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बंगाल में राज्यपाल क्या बीजेपी के इशारे पर ममता को तंग कर रहे हैं? 

बंगाल में राज्यपाल क्या बीजेपी के इशारे पर ममता को तंग कर रहे हैं? 

ममता ने अपने 9 पेज के जवाबी पत्र में राज्यपाल पर राजनीतिक पार्टी के एजेंट के तौर पर काम करने का आरोप लगाते हुए उनको संविधान के दायरे में रहने की नसीहत दी है। उसके बाद राज्यपाल ने भी ममता के पत्र का बिंदुवार जवाब दिया है।

पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी में एक बार फिर ठन गई है। वैसे, तो बीते साल कार्यभार संभालने के बाद से ही इन दोनों नेताओं में छत्तीस का आँकड़ा रहा है। बीच में एकाध बार उनमें सुलह के आसार ज़रूर नज़र आए थे। लेकिन वह क्षणभंगुर ही रही थी। अब ताजा विवाद राज्यपाल के उस पत्र को लेकर शुरू हुआ है जो उन्होंने क़ानून व व्यवस्था के मुद्दे पर पुलिस महानिदेशक वीरेंद्र को भेजा था।

लेकिन उस पत्र का जवाब ममता ने राज्यपाल को दिया है। ममता ने अपने 9 पेज के जवाबी पत्र में राज्यपाल पर राजनीतिक पार्टी के एजेंट के तौर पर काम करने का आरोप लगाते हुए उनको संविधान के दायरे में रहने की नसीहत दी

है। उसके बाद राज्यपाल ने भी ममता के पत्र का बिंदुवार जवाब दिया है।

ममता ने अपने पत्र में लिखा है, 

'मैं आपके पत्र और पुलिस महानिदेशक को संबोधित टिप्पणी को पढ़ने के बाद बेहद उदास और दुखी हुई, जिसे मेरे समक्ष प्रस्तुत किया गया था। साथ ही साथ इस बारे में आपके ट्विटर पोस्ट को देखकर भी दुख हुआ।'


ममता बनर्जी, मुख्यमंत्री, पश्चिम बंगाल

क़ानून व्यवस्था पर चिंता!

दरअसल, इस महीने की शुरुआत में पुलिस महानिदेशक वीरेंद्र को लिखे पत्र में धनखड़ ने राज्य की क़ानून व्यवस्था को लेकर चिंता जाहिर की थी। इस पर महानिदेशक की ओर से दो लाइन का जवाब दिए जाने के बाद धनखड़ ने उनको 26 सितंबर तक मुलाक़ात करने और क़ानून-व्यवस्था में सुधार के लिए उठाए गए कदमों का ब्योरा देने को कहा था। लेकिन महानिदेशक की बजाय उस पत्र का जवाब 26 को ममता ने भेजा।

अब तक शायद ही कोई दिन ऐसा गुजरा है जब राज्यपाल ने अपने ट्वीट के जरिए सरकार, पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों को कठघरे में नहीं खड़ा किया हो।

वह चाहे कोरोना का मुद्दा हो, राशन वितरण का या फिर अंफान महामारी के बाद राहत और बचाव कार्यों का, राज्यपाल लगातार सरकार पर हमले करते रहे हैं।

शुरू से टकराव

धनखड़ ने राज्यपाल बनने के बाद अब तक जितनी सुर्खियाँ बटोरी हैं, उतनी शायद उन्होंने अपने पूरे राजनीतिक करियर में नहीं बटोरी हों। वैसे पिछले राज्यपाल केसरी नाथ त्रिपाठी के कार्यकाल के आख़िरी दिनों में भी सरकार के साथ उनके रिश्ते काफी तल्ख़ हो गए थे। लेकिन नए राज्यपाल के साथ तो उनके शपथ लेने के महीने भर बाद से ही टकराव शुरू हो गया था। 

धनखड़ ने बीते साल 30 जुलाई को राज्यपाल के तौर पर शपथ ली थी। उस शपथ ग्रहण समारोह में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और राज्यपाल के बीच काफी सद्भाव नजर आया था। लेकिन वह पहला मौका था। उसके बाद ये दोनों लोग और दो बार साथ नजर आए थे। वह मौका था बीते साल ममता के घर आयोजित कालीपूजा का। तब राज्यपाल सपत्नीक उनके घर गए थे।उसके बाद ममता ने एक बार राजभवन जाकर उनसे मुलाक़ात की थी। उसके बाद इन दोनों के बीच विवादों का सिलसिला लगातार तेज़ हुआ है।

राज्यपाल से टकराव पहले भी

वैसे, पश्चिम बंगाल में राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच टकराव का इतिहास काफी पुराना है। पहले भी यहाँ टकराव होते रहे हैं। अंतर यही है कि अबकी यह टकराव लगातार लंबा खिंच रहा है और इसके निकट भविष्य में थमने के कोई आसार नहीं नज़र आ रहे हैं। ताजा विवादों ने पहले के तमाम मामलों को पीछे छोड़ दिया है। अबकी यह टकराव चरम पर पहुंचता नजर आ रहा है।

धरम वीर

राज्य के तत्कालीन राज्यपाल धरम वीर ने 21 नवंबर, 1969 को अजय मुखर्जी के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार को बर्खास्त कर दिया था। वर्ष 1969 में मोर्चा की सरकार फिर सत्ता में लौटी। मंत्रिमंडल के गठन के बाद राज्यपाल के लिए जो अभिभाषण तैयार किया गया था उसके एक पैराग्राफ में धरम वीर की आलोचना की गई थी। धरम वीर ने अभिभाषण का वह हिस्सा पढ़ने से इंकार कर दिया था।

बी. डी. पांडे

वर्ष 1977 में भारी बहुमत के साथ वाममोर्चा सरकार के सत्ता में आने के बाद भी राजभवन और सरकार के बीच टकराव के हालात बने थे। तत्कालीन राज्यपाल बी.डी. पांडे के साथ वाममोर्चा के संबंध ठीक नहीं थे। केंद्र के साथ टकराव होने पर उसने पांडे को निशाना बनाया था। 

ए. पी. शर्मा

वर्ष 1984 में राज्यपाल बनने वाले अनंत प्रसाद शर्मा के साथ भी वाममोर्चा के रिश्ते ठीक नहीं रहे। कलकत्ता विश्वविद्यालय के वाइस-चांसलर के पद पर नियुक्ति के मुद्दे पर दोनों के रिश्तों में कड़वाहट पैदा हो गई थी। शर्मा ने ऐसे उम्मीदवार संतोष भट्टाचार्य के नाम पर मुहर लगाई थी जो सरकार की प्राथमिकता सूची में सबसे नीचे था।

गोपाल कृष्ण गांधी

वर्ष 2007 में नंदीग्राम में हुई फायरिंग और हत्याओं की कड़े शब्दों में आलोचना करने की वजह से तत्कालीन राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी को भी वाममोर्चा नेताओं की भारी नाराजगी का शिकार होना पड़ा था। गांधी के बाद राजभवन पहुंचने वाले पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम. के. नारायणन के रिश्ते भी वाममोर्चा या तृणमूल कांग्रेस सरकार के साथ मधुर नहीं रहे। 

केशरी नाथ त्रिपाठी

वर्ष 2011 में तृणमूल कांग्रेस सरकार के सत्ता में आने के बाद राजभवन और राज्य सचिवालय में टकराव की यह परंपरा जस की तस रही। उत्तर 24 परगना ज़िले में दो गुटों के बीच सांप्रदायिक हिंसा के बाद तत्कालीन राज्यपाल केसरी नाथ त्रिपाठी ने राज्य प्रशासन की कड़ी आलोचना करते हुए क़ानून व व्यवस्था पर सवाल खड़े किए थे। उसके बाद से सरकार और राजभवन के रिश्ते लगातार बिगड़े रहे। 

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तब त्रिपाठी पर अपना अपमान करने का भी आरोप लगाया था। आखिर में हालत यहाँ तक पहुंच गई कि ममता ने त्रिपाठी के विदाई समारोह में भी हिस्सा नहीं लिया। त्रिपाठी ने इस पर दुख भी जताया था। अब धनखड़ के आने के बाद रिश्ते और भी ख़राब हो गये हैं।

संविधान में राज्यपाल की भूमिका बहुत सीमित है। उन्हें मुख्यमंत्री की सिफ़ारिश पर ही काम करना होता है। मुख्यमंत्री की तरह उनका चुनाव जनता के द्वारा नहीं होता। केंद्र सरकार उनकी नियुक्ति करती है। वह एक तरह से केंद्र के एजेंट के तौर पर ही राजभवन में रहते हैं। अब सवाल यह पैदा होता है कि अगर राज्यपाल दिन प्रतिदिन चुनी हुई सरकार के काम में दखल देने लगे तो फिर प्रशासन में अड़चन आना स्वाभाविक है।

ये आरोप भी लगेंगे कि वह केंद्र सरकार के इशारे पर चुनी हुई सरकार को अस्थिर करने के साथ ही उसकी छवि को भी ख़राब करने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसे समय में जब कि बंगाल में बीजेपी तृणमूल कांग्रेस को हटा कर अपनी सरकार बनाने के लिये एड़ी- चोटी का ज़ोर लगा रही है तब ये क्यों न कहा जाये कि धनखड़ दरअसल बीजेपी की मदद कर रहे हैं। 

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