नई शिक्षा नीति: पांडुलिपि मिशन की जगह राष्ट्रीय प्राधिकरण जैसी संस्था क्यों नहीं?
पिछले दिनों सरकार ने नई शिक्षा नीति की घोषणा की। नई शिक्षा नीति में भाषा और कला को लेकर कई उत्साहवर्धक घोषणाएँ की गई हैं। इन घोषणाओं में साफ़ तौर पर यह कहा गया है कि संस्कृति को मज़बूत करने के लिए यह आवश्यक है कि भाषा को मज़बूती प्रदान की जाए। शब्दकोश से लेकर अनुवाद तक की महत्ता के बारे में बात की गई है। एक और महत्वपूर्ण बात जो इस नई शिक्षा नीति में कही गई है वो यह है कि ‘भारत इसी तरह सभी शास्त्रीय भाषाओं और साहित्य का अध्ययन करनेवाले अपने संस्थानों और विश्वविद्यालयों का विस्तार करेगा और उन हज़ारों पांडुलिपियों को इकट्ठा करने, संरक्षित करने और अनुवाद करने और उनका अध्ययन करने का मज़बूत प्रयास करेगा, जिस पर अभी तक ध्यान नहीं गया है। इसी प्रकार से सभी संस्थानों और विश्वविद्यालयों में जिसमें शास्त्रीय भाषाओं और साहित्य पढ़ाया जा रहा है, उनका विस्तार किया जाएगा। अभी तक उपेक्षित रहे लाखों अभिलेखों के संग्रह, संरक्षण, अनुवाद और अध्ययन के दृढ़ प्रयास किए जाएँगे।‘ इस शिक्षा नीति में यह एक बेहद महत्वपूर्ण प्रयास होगा।
हमारे प्राचीन ग्रंथों को सहेजने का प्रयास होना चाहिए। कई बार कई तरह के सर्वेक्षणों में यह बात सामने आ चुकी है कि पूरी दुनिया में भारत के पास सबसे अधिक पांडुलिपियाँ हैं लेकिन साथ ही ये बात भी सामने आती हैं कि हमारे देश में इन पांडुलिपियों के संरक्षण की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। एक अनुमान के मुताबिक़ हमारे देश में इस वक़्त दो करोड़ से अधिक पांडुलिपियाँ हैं जिनको संरक्षित करने की सख़्त आवश्यकता है।
इन पांडुलिपियों को सहेजने की बात नई नहीं है और इस शिक्षा नीति में जो कहा गया है इस तरह के प्रयास पहले भी हो चुके हैं। जब अटल बिहारी वाजपेयी जी प्रधानमंत्री थे तो उन्होंने 2002 में पंद्रह अगस्त को लाल क़िले की प्राचीर से ‘राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन’ की घोषणा की थी। सात फ़रवरी 2003 को ‘राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन’ की विधिवत शुरुआत की गई थी। मिशन की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक़ इसकी स्थापना पर्यटन और संस्कृति मंत्रालय के अधीन की गई थी और इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र को नोडल एजेंसी बनाया गया था। राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन ‘भविष्य के लिए अतीत का संरक्षण’ के उद्देश्य से स्थापित किया गया था। इसके शुभारंभ के मौक़े पर अटल जी ने भी भाषा को लेकर चिंता जताई थी और कहा था कि ‘चूँकि 70 प्रतिशत पांडुलिपियाँ संस्कृत में हैं अत: इस भाषा के शिक्षण और अध्ययन को और प्रवर्तित करने की आवश्यकता होगी और अनेक संस्थान जो पहले से ही इस क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं उन्हें इस मिशन से जोड़ा जाना होगा और अंतत: पांडुलिपियों के निजी अभिरक्षकों को आगे बढ़कर अपनी पांडुलिपियाँ मिशन को सौंप देने के लिए प्रोत्साहित करने हेतु एक बड़ा जागरूकता अभियान चलाना होगा।’
कुछ इसी तरह की बात नई शिक्षा नीति में भी की गई है। 2003 में स्थापित राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन ने पिछले सत्रह साल में क्या काम किया, यह अबतक ज्ञात नहीं हो पाया है। 2004 में एनडीए को पराजय का सामना करना पड़ा लेकिन पांडुलिपि मिशन बन गया था तो चलता रहा लेकिन कांग्रेस की अगुवाई वाले गठबंधन में इस पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया गया।
मिशन तो किसी काम को पूरा करने के लिए बनाया जाता है और उसकी एक निश्चित समयावधि होती है। राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन का भी कार्यकाल तय था और अब इसको 2021 तक के लिए बढ़ाया गया है।
पिछले दिनों वाराणसी के दो ऐसे स्थानों पर जाने का अवसर मिला जहाँ हज़ारों पांडुलिपियाँ और प्राचीन ग्रंथ उपलब्ध हैं। पांडुलिपियों को उचित रखरखाव और प्राचीन ग्रंथों को पुनर्प्रकाशित करने की आवश्यकता है। काशी के संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के पास हज़ारों दुर्लभ पांडुलिपियाँ हैं जिनपर काम करने की ज़रूरत है। उनको अनूदित करके शोधार्थियों या छात्रों के समक्ष लाने की ज़रूरत है। राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन ने इस दिशा में जो प्रयास किया है वो नाकाफ़ी है। सिर्फ़ बनारस में ही नहीं पूरे देश में जाने कितने पुस्तकालयों में पुरानी पांडुलिपियाँ पड़ी होंगी, इसका वास्तविक आकलन भी नहीं हो पाया है।
रजवाड़ों की संपत्तियों में पांडुलिपियाँ
सबसे बुरी स्थिति तो उन रजवाड़ों की बताई जा रही है जहाँ संपत्ति को लेकर विवाद के चलते संपत्तियाँ अदालतों के आदेश पर सील कर दी गई हैं। इन सील की गई कई संपत्तियों में उन राजघरानों के निजी पुस्तकालय भी हैं। उन पुस्तकालयों में ढेर सारी पांडुलिपियाँ हैं जो सालों से बगैर देखरेख के नष्ट हो गई हैं या नष्ट हो रही हैं। इसी तरह से देश के अलग-अलग हिस्सों के लेखकों के घरों में पांडुलिपियाँ थीं जो या तो नष्ट हो गईं या नष्ट होने के कगार पर हैं। अगर नई शिक्षा नीति में पांडुलिपियों के प्रकाशन पर ध्यान दिया जाता है तो हम अपनी उन बौद्धिक संपदा को सहेज कर आनेवाली पीढ़ियों के लिए एक बड़ा काम कर पाएँगे।
क्रियान्वयन कैसे होगा
सवाल यह भी उठता है कि अभी पांडुलिपि मिशन संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत है लेकिन जब नई शिक्षा नीति में इसपर काम करने की बात की गई है तो क्या यह माना जाए कि पांडुलिपि मिशन अब संस्कृति मंत्रालय से शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत होगा। शिक्षा नीति में तो मोटे तौर पर नीतिगत बातें की गई हैं, उसका क्रियान्वयन कैसे होगा इसपर विस्तृत जानकारी प्रतीक्षित है।
अगर सरकार पांडुलिपियों को लेकर गंभीरता से काम करना चाहती है तो उसको पांडुलिपि मिशन को भंग करके राष्ट्रीय पांडुलिपि प्राधिकरण जैसी संस्था का गठन करना होगा।
जैसे संस्कृति मंत्रालय ने 2010 में स्मारकों की सुरक्षा और उसके संरक्षण के लिए राष्ट्रीय स्मारक प्रधारिकरण का गठन किया था। अगर ऐसा हो पाता है तो पांडुलिपियों के संरक्षण के कार्य को गति भी मिलेगी और स्थायित्व भी।
एक और बात इस नई शिक्षा नीति में कही गई है कि ‘भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लिखित प्रत्येक भाषा के लिए अकादमी स्थापित की जाएगी जिसमें हर भाषा के श्रेष्ठ विद्वान एवं मूल रूप से वह भाषा बोलनेवाले लोग शामिल रहेंगे ताकि नवीन अवधारणाओं का सरल किन्तु सटीक शब्द भंडार तय किया जा सके तथा नियमित रूप से नवीन शब्दकोश जारी किया जा सके।... इसी प्रकार व्यापक पैमाने पर बोली जानेवाली अन्य भारतीय भाषाओं की अकादमी केंद्र अथवा/ और राज्य सरकारों द्वारा स्थापित की जाएँगी।‘ अब ये भी कोई नई बात नहीं है अभी एक साहित्य अकादमी है जो संविधान में उल्लिखित भाषाओं के लिए काम करती है और केंद्रीय हिंदी संस्थान शब्दकोश बनाने का काम करता है।
पिछले दिनों केंद्रीय हिंदी संस्थान के निदेशक नंदकिशोर पांडे ने बहुत श्रमपूर्वक शब्दकोश पर काम करवाया और 45 शब्दकोश का प्रकाशन हो गया और छह पर काम चल रहा है। राज्यों में भी भाषाई अकादमियाँ हैं। उनमें से ज़्यादातर की हालत बहुत ख़राब है क्योंकि उनके पास पर्याप्त बजट नहीं है। यह देखना दिलचस्प होगा कि इन अकादमियों का गठन होगा तो साहित्य अकादमी का क्या होगा, केंद्रीय हिंदी संस्थान का क्या होगा, भारतीय भाषा संस्थान, मैसूर का क्या होगा, केंद्रीय शास्त्रीय तमिल संस्थान, चेन्नई का क्या होगा क्या सरकार इन संस्थानों के पुनर्गठन की सोच के साथ नई शिक्षा नीति को लेकर आई है। इसमें से कुछ संस्थान तो शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत आते हैं लेकिन कई संस्थान संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत आते हैं। अगर पुनर्गठन की सोच है तो यह एक अच्छी पहल हो सकती है क्योंकि संस्कृति मंत्रालय की कई ऐसी संस्थाएँ हैं जिनको अगर शिक्षा मंत्रालय के साथ कर दिया जाए तो बेहतर होगा।
(दैनिक जागरण से साभार।)