केजरीवाल की राह पर चलकर ममता जीतने जा रही हैं बंगाल का चुनाव?
ममता बनर्जी ने जैसे ही खुद को ‘शांडिल्य’ गोत्र का बताते हुए अपना असली गोत्र मां, माटी, मानुष बताया, चुनावी फिजां की तपिश अचानक तेज हो गयी। गोत्र, जाति, धर्म की राजनीति करने वाले बेचैन हैं कि ममता बनर्जी क्या उनकी राह पकड़ रही हैं?
वे ममता बनर्जी पर अचानक आक्रामक भी हो गये हैं। वहीं ऐसी राजनीति के विरोधी रहे लोग ममता को ओर चौंकाने वाली नज़र से घूरते हुए सवाल दाग रहे हैं। कहने का अर्थ यह है कि ममता बनर्जी को दोनों ओर से सवालों का सामना करना पड़ रहा है।
मगर, क्या चुनाव प्रचार खत्म होने के बाद नंदीग्राम के संग्राम में ‘गोत्र’ क्या कोई भूमिका निभाने जा रहा है? ये सवाल चुनावी विश्लेषण में नये आयाम जोड़ रहे हैं।
शाह बनिया हो सकते हैं ममता शांडिल्य नहीं?
मार्के की बात यह है कि संकल्प पत्र जारी करते समय बीजेपी नेता और देश के गृह मंत्री अमित शाह ने पत्रकारों से कहा था कि वे यह न पूछने लगें कि संकल्पों को पूरा करने के लिए पैसे कहां से आएंगे क्योंकि ‘मैं बनिया हूं’। तब देशभर में कहीं यह बात राजनीतिक बहस का मुद्दा नहीं बनी। न किसी पत्रकार ने पलटकर कोई सवाल पूछा था।
ट्विटर हैंडल पर अपना नाम ‘शांडिल्य’ गिरिराज सिंह लिखने वाले से कभी किसी ने यह नहीं पूछा कि उन्हें अपनी पहचान गोत्र के तौर पर कराने की आवश्यकता क्यों पड़ी?
जाहिर है कि बीजेपी नेताओं के लिए यह मान लिया गया है कि उन्हें खुद को चाहे जब बनिया, हिन्दू, शांडिल्य कहकर प्रचारित होने का हक है। क्या यह हक ममता बनर्जी को नहीं होना चाहिए?
हिन्दू ममता के साथ?
ममता बनर्जी से ईर्ष्या भाव रख रहे बीजेपी के नेता यह कहकर इठलाते भी दिखते हैं कि आखिरकार ममता बनर्जी को बीजेपी की पिच पर बैटिंग करने को उतरना पड़ा। मगर, यह सोच भी एकतरफा है। पश्चिम बंगाल में विधानसभा की 294 में से 211 सीट जीत चुकी ममता बनर्जी से बड़ा दावा किसका हो सकता है कि हिन्दू उनके साथ हैं?
फिर भी ममता को अगर चुनावी मंच पर चंडीपाठ करने और अपना गोत्र बताने की आवश्यकता पड़ी है तो इसलिए क्योंकि उनके खिलाफ जबरदस्त झूठ और नफरत का प्रचार किया गया है। इस प्रचार का असर है कि कई प्रबुद्ध परिचित भी पूछ बैठते हैं, “आपको पता है कि ममता बनर्जी हिन्दू नहीं मुसलमान हैं?”
नहीं चाहकर भी उन्हें गलत कहने पर वे तमाम तरह के वाट्सएप सबूत रखने लग जाते हैं। कम से कम ऐसे लोगों को बताने-समझाने के लिए यह घड़ी आगे ज़रूर काम आएगी कि ममता बनर्जी न सिर्फ हिन्दू हैं बल्कि वे बंदोपाध्याय हैं और शांडिल्य भी।
बंगाल चुनाव पर देखिए चर्चा-
चुनावी फिजां बिगाड़ने वालों से सवाल हो
जिन्होंने यह फिजां बनायी कि चुनाव के दौरान जय श्री राम, या देवी सर्व भूतेषु, ‘बेगम’ ममता, चुनाव नतीजे हिन्दुस्तान में, पटाखे पाकिस्तान में आदि उदघोष हों उनसे तो कोई सवाल ही नहीं पूछ रहा है!
उस चुनाव आयोग से भी कोई सवाल नहीं पूछता जिसकी जिम्मेदारी है कि धर्म, जाति, नस्ल, भाषा और दूसरे सामुदायिक आधार पर वोट नहीं मांगे जाने को सुनिश्चित किया जाए। क्रिकेट के किसी मैच में अंपायर न हो तो दोनों पक्ष के खिलाड़ी आपस में लड़ेंगे ही और सही-गलत का फैसला अमूमन उनके ही पक्ष में होगा जो चीख सकते हों, गालियां दे सकते हों और दूसरों पर हावी हो सकते हों।
...‘पिछड़ा’ हो गये थे मोदी
गुजरात में 13 साल मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी ने हमेशा खुद को बनिया बताकर पेश किया लेकिन 2014 में लोकसभा चुनाव लड़ते हुए उन्होंने खुद को ‘पिछड़ा’ बताया और जमकर विक्टिम कार्ड खेला। जब यही काम गैर बीजेपी के लोग करते हैं तो बीजेपी बेचैन हो जाती है।
दिसंबर 2014 में हंगामा तब भी बरपा था जब अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा का चुनाव लड़ते हुए कहा था- “मैं बनिया हूं और धंधा समझता हूं।“
बुद्धिजीवी वर्ग निराश
बीजेपी बेचैन इसलिए हो गयी थी कि यह राजनीति में ‘नौसिखुए’ केजरीवाल की ‘रिवर्स स्विंग’ थी। वहीं देश की सेकुलर जमात होने का दावा करने वाला बुद्धिजीवी वर्ग इससे निराश हुआ था कि केजरीवाल भी रंग बदलने लगे हैं। केजरीवाल आगे भी नहीं चूके। हनुमान चालीसा पढ़ने से लेकर हनुमान मंदिर जाने तक के धार्मिक उपक्रमों को वैयक्तिक स्तर से बाहर सार्वजनिक किया। कहने की ज़रूरत नहीं कि इन सबका मकसद चुनाव में वोटरों को संदेश देना ही था कि हिन्दुओं की पार्टी होने का एकाधिकार अकेले बीजेपी को नहीं दिया जा सकता।
केजरीवाल ने दिखाया था रास्ता!
सच यह है कि ममता बनर्जी तो बस केजरीवाल के रास्ते पर कदम बढ़ा रही हैं। मतदान से पहले चुनाव प्रचार के आखिरी दौर में जैसे ही राष्ट्रगान की धुन बजती है, ममता टूटी टांग के साथ भी दूसरों के सहयोग से खड़ी हो जाती हैं। ‘देश के लिए टांग टूटने की परवाह नहीं’ वाला संदेश वह देती नज़र आती हैं। बीजेपी की एक महिला नेता ने टीवी डिबेट में इस दृश्य को देखकर प्रतिक्रिया दी कि ऐसा लगता है कि विक्टिम कार्ड खेलने के लिए ममता बनर्जी आने वाले समय में बैसाखी का सहारा लेकर चलने वाली हैं। कई बीजेपी नेताओं ने इस घटना को ‘नाटक’ का बेपर्दा होना भी बताया है।
अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के आरोपों के बीच बहुसंख्यक तुष्टिकरण के उदाहरण निश्चित रूप से चिंताजनक हैं। मगर, यह चिंता उन लोगों के लिए है जो वास्तव में देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र के लिए चिंतित रहते हैं। पश्चिम बंगाल के चुनाव में यह चिंता कमजोर दिख रही है।
जीत जाएंगी ममता?
बहुसंख्यक तुष्टिकरण को हथियार बना चुकी बीजेपी को लगता है कि उसके पास वाला हथियार किसी और के पास हो, तो वह बराबरी का युद्ध कैसे जीत पाएगी। इन्हीं चिंता और डर के बीच ममता बनर्जी की सियासत नया रंग और आकार लेती हुई दिखी है। मगर, यह ममता को अनुचित तरीकों से परास्त करने की कोशिशों का नतीजा है। वास्तव में केजरीवाल के बताए रास्ते ममता नंदीग्राम का संग्राम और पश्चिम बंगाल का चुनाव जीतने की ओर बढ़ रही हैं।
याद रहे ममता ने भी केजरीवाल की तरह कांग्रेस-लेफ्ट किसी से गठबंधन नहीं किया है और वह अकेले बीजेपी से आर-पार की लड़ाई लड़ रही हैं।