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मणिपुरः  भारत के स्वप्न की हत्या ! 

मणिपुरः  भारत के स्वप्न की हत्या ! 

भारत बहुसंस्कृति वाला देश है। हमारा संविधान भी इसकी पुष्टि करता है। यानी हमारे नेताओं ने ऐसे भारत का सपना देखा था, जहां हर मजहब, जाति, समुदाय के लोग मिलजुल कर रहेंगे लेकिन स्तंभकार अपूर्वानंद कहते हैं कि उस ख्वाब की ताबीर को मणिपुर में कुचल दिया गया है। 

क्या आपको तौनसिंग हांगसिन, मीना हांगसिंग और लीदिया लौरेम्बान के नाम याद हैं? ये मणिपुरी नाम हैं लेकिन सिर्फ़ मणिपुरी नहीं। और हम इन्हें नहीं जानते या इनके बारे में भारत के किसी राजनीतिक दल का बयान नहीं आया या कोई लेख  नहीं लिखा गया, इससे मालूम होता है कि पिछले 8- 10 दिन से मणिपुर को लेकर जो राष्ट्रीय क्षोभ उमड़ रहा है, वह मणिपुर की हिंसा को उसके सही नाम से पुकारना नहीं चाहता।

कुकी औरतों पर भीड़ द्वारा यौन हिंसा करते हुए परेड कराने के वीडियो आने के बाद भारत के लिए उस हिंसा से आँख मोड़ना असंभव हो गया जो कोई तीन महीने से मणिपुर में चल रही है। लेकिन अगर हम हिंसा के प्रति गंभीर होते तो इसके बहुत पहले ही हमें सावधान हो जाना चाहिए था। यौन हिंसा के वीडियो आने के बाद हमारे लिए हिंसा का विरोध करना आसान हो गया। लेकिन इसके डेढ़ महीना पहले, 4 जून को पश्चिम इंफ़ाल की एक खबर से हमें सचेत हो जाना चाहिए था।

वह खबर भी 3 दिन देर से ‘राष्ट्रीय’ मीडिया ने दी।7 साल के तौनसिंग हांगसिन, उसकी माँ मीना हांगसिंग और उनकी पड़ोसी लीडिया लौरेम्बान को मैतेयी भीड़ ने उस एम्बुलेंस में जलाकर मार डाला जिसमें तौनसिंग को इलाज के लिए क़रीब के हस्पताल ले जाया जा रहा था। एंबुलेंस मैतेयी औरतों के समूह मीरा पाइबी ने रोकी थी और उसमें बच्चे, माँ और उनकी साथी को मार डालने के लिए भी उन्होंने ही पहल की थी।

इस बात से मीरा पाइबी औरतों को फर्क नहीं पड़ा कि मीना और लीदिया मैतेयी थीं। यह बात उन्हें मार डालने के लिए काफी थी कि वे कुकी इलाक़े से आ रही थीं। मीना का पति कुकी था, यह बात मीना को मार डालने का एक और कारण था।

बच्चा घायल था।वह असम राइफ़ल के कैम्प में था और ऑक्सीजन के सहारे ज़िंदा था। लेकिन उसे बचाने के लिए अधिक साधनवाले हस्पताल में ले जाना ज़रूरी था। वह मैतेयी मोहल्ले में था। इसलिए परिवार ने तय किया कि माँ और उनकी पड़ोसी लीदिया बच्चे के साथ जाएँ। उनके मैतेयी होने के कारण मैतेयी रास्ता दे देंगे, बच्चे के पिता का साथ जाना ख़तरनाक हो सकता है, यह सोचकर कुकी पिता और मैतेयी माँ के बच्चे की मैतेयी माँ और उनकी मैतेयी पड़ोसी ने एंबुलेंस में जाने को सोची।

मैतेयी मीरा पाइबी औरतें लेकिन माँ की मैतेयी पहचान से पिघलनेवाली न थीं। उनके लिए यह काफी था कि बच्चा एक कुकी पिता का था। ड्राइवर और नर्स को एंबुलेंस से निकालकर उसे बच्चे, माँ और उनकी साथी के साथ मार डाला गया।

यह खबर दिल दहला देनेवाली थी लेकिन भारत में एक पत्ता भी नहीं काँपा। इस सूचना में एक भयानक संकेत था लेकिन हमने उसे नज़रअंदाज़ कर दिया। तौनसिंग हांगसिंग ही तो वह भारतीय था जो होने का सपना हम देखते हैं। दो पहचानों का मिश्रण, दो संस्कृतियों का संगम। भारत को यही तो होना है।लेकिन तौनसिंग की हत्या कर दी गई। मैतेयी औरतों को क़बूल न था कि एक मैतेयी माँ किसी कुकी पहचान की आश्रय बने। इसकी सजा तौनसिंग की मैतेयी माँ मीना को दी गई। और लीदिया को मैतेयी होने के बावजूद कुकी का साथ देने का दंड दिया गया।

हमने यह भी नहीं पूछा कि एंबुलेंस तक को, जिसे युद्ध में भी जाने दिया जाता है, जला देनेवाली हिंसा कितनी गहरी है और उसे मात्र किसी क्रिया की प्रतिक्रिया नहीं कहा जा सकता।

असम राइफ़ल के जवान एंबुलेंस के साथ वहाँ तक गए जहां मीरा पाइबी औरतों ने उन्हें रोक नहीं दिया। वे एंबुलेंस, बच्चे, माँ और उनकी साथी को बचा नहीं पाए। क्या उन्होंने इसके लिए अपनी आख़िरी कोशिश कर ली थी? क्या एक घायल बच्चे और उसकी माँ को भीड़ की हिंसा से बचाना की उनका कर्तव्य न था? उन्होंने अपने कर्तव्य से मुँह क्यों मोड़ा? 

असम राइफ़ल के लिए यह अवसर था कि वह दिखला पाती कि राजकीय हिंसा का इस्तेमाल कब और कहाँ ज़रूरी और जायज़ होता है। लेकिन जिस वक्त हिम्मत दिखलानी थी, असम राइफ़ल ने उस वक्त निराश किया। हिंसा पर उतारू भीड़ पर गोली चलाना तो दूर उसने हवा में भी गोली नहीं चलाई। उसने तौनसिंग, मीना और लीदिया की हत्या होने दी। तो क्या वह भीड़ ही ज़िम्मेवार है उनकी हत्या के लिए या असम राइफ़ल और मणिपुर पुलिस के जवान भी जिन्होंने बावजूद हथियारों के यह होने दिया। क्या इस हत्या के लिए मीरा पाइबी को ज़िम्मेवार ठहराया जा सकेगा? क्या उन औरतों पर मुक़दमा चलाया जा सकेगा जिन्होंने इस सामूहिक  हत्याकांड में भाग लिया?

तौनसिंग, मीना और लीदिया की हत्या मणिपुर के लिए, मणिपुर के मैतेयी समाज के लिए, मणिपुर की सरकार के लिए  शर्म की बात है। भारत के लिए भी। लेकिन यह नहीं लगता कि इनमें से किसी को लज्जा का अनुभव होगा। मैतेयी समाज के किसी प्रतिनिधि, किसी राजनेता, किसी बुद्धिजीवी ने अफ़सोस, पश्चाताप व्यक्त नहीं किया है।  

भारत के किसी राजनीतिक दल के प्रतिनिधि ने तौनसिंग के परिवार से मुलाक़ात नहीं की है। भारत की संसद में उनके लिए एक भी शब्द नहीं कहा गया है।क्यों इस हत्या के अर्थ या महत्त्व को नहीं समझा गया है?  क्यों हम यह नहीं देख पाए कि एक कुकी पिता और एक मैतेयी माँ के बच्चे की हत्या वास्तव में भारत के स्वप्न की ही हत्या है?  

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