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बंगाल चुनाव में ममता बनर्जी का ‘बंगाल की बेटी’ कार्ड

बंगाल चुनाव में ममता बनर्जी का ‘बंगाल की बेटी’ कार्ड

पश्चिम बंगाल चुनाव में जय श्री राम के मुक़ाबले जय माँ दुर्गा का नारा बुलंद करने के बाद ममता बनर्जी ने तुरूप का एक और पत्ता फेंका है। उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस का नया नारा है ‘बंगाल माँगे बंगाल की बेटी’। 

पश्चिम बंगाल चुनाव में जय श्री राम के मुक़ाबले जय माँ दुर्गा का नारा बुलंद करने के बाद ममता बनर्जी ने तुरूप का एक और पत्ता फेंका है। उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस का नया नारा है ‘बंगाल माँगे बंगाल की बेटी’। ज़ाहिर सी बात है कि ममता बनर्जी अब चुनाव प्रचार को भावनात्मक मोड़ देना चाहती हैं। उनकी पार्टी अब बीजेपी को एक बाहरी पार्टी और ख़ुद को बंगाली स्वाभिमान का प्रतीक साबित करने की कोशिश कर रही है।

पहली बार ऐसा लग रहा है कि बंगाल में विधान सभा चुनाव किसी आर्थिक या सामाजिक मुद्दे पर नहीं होगा। मई में होने वाले चुनाव पर धार्मिक और भावनात्मक मुद्दे छाए रहेंगे। कुछ समय पहले जब बीजेपी ने जय श्री राम का उद्घोष किया तो ममता ने उसके मुक़ाबले जय दुर्गा की हुंकार शुरू कर दी। बीजेपी के सामने तब एक बड़ी चुनौती आ गयी क्योंकि राम और दुर्गा दोनों ही हिंदू देवता हैं। 

बीजेपी ने बंगाल में जय श्री राम का नारा इस उम्मीद में दी थी कि मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंदू मतदाता एकजुट हो जाएँगे। लेकिन ममता बनर्जी ने बड़ी चालाकी से राम के सामने दुर्गा को खड़ा कर दिया। बंगाली हिंदू की सबसे बड़ी देवता दुर्गा और काली हैं। ममता इसे बंगाली अस्मिता और सम्मान से जोड़ने की कोशिश कर रही हैं। इसलिए जय श्री राम के नारे का प्रभाव अब उन इलाक़ों में सिमटा हुआ लग रहा है जिन इलाक़ों में ग़ैर बंगाली आबादी अच्छी संख्या में हैं। 

बंगाल की राजनीति को क़रीब से समझने वाले लोगों का कहना है कि बीजेपी के रणनीतिकार समझ गए हैं कि सिर्फ़ राम के नाम से काम नहीं चलेगा। इसलिए इस समय बीजेपी का सारा ध्यान ममता बनर्जी के कैडर को तोड़ने पर लग गया है। दो तीन महीने पहले जब ममता की तृणमूल कांग्रेस से विधायकों और बड़े नेताओं ने बीजेपी की तरफ़ खिसकना शुरू किया तब लग रहा था कि बीजेपी आसानी से जीत जाएगी।

लेकिन ममता जबसे चुनाव अभियान में उतरी हैं तब से माहौल बदलने लगा है। तृणमूल से कई बड़े नेताओं को तोड़ने के बाद भी बंगाल में बीजेपी के पास ममता जैसा कोई बड़ा चेहरा नहीं है। बंगाल में बीजेपी के स्टार प्रचारक गृह मंत्री अमित शाह हैं। बाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी जुटेंगे। इसी को आधार बनाकर ममता स्थानीय बनाम बाहरी और बंगाल की बेटी को मुद्दा बनाने की कोशिश कर रही हैं। 

कांग्रेस और वाम मोर्चा से भी होगा मुक़ाबला

इस चुनाव में ममता तीन तरफ़ से घिरी हुई दिखाई दे रही हैं। एक तरफ़ उनके पुराने विरोधी वाम मोर्चा और कांग्रेस का गठजोड़ है तो दूसरी तरफ़ बीजेपी खड़ी हो गयी है। तीसरी तरफ़ असदउद्दीन ओवैसी और ताज़ा-ताज़ा बनी छोटी पार्टियों के नेता हैं जो उनके पारंपरिक आधार को तोड़ने की कोशिश करेंगे। राजनीतिक तौर पर ममता के लिए यह चुनाव पिछले दो चुनावों की तरह आसान नहीं लग रहा है। 2011 का चुनाव वो सिंगुर और नंदीग्राम के किसान संघर्ष के बूते पर जीत गयीं। 

2016 में सीपीएम और वामपंथियों के साथ-साथ कांग्रेस भी पस्त पड़ी थी। बीजेपी तब बहुत कमज़ोर थी। लेकिन अब बीजेपी एक बड़ी ताक़त बन चुकी है। और वाम दल तथा कांग्रेस पहले से ज़्यादा संभले हुए दिखाई दे रहे हैं।

दस सालों के शासन के बाद मतदाताओं में ममता से मोहभंग की स्थिति भी दिखाई दे रही है। ममता के कैडर का बड़ा हिस्सा कांग्रेस और वाम दलों से ही आया था। यही कैडर अब बीजेपी में जा रहा है। वाम दलों और कांग्रेस में घर वापसी भी हो रही है। असल में ये ऐसा कैडर है जो लंबे समय से सत्ता के साथ रहने और छोटे-छोटे फ़ायदे उठाने का आदी हो चुका है। सत्ता जिधर खिसकती हुई दिखाई देती है ये उधर ही खिसकने लगते हैं। 

मुसलिम वोट पर किसका दावा?

इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस समय बंगाल के क़रीब 30 प्रतिशत मुसलिम मतदाता ममता के सबसे मज़बूत आधार हैं। राज्य के कई ज़िले मुस्लिम बहुल हैं। इन्हीं मतदाताओं पर ओवैसी जैसे नेताओं की नज़र है। लेकिन बंगाली मुसलमान ख़ुद को हिंदी पट्टी और अन्य भाषाओं के मुसलमानों से अलग करके देखता है। राजनीतिक समीक्षकों का मानना है कि ओवैसी को मालदा और दिनाजपुर जैसे इलाक़ों में थोड़ी सफलता मिल सकती है। जिन इलाक़ों में ग़ैर बंगाली मुसलमान हैं उन्हीं इलाक़ों में ओवैसी का समर्थन है। लेकिन वोट भी उनकी पार्टी को मिलेगा इसकी कोई गारंटी नहीं है। 

ओवैसी का विरोध कई स्थानीय मुसलिम संगठन कर रहे हैं। इनमें से ही एक हैं अब्बास सिद्दीक़ी जो मुसलमानों के एक धार्मिक ग्रुप के नेता भी हैं। हाल में उन्होंने एक नयी पार्टी बनायी और चुनाव लड़ने की घोषणा भी कर दी है। वाम दल और कांग्रेस के मोर्चा के साथ चुनाव लड़ने पर उनकी सहमति भी बन गयी है। लेकिन चर्चा है कि वो 75 से ज़्यादा सीटों की माँग कर रहे हैं। इसलिए समझौते का अंत क्या होगा ये कहना मुश्किल है। बहरहाल वो नदिया, दक्षिण 24 परगना और हुगली जैसे कुछ ज़िलों में ममता का नुक़सान कर सकते हैं। 

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बंगाल के मुसलमान केंद्र सरकार के नगरिकता क़ानून को लेकर भी आशंकित हैं। बीजेपी में अक्सर बांग्ला देशी मुसलमानों को बाहर करने की आवाज़ उठती रहती है। ज़ाहिर है कि बंगाली मुसलमानों को लगता है कि वो बीजेपी के निशाने पर हैं। यह डर भी उन्हें ममता से जोड़े रखने का एक बड़ा कारण है।

तीन बंगाल : तीन रुझान 

राजनीतिक तौर पर बंगाल तीन हिस्सों में बँटा हुआ है। एक तरफ़ उत्तर बंगाल है जहाँ लोक सभा के पिछले चुनाव में बीजेपी की सुनामी दिखाई पड़ी। बीजेपी ने लोक सभा की जिन 18 सीटों पर जीत हासिल की उनमें से ज़्यादातर उत्तर बंगाल में ही है। इनमें दार्जिलिंग, सिलीगुड़ी और कूचबिहार जैसे इलाक़े आते हैं। दार्जिलिंग में गोरखा या नेपाली मूल के लोगों की बड़ी आबादी है। ये किसी दौर में अलग गोरखा राज्य के आंदोलन का गढ़ था। यहाँ बंगाल की मुख्य धारा की पार्टियों का लगातार विरोध होता रहता है। कूचबिहार बांग्लादेश की सीमा से लगता है। 

बांग्लादेशियों के अवैध घुसपैठ का एक रास्ता यह भी है। इसलिए बीजेपी को आसानी से जमने का रास्ता मिल गया। लोकसभा चुनावों के नतीजों से परेशान ममता ने इस इलाक़े पर ध्यान देकर अपनी जड़ों को बचाने की कोशिश काफ़ी पहले शुरू कर दी थी।

राजनीतिक पंडितों का मानना है कि विधानसभा चुनाव बीजेपी के लिए लोकसभा की तरह आसान नहीं होगा। दूसरा हिस्सा दक्षिण बंगाल है जिसमें कोलकाता, 24 परगना, मेदिनीपुर, बाँकुरा और वर्दमान जैसे इलाक़े हैं। यहाँ ममता का दबदबा तोड़ना आसान नहीं होगा। 

तीसरा हिस्सा राड़ बंगाल है। ये झारखंड से लगा हुआ इलाक़ा है। जंगल महल जैसे आदिवासी इलाक़े इसी हिस्से में आते हैं। आदिवासियों के बीच आरएसएस लंबे समय से काम कर रहा है। बीजेपी को यहाँ से काफ़ी उम्मीद है। इस इलाक़े में मतुआ जाति की भी अच्छी आबादी है। इनमें से ज़्यादातर बांग्लादेश से आए हैं और अनुसूचित जाति के हिंदू हैं। ये देश विभाजन के बाद 1947 से 1971 के युद्ध के समय भारत आए लेकिन अब भी बहुतों को नागरिकता नहीं मिली है। नागरिकता मिलने की उम्मीद में इन्होंने 2019 में बीजेपी का साथ दिया और अब भी बीजेपी के साथ खड़े दिखाई दे रहे हैं। 

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बीजेपी में नए -पुराने का झगड़ा

बीजेपी के सामने एक बड़ा संकट है पुराना बनाम नया का झगड़ा है। नए नेताओं के आने से पुराने कार्यकर्ता उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। आसनसोल के टीएमसी नेता जितेंद्र तिवारी को बीजेपी में शामिल किए जाने का सांसद बाबुल सुप्रियो, बीजेपी महिला विंग की अध्यक्ष अग्निमित्रा पॉल ने खुलकर विरोध किया। बीजेपी और आरएसएस के नाराज़ पुराने कार्यकर्ता घर बैठ गए हैं। 

एक समय पर आरएसएस से जुड़ कर काम करने वाले संगठन ‘हिंदू समहती’ के तापन घोष ने पार्टी बनाकर 175 क्षेत्रों में उम्मीदवार खड़ा करने की घोषणा कर दी है। यह संगठन बंगाली हिंदू के हित में काम करने की बात कर रहा। इससे हिंदू वोट बँटने का ख़तरा बढ़ गया है। अब तक बंगाल में मतदाता वाम दल, कांग्रेस और तृणमूल में बँटे हुए थे। बीजेपी के आने के बाद एक ऐसा वर्ग तैयार हो गया है जो इस समय किसी के साथ दिखाई नहीं दे रहा है। वो बीजेपी या वाम- कांग्रेस गठबंधन के साथ नहीं जाना चाहते। तृणमूल से भी नाराज़ हैं। ऐसे हासिये पर बैठे मतदाताओं को बीजेपी और तृणमूल दोनों अपनी ओर खींचने की कोशिश कर रहे हैं। बीजेपी के लिए एक मुसीबत एलजे, पीएनसीपी और जेडी(यू) भी बन सकते हैं। तीनों पार्टियाँ चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही हैं। ज़ाहिर है कि ये हिंदी भाषी वोटर को बाँटेंगे जिन पर बीजेपी को भरोसा है। 

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भ्रष्टाचार भी है मुद्दा

ममता से लोगों के मोहभंग का एक बड़ा कारण निचले स्तर पर व्यापक भ्रष्टाचार है। बंगाल में अब यह कहावत बन गयी है कि कट मनी यानी घूस दिए बिना कोई काम नहीं हो सकता है। इस आरोप से बाहर निकलने में ममता का एक कार्यक्रम बहुत सहायक हो रहा है। ये कार्यक्रम है ‘द्वारे सरकार’, जिसका मतलब है आपके दरवाज़े पर सरकार। टीएमसी के नेता और कार्यकर्ता गाँवों में कैंप लगा रहे हैं। वहीं लोगों से उनकी समस्या पूछी जाती है और सरकारी कर्मचारियों की मदद से तुरंत उसका समाधान कर दिया जाता है। इस तरह की पहल से भी टीएमसी की छवि थोड़ी सुधरी है। गृह मंत्री अमित शाह अब चुनावी रैलियों में कट मनी को बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश कर रहे हैं। ममता ने बूथ लेवल के कार्यकर्ताओं के साथ बैठक करके ज़मीनी स्तर पर पार्टी का मनोबल बढ़ाने की कोशिश शुरू कर दी है। 

ममता सरकार लंबे समय से खेल और सांस्कृतिक क्लबों के ज़रिए गाँव गाँव में पैसा भेज रही है। टीएमसी को इन समूहों से काफ़ी उम्मीद है।

क्या बहुतों के टिकट कटेंगे टीएमसी में

चर्चा है कि चुनाव क्षेत्रों के सर्वे के बाद चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर की टीम ने पुराने विधायकों को टिकट नहीं देने की सिफ़ारिश की है। पार्टी छोड़ने वाले नेताओं द्वारा प्रशांत किशोर के विरोध का यह एक बड़ा कारण है। लेकिन ममता की टीम इस पर काम कर रही है और बड़ी संख्या में पुराने विधायकों का टिकट काट कर नए लोगों को टिकट दिया जाए तो आश्चर्य की बात नहीं होगी। उम्मीद की जा रही है कि नए नेताओं के आगे आने से पार्टी की नयी छवि बन जाएगी और ममता को अपने भतीजे अभिषेक बनर्जी को स्थापित करने का मौक़ा भी मिल जाएगा। बीजेपी और ममता दोनों इस चुनाव को करो या मरो वाले अंदाज़ में लड़ रहे हैं।

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