मणिपुर के आईने में भारतीय राष्ट्रवाद
लगभग तीन महीने से जातीय हिंसा में झुलस रहे मणिपुर में महिलाओं के साथ बर्बरता का एक वीडियो देख पूरा देश सन्न रह गया। जिन महिलाओं को निर्वस्त्र करके घुमाया गया, उनमें एक महिला फौजी की पत्नी हैं जिसने कारगिल में युद्ध लड़ा था। मणिपुर के मुख्यमंत्री ने कहा कि “ऐसी सैकड़ों घटनाएँ हुई हैं।“
मणिपुर में जारी हिंसा में लगभग 155 लोग मारे जा चुके हैं। क़रीब 60,000 लोग बेघर हो गए हैं। 5000 से ज्यादा आगजनी की घटनाएँ हुई हैं। राज्य भर में थाने लूटे गए हैं। हजारों की संख्या में हथियार और लाखों कारतूस संघर्षरत समुदायों के हाथ में पहुंच चुके हैं। अब इस आग की लपटें मिज़ोरम तक पहुँचने लगी हैं।
इतने संवेदनशील हालात के बाद भी केंद्र और राज्य सरकारों का रवैया घोर निराशाजनक है। जब वह भयावह वीडियो वायरल हुआ तो प्रधानमंत्री ने चुप्पी तोड़ी, लेकिन अब भाजपा तीन महीने से जल रहे मणिपुर के मुद्दे को सभी राज्यों में महिलाओं के खिलाफ अपराध से ढंकने की कोशिश कर रही है। भाजपा की नीतियों का नतीजा है कि पूर्वोत्तर भारत में विभाजन और अस्थिरता का ख़तरा पैदा हो गया है। ज़्यादा चिंता की बात है कि कुकी और मैतेई समुदायों द्वारा अपनी-अपनी आर्मी और बंकर बनाना मगर यह सिलसिला अब इन्हीं दो समुदायों तक सीमित नहीं रहा गया है।
दुर्भाग्य से ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मणिपुर में अब कोई “बीच का रास्ता” रह ही नहीं गया है। विभिन्न समुदाय अपने रुख़ को ज्यादा से ज्यादा कट्टर बनाते जा रहे हैं। हालात इतने ख़राब हैं कि भारत के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री मणिपुर पर बात करने से बच रहे हैं। नागरिक समाज का विलोप हो चुका है और दो संघर्षरत समुदायों के बीच बातचीत-समझौते के लिए अनिवार्य नैतिक प्रतिष्ठा राजनीतिक दल खो चुके हैं। इस संदर्भ में राहुल गांधी का मणिपुर दौरा न सिर्फ महत्वपूर्ण है बल्कि बिना किसी पक्षपात के सभी समुदायों के घावों पर मलहम लगाने का एक गम्भीर और विनम्र प्रयास है।
राष्ट्रवाद एक दोधारी तलवार है। यह लोगों को जोड़ सकती है तो वहीं लोगों में बँटवारा भी पैदा कर सकती है। अपने स्वस्थ रूप में यह जनसमूहों के लिए अपार ख़ुशी, सृजनात्मकता, उन्नति, भरपूर आजादी और नई जान फूंकने का बायस बन सकती है तो अपने विकृत-संकुचित रूप में यह उत्पीड़न, विभाजन, हिंसा और तानाशाही को अंजाम दे सकती है। संकुचित राष्ट्रवाद को हमेशा एक ऐसे दुश्मन की ज़रूरत होती है जिससे नफरत की जा सके – चाहे वह एक देश हो, कोई धर्म हो या कुछ और।
लगभग डेढ़ सौ साल के सफर में राष्ट्रवाद एक सशक्त राजनीतिक भावना के रूप में सामने आया है, चूँकि यह एक नाज़ुक चीज है, इसे बड़ी आसानी से भाषाई, सांस्कृतिक और धार्मिक अस्मिताएँ अपने हिसाब से अपना लेती हैं।
20वीं सदी की शुरुआत में बाल गंगाधर तिलक ने लिखा “भारतीय राष्ट्रवाद हाल में ही पैदा हुई एक ताक़त है और हमारे सामने ही इसने खुद को एक सार्वभौमिक मिशन की सोच में तब्दील कर लिया है गोया वह नियति पर विजय पाने जा रही है।“
भारत एक महादेश है। यह अपने अंदर पूर्वोत्तर से लेकर सुदूर दक्षिण तक राजनीतिक, भाषाई, सांस्कृतिक और धार्मिक अस्मिता की भावनाएं समेटे है। ये भावनाएं किसी समुदाय की पहचान, भाषा, धार्मिकता या संस्कृति से जुड़ी हो सकती हैं। इनकी अभिव्यक्ति अपने-अपने तरीके से होती है। कभी संगठन बनाकर, कभी अलग झंडों के जरिये या कभी सत्ता और संपत्तियों में सुरक्षित, उचित भागीदारी पाकर। ये अस्मिताएं मिलकर अखिल भारतीय अस्मिता के साथ जुड़ती हैं। इन्हीं पहचानों, अभिव्यक्तिओं से या कहें कि इन्हीं तमाम स्थानीय अस्मिताओं, उप-राष्ट्रीयताओं से मिलकर अखिल भारतीय राष्ट्रीयता बनती है। भारत राष्ट्र का काम है इन सभी स्थानीय राष्ट्रीयताओं को भारतीय राष्ट्रवाद की बड़ी छतरी के नीचे लाना और उन्हें यह भरोसा देना कि हम सब मिलकर एक हैं।
यह एक नाज़ुक काम है। इसमें दूरंदेशी, उदारता, गहरी समझ और बड़े भविष्य का खाका बनाने की क्षमता होनी चाहिए। यह चलताऊ तौर से नहीं किया जा सकता है। इसे चुनावी लाभ या आर्थिक लाभ मात्र के दृष्टिकोण से किया जाना घातक हो सकता है। यहाँ समझने की ज़रूरत है कि राजनीतिक विचारधाराएँ विभिन्न भारतीय अस्मिताओं को किस नज़रिए से देखती हैं। हजारों वर्षों की सघन सामाजिक प्रक्रिया में पैदा हुई इन भारतीय अस्मिताओं को यदि चुनावी फायदे के लिए एक ज़रिया, एक औज़ार, ‘टूल’ मानकर राजनीतिक दल या सरकारें चलेंगी तो समय स्थान बदलने पर भी परिणाम वही आएगा जो आज मणिपुर में दिख रहा है।
चुनावी लाभ और सत्ता के लिए भाजपा-आरएसएस ने हमेशा से भारतीय राष्ट्रवाद के समावेशी, बहुरंगी और बहुलतावादी महासागर को एक संकुचित रूप में दिखाने की कोशिश की है। बीजेपी ने भारतीय राष्ट्रवाद को नकारते हुए अपना संकीर्ण राजनीतिक नज़रिया आगे बढ़ाया है जिसे वो चालाकी से हिंदू राष्ट्रवाद कहते हैं। इसी तरह की दूसरी कोशिश का दूसरा प्रोडक्ट इस्लामी राष्ट्रवाद है। 2014 से सत्ता में आने के बाद भाजपा आक्रामक ढंग से इस प्रयोग में उतर गई।
राज्यों के स्तर पर मौजूद विभिन्न अस्मिता समूहों के बीच अंतर और दूरी को एक औजार की तरह इस्तेमाल किया गया। ‘हिंदू-गैर हिंदू’ की तर्ज पर मणिपुर में भी यही “भीतरी (मैतेई) बनाम बाहरी (कुकी)” का विमर्श भाजपा-आरएसएस ने चलाया। फिर यह आग फैलती चली गई।
सत्य यह है कि महान विविधताओं से भरे हमारे भारत देश, जहां संस्कृति, परंपरा और विभिन्न एथनिक समुदाय आपस में, एक दूसरे में गड्डमड्ड हैं, को आरएसएस के ‘हिंदू-गैर हिंदू’ नज़रिए से देखने का परिणाम यही होगा कि अन्य अस्मिताएँ ऐसे ही सरलीकृत ढंग से इसे आज़माने लगेंगी। ज़ाहिराना भाजपा देश के अंदर मौजूद स्थानीय अस्मिताओं और उप राष्ट्रीयताओं को सुरक्षा और अपनेपन का भाव देने में असफल हो गई और इसका भारतीय समाज के हर एक समुदाय पर दूरगामी असर पड़ा है। सबसे बड़ी बात भाजपानीत केंद्र सरकार की इस बदली हुई भूमिका, संकीर्ण और आक्रामक राष्ट्रवाद के चलते तमाम छोटी-छोटी एथनिक, सांस्कृतिक, धार्मिक अस्मिताएँ मजबूर होकर अपनी-अपनी पहचानों को लेकर और कट्टर हो गईं और किसी अनहोनी के लिए अपने को तैयार करने लगीं।
मणिपुर का मौजूदा हाल बताता है कि चुनावी स्वार्थवश किसी भी वर्ग/धर्म/क़ौम विशेष के खिलाफ चलाया गया कोई भी राजनीतिक अभियान अंत में भस्मासुर ही बनता है क्योंकि धीरे-धीरे यह संकीर्ण नज़रिया ही आपकी सोच बन जाता है।
पिछले कुछ सालों से भारत के संघीय ढांचे पर लगातार हमला हो रहा है। धर्म, भाषा और संस्कृति के आधार पर राज्य प्रायोजित विभाजन और हमले किए जा रहे हैं। मणिपुर, भारत के संघीय ढांचे पर हो रहे हमले का पहला पीड़ित है। गौरतलब है कि पूर्वी भारत में ही वंदे मातरम और जन गण मन की रचना हुई। पूर्वी भारत से नवजागरण की शुरुआत हुई। पूर्वी भारत ही हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का प्रमुख केंद्र बना। जिस पूर्वी भारत से भारतीय राष्ट्रवाद का उदय हुआ था, आज उसी पूर्वी भारत में उसे चुनौती मिल रही है। भारतीय राष्ट्रवाद आज वाक़ई इतिहास के सबसे बड़े संकट का सामना कर रहा है।
(लेखक जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष रहे और कांग्रेस से जुड़े हैं।)