कैसे हारते-हारते बचे कड़े मुक़ाबले में फंसे मनीष सिसोदिया?
दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने 2015 की प्रचंड जीत को फिर से दोहराकर सभी को हैरान कर दिया है। शायद ही कहीं ऐसा उदाहरण मिले जहाँ किसी पार्टी को जनता ने इतना समर्थन, सम्मान और प्यार दिया हो। यह आप की एकतरफ़ा जीत है।
आम आदमी पार्टी की इस जीत का सेहरा अगर किसी के सिर बाँधा जा सकता है तो पहले नंबर पर अरविंद केजरीवाल का नाम आता है तो दूसरे नंबर पर मनीष सिसोदिया का। यही वजह है कि सोशल मीडिया पर दोनों की पुरानी तसवीरों के साथ-साथ नई तसवीरों को यह कहते हुए वायरल किया गया कि यह जोड़ी सलामत रहे, मगर वोटों की गिनती के दौरान एक वक़्त ऐसा भी आया था जब ऐसा लगने लगा था कि कहीं मनीष सिसोदया ख़ुद पटपड़गंज की सीट तो नहीं हार जाएँगे। पूरी आम आदमी पार्टी के हाथ-पैर फूल गए थे। हालाँकि ऊपरी तौर पर सिसोदिया ख़ुद मतगणना केंद्र में हँसते हुए दिखाई दे रहे थे लेकिन असल में उनके दिमाग़ में भी अनिश्चितता ज़रूर पैदा हो गई थी। वह आख़िरी राउंड में तभी वहाँ से हटे, जब यह तय हो गया कि अब उनके प्रतिद्वंद्वी बीजेपी के रवि नेगी नहीं जीत पाएँगे। क्या होता अगर मनीष सिसोदिया ख़ुद चुनाव हार जाते
यह सवाल इसलिए उठ खड़ा हुआ है कि पूरी दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने जिस मुद्दे पर जीत का डंका बजाया है, वह है शिक्षा का। आम आदमी पार्टी शिक्षा को अपना एक ऐसा मॉडल मानती है जिसके बल पर उसने आम जनता का दिल जीता। इसी के बल पर उन्होंने अपने प्रचार का केंद्र भी तय किया। अब अगर शिक्षा के क्रांतिदूत होने का दावा करने वाले सिसोदिया ही बड़ी मुश्किल से जीत पाए हैं तो क्या जनता ने उनका वह दावा ग़लत साबित कर दिया है। अगर वह हार जाते तो फिर आम आदमी पार्टी की सारी जीत पर ही ग्रहण लग सकता था।
सिसोदिया को कुल मिलाकर 70163 वोट मिले जबकि रवि नेगी ने 66956 वोट हासिल किए। सिसोदिया को आख़िरी दो राउंड की गिनती ने जिताया अन्यथा वह लगातार पीछे चल रहे थे।
वैसे, बात सिर्फ़ पटपड़गंज सीट की नहीं है। अगर आप ग़ौर करें तो यह बात सामने आएगी कि यमुनापार की 16 सीटों में से ही बीजेपी ने 6 सीटें हासिल की हैं। कुल मिलाकर बीजेपी को पूरी दिल्ली से 8 सीटें मिलीं यानी बाक़ी दिल्ली से सिर्फ़ दो। एक सीट पर रोहिणी से उनके कद्दावर नेता और विपक्ष के नेता विजेंद्र गुप्ता ने अपनी सीट बचाई और दूसरे जीते रामवीर सिंह बिधूड़ी बदरपुर से। बिधूड़ी ने आम आदमी पार्टी में हाल ही में गए नेताजी रामसिंह को हराया। दोनों लगातार इस सीट पर आमने-सामने आते रहे हैं। यह भी संयोग है कि दोनों अलग-अलग पार्टी से लड़ते रहे हैं। रामवीर सिंह बिधूड़ी कभी जनता दल, कभी कांग्रेस, कभी बीएसपी, कभी एनसीपी और अब बीजेपी से लड़े हैं तो नेताजी रामसिंह कभी निर्दलीय, कभी कांग्रेस और कभी आप से लड़ते रहे हैं।
यमुनापार में बीजेपी क्यों चली
बहरहाल, बात करें कि आख़िर यमुनापार में ऐसा क्या हुआ कि उसने पूरी दिल्ली से अलग फ़ैसला दिया। यह भी उल्लेखनीय है कि पिछली बार यानी 2015 में भी जब बीजेपी पूरी दिल्ली में सिर्फ़ 3 सीटें हासिल कर पाई थी तो उसमें से भी दो सीटें यमुनापार से ही थीं। पिछली बार 66 फ़ीसदी सीटें यमुनापार से थीं तो इस बार 75 फ़ीसदी। दरअसल, यमुनापार में पटपड़गंज की सीट और करावल नगर की सीट पर बीजेपी का प्रदर्शन काफ़ी अच्छा रहा है। पटपड़गंज में तो बीजेपी मामूली अंतर से हार गई लेकिन करावल नगर से मोहन सिंह बिष्ट आसानी से जीत गए। इन दोनों में एक समानता है कि यहाँ उत्तरांचलियों के वोट बहुत ज़्यादा है। यही वजह है कि पटपड़गंज से बीजेपी और कांग्रेस दोनों ने ही पहाड़ी उम्मीदवारों को उतारा था।
करावल नगर में भी उत्तरांचल के वोटरों की तादाद इतनी ज़्यादा है कि मोहन सिंह बिष्ट ने आप के बड़े नेता दुर्गेश पाठक को पटखनी दे दी। बिष्ट को 96390 और पाठक को 88317 वोट मिले। इसका एक मतलब तो साफ़ है कि दिल्ली के उत्तरांचलियों ने बीजेपी का भरपूर समर्थन किया है। लक्ष्मी नगर सीट भी बीजेपी को इसीलिए हासिल हुई है कि पांडव नगर और उसके आसपास की कॉलोनियों में पहाड़ी वोटरों ने बीजेपी के उम्मीदवार अभय वर्मा को वोट दिए और वह क्लोज फ़ाइट में नितिन त्यागी जैसे गुस्सैल विधायक को हराने में भी सफल हो गए।
बीजेपी का यमुनापार के इलाक़ों में प्रदर्शन संतोषजनक कहा जा सकता है और इसकी वजह बीजेपी वाले भी यह मानते हैं कि पिछले काफ़ी समय से यमुनापार में संघ की सक्रियता बहुत ज़्यादा है।
दिल्ली में संघ की सारी गतिविधियाँ इन दिनों पूर्वी दिल्ली के इलाक़े सूरजमल विहार से ही संचालित हो रही हैं। संघ की सक्रियता की वजह से ही यहाँ हिंदूवाद का नारा शायद असर कर गया। यही वजह है कि विश्वास नगर से ओमप्रकाश शर्मा ने लगातार तीसरी बार जीत हासिल की है। वैसे भी विश्वास नगर सीट की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि वहाँ पॉश कॉलोनियाँ बहुत ज़्यादा हैं और आम आदमी पार्टी यहाँ कभी भी नहीं जीत पाई।
संघ का असर!
गाँधीनगर से आम आदमी पार्टी 2015 में जीती थी लेकिन उसके विधायक अनिल वाजपेयी बीजेपी में चले गए थे। बीजेपी ने अपना वादा निभाते हुए उन्हें इस बार उम्मीदवार बनाया और वह इसलिए जीत गए कि कांग्रेस के हैवीवेट उम्मीदवार अरविंदर सिंह लवली ने 21818 वोट हासिल कर लिए। अनिल वाजपेयी को 48657 वोट मिले। आप के नवीन चौधरी दीपू की अपनी इमेज भी बहुत अच्छी नहीं है और वह 42610 वोट लेकर हार गए। हाँ, कृष्ण नगर से एस.के. बग्गा का हर्षवर्धन और बीजेपी के गढ़ से जीतना बीजेपी को पीड़ाजनक लग सकता है लेकिन सच्चाई यह है कि इस सीट पर बीजेपी लगातार लीड कर रही थी और आख़िर में खुरेजी और आराम बाग़ की मुसलिम आबादी की ईवीएम खुलीं तो आप का बेड़ा पार हो गया। इस सीट पर हिंदू कार्ड जमकर चला था और संघ का असर साफ़ देखने को मिला था।
घोंडा और रोहतास नगर की दो और सीटों पर बीजेपी जीती है और इसका कारण भी यही माना जा रहा है कि वहाँ बीजेपी के काडर ज़्यादा मज़बूत है।
घोंडा सीट पर अजय महावर पहली बार जीते हैं और वह बीजेपी के जिलाध्यक्ष रह चुके हैं। यह सीट साहिब सिंह चौहान की सीट मानी जाती है जो यहाँ से 2013 में भी जीत गए थे। उनकी मौत के बाद अब बीजेपी ने फिर से विरासत संभाली है। यही हाल रोहतास नगर सीट का भी है। वहाँ से आप की विधायक सरिता सिंह पर यह आरोप लगता रहा है कि उन्होंने इलाक़े की कोई सुध नहीं ली। जितेंद्र महाजन यहाँ से 2013 में भी जीते थे। हालाँकि यह इलाक़ा दिल्ली के दिग्गज नेता रामबाबू शर्मा का गढ़ माना जाता रहा है और उनका बेटा विपिन शर्मा भी मैदान में था लेकिन यहाँ की मिक्स्ड आबादी ने बीजेपी को वोट देकर पार्टी की लाज रख ली है।
दिल्ली भर में झाड़ू चला और यमुनापार में नहीं चला, इसके देखकर शायद आम आदमी पार्टी भी हैरान है। वह इसलिए कि अगर यहाँ भी झाड़ू चल जाता तो फिर उनका ‘इस बार 67 के पार’ वाला नारा भी सच साबित हो जाता। अब बीजेपी यमुनापार को अपना गढ़ कह सकती है जबकि आप के लिए और ख़ासतौर पर मनीष सिसोदिया के लिए दिल्ली के इस हिस्से का विश्लेषण करने की ज़रूरत होगी।