क्या प्रशांत किशोर बचा पाएँगे ममता का क़िला?
पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी के बढ़ते प्रभाव से परेशान ममता बनर्जी ने अगले विधानसभा चुनावों की तैयारियों के लिए प्रशांत किशोर की मदद लेने का फ़ैसला किया है। संसदीय चुनाव में राज्य की 42 में से 18 सीटें बीजेपी की झोली में जाने से बौखलाई तृणमूल प्रमुख ने उसे रोकने के लिए नई रणनीति पर काम करने का निर्णय लिया है। लेकिन सवाल यह उठता है कि चुनावी रणनीतिकार पश्चिम बंगाल की राजनीति को कितना समझते हैं और वह कितने कारगर होंगे। यह भी बेहद दिलचस्प बात है कि 2014 के चुनाव में प्रशांत किशोर ने जिस बीजेपी को दिल्ली की सत्ता पर काबिज होने में मदद की, अब वह उसे ही पश्चिम बंगाल में रोकने की रणनीति बनाएँगे।
गुरुवार को किशोर ने कोलकाता में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मुलाक़ात की। उनके बीच की बैठक तक़रीबन दो घंटे तक चली। हालाँकि कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है, पर समझा जाता है कि किशोर अगले विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस की मदद करने के लिए तैयार हो गए हैं।
उपेक्षित हैं रणनीतिकार
प्रशांत किशोर फ़िलहाल जनता दल यूनाइटेड में हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उन्हें पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया और इस बात की खूब चर्चा हुई कि वह अब उस पार्टी में नंबर दो की हैसियत रखते हैं। पर समझा जाता है कि वहाँ उन्हें खुल कर काम नहीं करने दिया जा रहा है। पार्टी के अंदर एक लॉबी है जो उन्हें नापसंद करती है। यह भी समझा जाता है कि बीजेपी ने जनता दल यूनाइटेड पर दबाव बना रखा है कि प्रशांत किशोर को ज़्यादा तरजीह नहीं दी जाए। साल 2014 के चुनाव के बाद बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह से किशोर की खटक गई थी। शायद उसका ही असर है कि किशोर जनता दल यूनाइटेड में उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। उनके पास पार्टी के अंदर बहुत काम नहीं है। वह इससे बाहर निकलना चाहते हैं।राजनीति में किशोर की चाहे जो स्थिति हो, चुनाव रणनीति में वह अभी भी बेजोड़ हैं। उनकी कामयाबी की ताजा मिशाल आंध्र प्रदेश है। वहाँ उन्होंने वाईएसआर कांग्रेस की मदद की। वाईएसआर कांग्रेस ने 175 में से 150 सीटें जीत लीं और काफ़ी समय से जमी हुई तेलुगु देशम पार्टी को उखाड़ फेंका। जगनमोहन राज्य के नए मुख्यमंत्री बन गए।
लेकिन प्रशांत किशोर के साथ दूसरी दिक्क़तें भी आएँगी, यह साफ़ है। तृणमूल कांग्रेस अभी भी पारंपरिक राजनीतिक दल है, जहाँ लीक से हट कर सोचने वाले कम हैं। वे क़द्दावर नेता भी हैं। वे यह कतई नहीं चाहेंगे कि कोई उन पर हुक़्म चलाए, पार्टी से बाहर का आदमी रणनीति बनाए और उन्हें उनकी बात माननी पड़े। वे किशोर की राह में रोड़े अटकाएँ, इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है।
ममता बनर्जी का अपना स्वभाव और उनकी कार्यशैली भी प्रशांत किशोर को नागवार गुजरेंगी, ऐसा समझा जाता है। ममता बनर्जी के बारे में कहा जाता है कि वह बेहद तुनकमिजाजी, गुस्सैल और जिद्दी हैं। वह अपनी करती हैं और किसी की नहीं सुनती हैं। पार्टी में किसी से उनकी नहीं बनती है। ऐसे में वह प्रशांत किशोर को कामकाज में कितनी छूट देंगी, उनकी बातें कितना सुनेंगी, यह सवाल उठता है। ख़ैर, ममता बनर्जी को अभी किसी ऐसे पेशेवर रणनीतिकार की ज़रूरत है जो उनकी डूबती नैया की पतवार संभाल सके और बीजेपी के तूफ़ान को रोकने का उपाय बता सके। फ़िलहाल देश में प्रशांत किशोर से बड़ा कोई रणनीतिकार नहीं है। यह देखना दिलचस्प होगा कि यह जोड़ी कितने दिन चलेगी और इसका क्या नतीजा होगा।