इसलामी जगत में खाली जगह छोड़ गए मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान
दुनिया भर में मशहूर इसलामिक विद्वान मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान के इंतकाल की ख़बर इसलामी जगत में एक बड़े झटके की तरह है। एक दिन पहले ही उनके बेटे और इसलामी विद्वान सैयद ज़फर उल इसलाम ख़ान ने उनके कोरोना पाज़िटिव होने और अस्पताल में भर्ती कराए जाने की ख़बर दी थी।
अगले दिन ही उनके इंतकाल की ख़बर आ गई। उनके जाने से इसलामी विद्वानों की दुनिया में एक ऐसी कमी पैदा हो गई है जिसकी भरपाई बरसों तक नहीं हो पाएगी।
मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान के निधन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद समेत तमाम हस्तियों ने दुख जताया है। पीएम मोदी ने कहा है कि धर्मशास्त्र और आध्यात्मिक ज्ञान के लिए उन्हें हमेशा याद किया जाएगा।
Saddened by the passing away of Maulana Wahiduddin Khan. He will be remembered for his insightful knowledge on matters of theology and spirituality. He was also passionate about community service and social empowerment. Condolences to his family and countless well-wishers. RIP.
— Narendra Modi (@narendramodi) April 22, 2021
बड़े इसलामी विद्वान
मौलाना वहीदुद्दीन इसलामी के बड़े विद्वान थे कुरआन और इसलामी जूरिडिक्शन को लेकर उनकी बहुत पैनी और गहरी समझ थी। उन्होंने ने कुरआन का हिंदी और अंग्रेजी में बहुत ही आसान और सहज अनुवाद किया है।
दोनों ही भाषाओं में अनुवाद किए गए कुराण के ऐप सबसे ज्यादा डाउनलोड किए जाने वाले ऐप में शुमार किए जाते हैं। उन्होंने कुरान पर टिप्पणी भी लिखी है। कुरान पर बनाई उनकी तसवीर दुनिया की बेहतरीन तसवीरों में शुमार की जाती है। वह दुनिया के बड़े इसलामी विद्वानों में गिने जाते थे।
उन्होंने कई किताबें भी लिखी हैं। उनके पब्लिकेशन 'अल-रिसाला' ने बच्चों के लिए इसलामी सिद्धांतों के अनुरूप नैतिक शिक्षा देने वाली किताबों से लेकर इसलाम के विभिन्न पहलुओं को बारीकी से समझाने वाले मुद्दों पर सैकड़ों किताबें प्रकाशित की हैं।
मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान कुछ साल पहले तक तमाम समाचार पत्र-पत्रिकाओं में इसलाम और मुसलिम समाज में सुधारों की ज़रूरत और भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में मुसलमानों को उनके अधिकार कैसे मिलें, और उनका सर्वांगीण विकास कैसे हो जैसे मुद्दों पर अपने
देश-विदेश में मिला सम्मान
उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ के बधरिया गाँव में 1 जनवरी साल 1925 को पैदा हुए वहीदुद्दीन ख़ान को कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के अवॉर्ड से नवाज़ा जा चुका है। उन्हें मदर टेरेसा की तरफ से नेशनल सिटिजन्स अवॉर्ड और साल 2009 में राजीव गांधी नेशनल सद्भावना पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है।
साल 2000 में वहीदुद्दीन ख़ान को भारत का तीसरा सर्वोच्च अवॉर्ड पद्म भूषण से उन्हें नवाजा गया था। इसी साल उन्हें भारत के दूसरे सर्वोच्च पुरस्कार पद्मविभूषण से भी सम्मानित किया गया।
पूर्व सोवियत संघ के राष्ट्रपति मिखाइल गोर्वाचोव के संरक्षण में उन्हें डेम्यर्जस पीस इंटरनेशनल अवॉर्ड दिया गया था। इनके अलावा उन्हें सऊदी अरब और दूसरे अरब देशों से भी कई बड़े सामानों से नवाज़ा गया।
वाजपेयी, आडवाणी के करीबी
मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान 90 के दशक में बीजेपी के करीबी माने जाते थे। खासकर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के साथ उनके रिश्ते बहुत अच्छे थे। कई मुद्दों पर उनकी राय आम मुसलमानों को पसंद नहीं आती थी। इसलिए मुसलिम समाज में उनका विरोध भी होता रहा।
बाबरी मसजिद का विवाद शुरू होने के बाद से ही मौलाना वहीदुद्दीन शायद अकेले मुसलिम विद्वान थे जो मुसलमानों को बाबरी मसजिद से अपना दावा छोड़ने की वकालत करते थे।
मुसलिम समाज में आलोचना
हिंदी अखबारों में छपे उनके लेखों में मुसलमानों के लिए एक नसीहत होती थी कि मुसलमान लोकतांत्रिक देश में हिंदू समाज के साथ छोटे भाई की तरह रहना सीखें। इसको लेकर कई बार मुसलिम समाज की तरफ से उनकी आलोचना भी हुई। लेकिन इस आलोचना के बावजूद मौलाना वहीदुद्दीन खान अपने विचारों पर अडिग रहे। अपने विचारों से कभी समझौता नहीं किया। न ही कभी आलोचना करने वालों से किसी तरह का शिकवा या शिकायत की।
उनके व्यक्तित्व का यह कौन सबसे निराला था और उनके समकालीन इसलामी विद्वानों के बीच उन्हें एकदम अलग खड़ा करता है। व्यक्तिगत तौर पर उनसे मेरी कई बार बातचीत हुई तो मुस्कुरा कर हमेशा एक ही बात कहते थे कि दुनिया में गुमराह लोगों की तादाद ज्यादा है और इस बात की तसदीक कुरान भी करता है, हमारा काम उन्हें नसीहत देना है। समझना नहीं, समझना उनके ऊपर है, हमारा अल्लाह सब देख रहा है।
वाजपेयी हिमायत कमेटी
2004 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को चुनाव में मदद करने के लिए कुछ मुसलिम उलेमाओं ने अटल बिहारी वाजपेयी हिमायत कमेटी बनाकर मुसलिम समाज में उनके लिए समर्थन मांगा था। कहा जाता है कि यह कमेटी बनाने में मौलाना वहीदुद्दीन खान की अहम भूमिका थी। हालांकि वो इस कमेटी में सक्रिय नहीं थे। लेकिन इस कमेटी को उनका मौन समर्थन ज़रूर था। मुसलिम समाज में काफी आलोचना हुई थी।
इसी नाते मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान भी मुस्लिम समाज के निशाने पर थे।
उनका कहना था कि लोकतांत्रिक देश में सरकारें लोकतांत्रिक तरीके से चुनी जाती हैं और चुनी जाती रहेंगी। किसी भी समाज को किसी खास पार्टी से नफ़रत नहीं करनी चाहिए। न ही किसी एक पार्टी को किसी एक धार्मिक समुदाय से नफ़रत करनी चाहिए।
सुधारों के पक्षधर
मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान जितने बड़े इसलामी विद्वान थे, कितने ही बड़े वह सामाजिक सुधारों के पक्षधर भी थे। जिन मुद्दों पर मुसलिम समाज में सुधार की ज़रूरत है उन पर वो खुलकर अपनी बात रखते थे।
उनका शुरू से मानना था कि मुसलिम समाज को भारत के बहुसंख्यक हिंदू समाज के साथ मेलजोल बढ़ा कर सौहार्द पूर्ण वातावरण में रहना चाहिए ना कि हर मुद्दे पर टकराव। इसके लिए उन्होंने कई किताबें भी लिखी और लेख भी लिखे।
इसके अलावा मुसलिम समाज में शरीयत का नाम पर चली आ रही जहालतों को दूर करने के लिए भी मुसलमानों की रहनुमाई की। तीन तलाक़ के वह शख़्त ख़िलाफ़ थे। उनका कहना था कि इस बुराई को जड़ से मिटाना चाहिए और यह ऐसा करना उलेमा की ज़िम्मेदारी है।
मुसलिम समाज को देखना चाहते थे ताक़तवर
मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान चाहते थे कि देश के मुसलमान आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक और राजनीतिक रूप से संपन्न और ताक़तवर बने। इसके लिए उनकी अपनी एक समझ थी, जिसे उन्होंने अपने कई लेखों में सामने रखा। उनका तर्क था कि मुसलमान देश में अपने दूसरे नंबर की हैसियत को स्वीकर करें। सामाजिक रुप से संगठित होकर देश के विकास में योगदान दे।
उनसे हुई कुछ मुलाक़ातों के दौरान इस मुद्दे पर जब चर्चा होती थी तो हमेशा एक ही बात कहते थे कि कुरआन में मुसलमानों के लिए नेकी और भलाई के कामों में दूसरी क़ौमों से प्रतियोगिता करने का हुक्म है। दुर्भाग्य से देश का मुसलमान इन कामों में पीछे है।
अगर मुसलमान भी धार्मिक और जातीय भेदभाव छोड़ कर जनकल्याण के कामों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेंगे तो बहु संख्यक समुदाय में उसके प्रति कड़वाहट कम होगी और दोनों समुदाय के बीच रिश्ते बेहतर बनेंगे। इसी से देश और समाज दोनों मजबूत होंगे। इस तरह के ख़ुशगवार माहौल में मुसलमानों को सम्मान के साथ सब कुछ मिलेगा जिस पर उनका जायज़ हक़ है।
ऐसे नेक दिल गांधीवादी रास्ते पर चलने वाले इसलामी और दार्शनिक स्वभाव के मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान का जाना इसलामी जगत में एक ऐसी खालीपन छोड़ गया, जिसकी भरपाई शायद दशकों तक क्या सदियों तक ना हो। उनके इंतकाल पर दिल से यह दुआ निकलती है कि अल्लाह जन्नत में आला मक़ाम अता करे और देश समाज को लेकर उनके विज़न को साकार करे।