से पल्ला झाड़ लिया है। बावजूद इसके उनके यहां टिकट लेने वालों की कतार लगी रहती है।
त्रिशंकु विधानसभा
मायावती ने मंच से बीएसपी की पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने का आह्वान किया। लेकिन अधिकांश राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि मायावती अपनी कमजोरी भांपते हुए प्रदेश में त्रिशंकु विधानसभा की चाहत रखती हैं। ऐसी स्थिति में बीजेपी या अन्य दलों के सहयोग से वे सूबे की मुख्यमंत्री बन सकती हैं। लेकिन वे लोकसभा चुनाव वाली गलती दोहराने की कोशिश कर रही हैं। 2019 के चुनाव के दौरान भी उन्होंने त्रिशंकु लोकसभा का सपना देखा था।
जनाधार वाले नेता गए
अपने लिखित भाषण में मायावती ने मान्यवर कांशीराम को याद करते हुए मंडल कमीशन लागू करने के लिए वीपी सिंह पर दबाव डालने की बात कही। मंडल कमीशन की बात करके मायावती पिछड़ी जातियों में अपने प्रति हमदर्दी जगाने की कोशिश कर रही हैं। जबकि जंग बहादुर पटेल, राम समुझ, बाबू सिंह कुशवाहा, स्वामी प्रसाद मौर्या, सुखदेव राजभर और राम अचल राजभर समेत तमाम मिशनरी पिछड़े नेता पार्टी से बाहर जा चुके हैं।
मायावती के अलावा बीएसपी में आज कोई जनाधार वाला नेता नहीं है, ब्राह्मण चेहरा सतीश मिश्रा भी नहीं।
निशाने पर रही कांग्रेस
मायावती ने अपने भाषण में बीजेपी सहित तमाम विरोधियों पर हमला बोला। किसान आंदोलन और लखीमपुर खीरी की घटना पर मायावती ने बीजेपी को घेरा। लेकिन उनके निशाने पर मुख्य रूप से कांग्रेस रही। गौरतलब है कि लखीमपुर खीरी में 3 अक्टूबर को गृह राज्य मंत्री के आरोपी पुत्र आशीष मिश्रा की तेज रफ्तार गाड़ियों से 4 किसानों और पत्रकार रमन कश्यप की कुचलकर निर्मम हत्या कर दी गई थी।
प्रियंका की सक्रियता
कांग्रेस की महासचिव और यूपी प्रभारी प्रियंका गांधी ने अपनी सक्रियता से इस घटना को राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया। उसी रात हवाई मार्ग से लखनऊ पहुंची प्रियंका गाँधी पुलिस प्रशासन को छकाती हुईं सड़क मार्ग से सीतापुर पहुंच गईं। लखीमपुर से महज 20 किलोमीटर पहले प्रियंका को गिरफ्तार किया गया। इसके बाद योगी सरकार ने 3 दिन तक उन्हें सीतापुर के पीएसी गेस्ट हाउस में कैद रखा। एसपी अध्यक्ष अखिलेश यादव, बीएसपी महासचिव सतीश मिश्रा समेत विपक्ष के अन्य नेताओं को लखनऊ में ही रोक दिया गया।
कांग्रेस और प्रियंका गांधी की सक्रियता से यह मुद्दा सुर्खियों में बना रहा। योगी सरकार की खूब किरकिरी हुई। इसके बाद योगी सरकार ने विपक्षी नेताओं को लखीमपुर जाने की इजाजत दे दी।
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के साथ लखीमपुर खीरी पहुंचे। जाहिर है, राहुल गांधी द्वारा अपनी पार्टी के एक दलित और एक पिछड़े मुख्यमंत्री को लेकर आना यूपी में कांग्रेस को मजबूत करने की रणनीति है।
कांग्रेस पार्टी अपने खोए दलित और पिछड़े जनाधार को वापस पाना चाहती है। गौरतलब है कि पिछले महीने ही पंजाब में कांग्रेस ने कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटाकर चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया है। चन्नी पंजाब के पहले दलित मुख्यमंत्री हैं। चन्नी होशियारपुर के रामदसिया जाटव समुदाय से आते हैं। कांशीराम भी इसी माटी और समाज से जुड़े हुए थे। चन्नी को यूपी लाकर काग्रेस पार्टी दलित वोटों में सेंधमारी करना चाहती है। इसीलिए मायावती के पहले निशाने पर कांग्रेस पार्टी है।
90 के दशक में कांशीराम ने कड़ी मेहनत करके दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों को एकजुट करके बहुजन राजनीति को पंख दिए थे। अपनी इसी अवधारणा को ध्यान में रखते हुए कांशीराम ने अपने दल का नाम बहुजन समाज पार्टी रखा।
मायावती को मुख्यमंत्री बनाया
कांशीराम ने बाबा साहब डॉ. आंबेडकर की वैचारिकी को सांस्कृतिक कलेवर देते हुए उनके सपने को साकार किया। बाबा साहब चाहते थे कि सत्ता की चाबी दलितों के हाथ में हो। कांशीराम ने यूपी में मायावती को मुख्यमंत्री बनाकर यह कारनामा कर दिखाया। इसके लिए उन्होंने कांग्रेस के आधार वोट खासकर दलितों को बीएसपी से जोड़ा।
कांशीराम ने अपने राजनैतिक कौशल से यूपी में कांग्रेस को लगभग खत्म कर दिया। कांग्रेस से दलितों के छिटकने के बाद ब्राह्मण बीजेपी के साथ चला गया और मुसलिम मतदाता एसपी यानी मुलायम सिंह के साथ।
कांशीराम ने देश के सबसे बड़े सूबे में सबसे पुरानी पार्टी को पृष्ठभूमि में धकेल दिया। सदियों से हाशिए पर रहे खासकर दलित समुदाय को उन्होंने वोट की ताकत का एहसास कराया। इसके मार्फत सत्ता हासिल करके उन्होंने दलितों का उत्थान करने वाली नीतियों को सफलतापूर्वक लागू किया।
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बहुजन विमर्श को दी दिशा
कांशीराम ने राजनीति के साथ-साथ सांस्कृतिक आंदोलन को भी जारी रखा। पेरियार मेला, आंबेडकर मेला से लेकर दलित-पिछड़ों के नायक-नायिकाओं की खोज और उनका इतिहास लेखन आदि कामों के जरिए उन्होंने बहुजन विमर्श को नई गति और दिशा प्रदान की। इससे उपजी सामाजिक चेतना से सत्ता उन्मुख राजनीति को बढ़ावा मिला।
दलितों के लिए मतदान राष्ट्रीय उत्सव में तब्दील हो गया। दलित सत्ता राजसत्ता में बदलने लगी। नतीजे में बीएसपी यूपी में सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरी। आगे चलकर बीएसपी कांग्रेस और बीजेपी के बाद तीसरी सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी बनने में कामयाब हुई।
...नीला झंडा हाथी निशान
बीएसपी की रैलियों का चर्चित नारा होता है- 'बीएसपी की क्या पहचान, नीला झंडा हाथी निशान!' झंडा और निशान दोनों बाबा साहब की विरासत हैं। कांशीराम ने इन्हें अपनाया। नीला झंडा समता का प्रतीक है। हाथी गुलामी से मुक्ति का प्रतीक है।
दरअसल, डॉ. आंबेडकर ने अपनी पार्टी आरपीआई का निशान हाथी तय किया था। पार्टी का नाम और निशान दोनों अमेरिका से प्रेरित हैं। अमेरिका की रिपब्लिकन पार्टी का चुनाव निशान भी हाथी है। रिपब्लिकन पार्टी यानी अब्राहम लिंकन की पार्टी। 1861 से 1865 तक राष्ट्रपति रहे लिंकन ने अमेरिका से दास प्रथा को समाप्त किया था। बाबा साहब के लिए लिंकन की पार्टी और हाथी निशान गुलामी से मुक्ति के प्रतीक बन गए।
कांशीराम ने बीएसपी के गठन के समय बाबा साहब की पार्टी के हाथी निशान को अपनाया। लेकिन दुर्योग से कांशीराम के दिवंगत (9 अक्टूबर 2006) होने के बाद हाथी मुक्ति का नहीं बल्कि ब्राह्मण वोट साधने का प्रतीक बन गया।
बदल गए नारे
2007 के विधानसभा चुनाव में सोशल इंजीनियरिंग के मार्फत ब्राह्मणों को बीएसपी से जोड़ने की जुगत में दो चर्चित नारे गढ़े गए- 'हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है!' और 'ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा!' इन नारों की गूंज में लिंकन, बाबा साहब और कांशीराम के विचार बिला गए। महज सत्ता के लिए परिवर्तन, न्याय और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रतीक हाथी को ब्राह्मणवाद का नया प्रतीक बना दिया गया।
2007 में 206 सीटें जीतकर बीएसपी को पूर्ण बहुमत मिला। मायावती चौथी बार सूबे की मुख्यमंत्री बनीं। बहुजन छोड़कर सर्वजन की बात करने वालीं मायावती ने 2012 के चुनाव में हारने के बाद सत्ता पाने के लिए अपनी वैचारिक जमीन त्याग दी।
2021 तक आते-आते उन्होंने आंबेडकरवाद को सिर के बल खड़ा कर दिया। अब उनके ब्राह्मण सम्मेलनों में जय श्रीराम के नारे लगते हैं और शंख फूंके जाते हैं। नीला तिलक भी अब गेरूए तिलक में बदल गया है। बाबा साहब और महात्मा बुद्ध की मूर्ति थामने वाले हाथ अब गणेश की मूर्ति और त्रिशूल लेने में परहेज नहीं करते।
यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि मायावती ने बाबा साहब और कांशीराम के सपनों को चकनाचूर कर दिया है। अगर वैचारिक रीढ़ सलामत नहीं है तो भीड़ जुटाने से कुछ नहीं हो सकता।