बंगाल : ममता ने क्यों लिया ओबीसी आरक्षण का सहारा?
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव 2021 के ठीक पहले महिश्या समुदाय को आरक्षण देने का ऐलान कर राज्य के चुनावी गणित में जाति को महत्वपूर्ण समीकरण के रूप में इस्तेमाल करने की रणनीति अपनाई है। उनके तुरन्त बाद पश्चिम बंगाल बीजेपी ने महिश्या आरक्षण के मुद्दे को लपक लिया। इसके साथ ही पश्चिम बंगाल में भी दूसरे राज्यों की तरह जाति का कार्ड खेलने की शुरुआत हो गई, जिससे तमाम राजनीतिक दल अब तक बचते थे। वाम दलों ने पढ़े- लिखे, परिष्कृत 'भद्रलोक बंगाली' समाज के सामने किसानों मजदूरों की राजनीति की थी, उसी राज्य में अब जाति और धर्म की राजनीति हो रही है, जिसमें पक्ष-विपक्ष दोनों ही तरह के दल समान रूप से शामिल हैं।
तृणमूल कांग्रेस की नेता ने पार्टी का चुनाव घोषणापत्र जारी करते हुए बुधवार को ऐलान किया था कि महिश्या समुदाय को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के तहत लाया जाएगा ताकि उन्हें भी उसका फ़ायदा मिल सके और उनका विकास हो सके।
इसके साथ ही तामुल, तिली और साहा समुदाय को भी ओबीसी में शामिल करने का फ़ैसला किया गया है। साहा समुदाय में भी कई उप-वर्ग हैं और वे सब अति पिछड़ा नहीं हैं। यह अभी पता नहीं चल सका है कि साहा समुदाय के सारे लोगों को ओबीसी आरक्षण मिलेगा या सिर्फ उन्हें जो बहुत ही पिछड़े हुए हैं।
महिश्या समुदाय का राजनीतिक समीकरण
दरअसल तृणमूल कांग्रेस और पश्चिम बंगाल बीजेपी, दोनों का सारा ज़ोर महिश्या समुदाय पर है, आरक्षण का विरोध न हो, इसलिए इसमें दूसरे समुदायों को भी जोड़ लिया गया है। पूरे महिश्या समुदाय की आबादी लगभग 1 करोड़ 38 लाख 20 हज़ार है। यानी पूरी जनसंख्या का लगभग 13-14 प्रतिशत। ये मुख्य रूप से पूर्व मेदिनीपुर और पश्चिम मेदिनीपुर में बसे हुए हैं, जहाँ 34 विधानसभा सीटें हैं। हालांकि इन इलाक़ों में महिश्या समुदाय के लोग ही रहते हों, ऐसा भी नहीं है, पर उनकी तादाद ज़्यादा है।
इस समुदाय के लोग पुरुलिया के थोड़े से हिस्से में भी हैं। इसके अलावा उत्तर चौबीस परगना और दक्षिण चौबीस परगना ज़िलों की लगभग 8 सीटों पर भी महिश्या समुदाय की आबादी चुनाव नतीजों को प्रभावित करने वाली है। हुगली और हावड़ा ज़िले की भी चुनिंदा सीटों पर महिश्या समुदाय की पकड़ है।
आख़िर तृणमूल कांग्रेस का चुनावी गणित क्या है? पूर्व-पश्चिमी मेदिनीपुर की 34, हावड़ा की 18 और हुगली की 16 सीटों पर तृणमूल कांग्रेस का प्रभाव कम हुआ है।
लोकसभा चुनाव 2019 में बीजेपी ने जो 18 सीटें जीतीं, उनमें से लगभग 15 सीटें छह ज़िलों- पूर्व मेदिनीपुर, पश्चिम मेदिनीपुर, हावड़ा, हुगली, उत्तर व दक्षिण चौबीस परगना ज़िलों से हैं। इन ज़िलों के 60-70 विधानसभा क्षेत्रों में बीजेपी को बढ़त मिली या वह दूसरे नंबर पर रही।
टीएमसी को भरोसा महिश्या पर
तृणमूल कांग्रेस के लिए जीवन-मरण के इस संघर्ष वाले चुनाव में इन छह ज़िलों में उसकी हालत पहले ही पतली थी। लेकिन बीजेपी की अंदरूनी लड़ाई और टीएमसी छोड़ कर पार्टी में शामिल हुए लोगों को तरजीह दिए जाने के कारण पार्टी के कार्यकर्ताओं व स्थानीय नेताओं में जो असंतोष है, टीएमसी को उसी का भरोसा है। ऐसे में यदि महिश्या समुदाय को किसी तरह तृणमूल के खेमे में लाया जाए तो वह पार्टी के लिए बड़ी बात होगी। इसे ध्यान में रख कर ही इस समुदाय को ओबीसी की सूची में शामिल करने का प्रस्ताव सत्तारूढ़ दल ने दिया है।
तिली समुदाय
तिली समुदाय के लोग पश्चिम बंगाल के बाँकुड़े ज़िले में रहते हैं। वे खेती-बाड़ी से जुड़े हुए हैं, पिछड़े हैं, उनकी भाषा बांग्ला है। वे बिहार के भागलपुर में रहने वाले तिली समुदाय से मिलते जुलते हैं, बस, उनकी भाषा और कुछ सामाजिक रीति-रिवाज अलग हैं। पर वे बिहार के सदगोप, यादव और कुर्मी जातियों से मिलते जुलते हैं।
तामुल-साहा
इसी तरह तामुल और साहा समुदायों के लोग भी पिछड़ों की श्रेणी में आते हैं। साहा एक सामान्य टर्म है और इसमें वे लोग भी आते हैं जो वाणिज्य- व्यापार करते हैं, वे मोटे तौर पर पिछड़े वर्ग में नहीं आते हैं। लेकिन साहा समुदाय का एक हिस्सा ज़रूर इस वर्ग में आता है।
मंडल आयोग ने पश्चिम बंगाल की जिन 177 जातियों की पहचान ओबीसी के रूप में की थी, उनमें से इसके पहले तक सिर्फ 64 को ही आरक्षण मिला था।
क्या कहती है रिपोर्ट!
कॉनफ़ेडरेशन ऑफ़ ओबीसी, एससी, एसटी एंड माइनॉरिटीज़ ने 2010 में एक रिपोर्ट में यह आरोप लगाया था कि पश्चिम बंगाल में इन समुदायों को 27 प्रतिशत के बदले सिर्फ 7 प्रतिशत आरक्षण ही दिया गया था।
इस संगठन के सदस्य जे. के. मजुमदार ने 2010 में एक रिपोर्ट में कहा था, "महिष्या, तिली, तामुल और साहा जैसी जातियाँ हैं, जिन्हें अब तक ओबीसी के रूप में पहचान नहीं दी गई है। हमने मुख्यमंत्री को कई बार ज्ञापन दिया है, पर अब तक कुछ नहीं किया गया है।"
बता दें कि 2010 में पश्चिम बंगाल में सीपीआईएम की अगुआई वाले वाम मोर्चा की सरकार थी और बुद्धदेव भट्टाचार्य मुख्यमंत्री थे। उसके अगले साल यानी 2011 में हुए विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस ने वाम मोर्चा को भारी शिकस्त दी और ममता बनर्जी मुख्यमंत्री बनीं।
पश्चिम बंगाल सरकार ने अंतिम बार किसी जाति को ओबीसी समुदायों में शामिल किया था, वह 1998 था, जब हाजिन को इस श्रेणी में जगह दी गई थी।
मुसलमानों को आरक्षण!
महिश्या, तिली, तामुल और साहा को पश्चिम बंगाल की राजनीति में आगे लाने की दूसरी वजहें भी हैं। वाम मोर्चा सरकार ने फ़रवरी 2010 में सच्चर कमेटी की रिपोर्ट और रंगनाथ मिश्रा आयोग का हवाला देते हुए मुसलमानों को ओबीसी वर्ग में शामिल किया और उन्हें 10 प्रतिशत का आरक्षण दिया। इसमें शर्त यह लगा दी गई कि जिन मुसलमानों के परिवार की सालाना आय 4.5 लाख रुपए या उससे कम है, उन्हें इसका लाभ मिलेगा।
ममता बनर्जी ने इसके बाद 2012 में एक विधेयक पारित करवा कर मुसलमानों का आरक्षण 7 प्रतिशत और बढ़ा दिया, उसे 17 प्रतिशत कर दिया। इसके लिए उसने एक अलग लिस्ट बनवाई और उसमें मुसलमानों की 57 जातियों को जोड़ा। पहले की सूची में सिर्फ 26 जातियाँ थीं।
'तुष्टीकरण' का आरोप
पश्चिम बंगाल में मुसलमानों की कुल 143 जातियों की पहचान ओबीसी के रूप में की गई है।
पश्चिम बंगाल बीजेपी ने इस मुद्दे को उठाया और ओबीसी या पिछड़ा शब्दों को गायब करते हुए सीधे मुसलमानों को आरक्षण कह कर प्रचारित किया और ममता बनर्जी पर मुसलिम तुष्टीकरण का आरोप लगाया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब इसी सप्ताह पुरुलिया में कहा कि आपका हक़ छीन कर किसी और को दे दिया गया तो उनका इशारा इसी ओर था।
पश्चिम बंगाल में बढ़ते धार्मिक व राजनीतिक ध्रुवीकरण के बीच इस आरोप की काट के रूप में ममता बनर्जी ने चार जातियों को ओबीसी में शामिल करने का एलान किया, जो मोटे तौर पर हिन्दू समाज की जातियाँ हैं।
पहचान की राजनीति
ममता बनर्जी ने पहचान की इस राजनीति के तहत ही कोच राजबंशी समुदाय के लिए अलग विकास बोर्ड के स्थापना का ऐलान किया है। यह समुदाय रायगंज, मुर्शिदाबाद, मालदा, कूचबिहार, दार्जिलिंग ज़िलों में फैला हुआ है। इस समुदाय का दावा है कि वे बंगाली नहीं हैं, उनकी नस्ल बंगालियों से अलग है, वे सांस्कृतिक रूप से उनसे अलग हैं और उनकी भाषा भी बांग्ला से पूरी तरह नहीं मिलती है।
वे इस आधार पर कामतापुर राज्य की माँग लंबे समय से करते रहे हैं। कामतापुर मुक्त मोर्चा नामक संगठन भी है। बीच-बीच में तोड़फोड़ की छोटी-मोटी वारदातों से उसका नाम जोड़ा गया है। लेकिन मोटे तौर पर यह आन्दोलन ज़मीनी स्तर पर बहुत संगठित या मजबूत नहीं है। लोक गायक, कलाकार, लेखक व बुद्धिजीवियों का बड़ा समूह इस आन्दोलन को बचाए हुए है।
ममता बनर्जी ने कोच राजबंशी के पहले लेप्चा, तमांग व नेवारी समुदायों के लिए भी अलग विकास बोर्डों का गठन किया था। इस समुदाय के लोग मोटे तौर पर दार्जिलिंग और उसके आसपास के इलाक़ों में हैं, चाय बागान व खेती बाड़ी से जुड़े हुए हैं।
'भद्रलोक बंगाली'
जब वाम मोर्चा सत्ता में पहली बार आया तो उसके लोगों ने पढ़े-लिखे, परिष्कृत व सामंती पृष्ठभूमि के लोगों का मजाक उड़ाते हुए उन्हें 'भद्रलोक बंगाली' कहा था। सीपीआईएम सैद्धांतिक कारणों से इस समाज के लोगों को सामंती मानती थी। सच यह भी है कि उस समय सीपीआईएम नेतृत्व का बड़ा हिस्सा इस 'भद्रलोक बंगाली' समाज से ही आता था। सीपीआईएम का कहना था कि वह 'भद्रलोक बंगाली' के बजाय आमजन बंगाली को सामने लाएगी। उसने किसान, मजदूर व समाज के दबे-कुचले व हाशिए पर खड़े लोगों को आवाज़ दी, पहचान दी।
तृणमूल कांग्रेस ने इस आमजन बंगाली में ओबीसी मुसलमानों को जोड़ा। अब बीजेपी अपनी राष्ट्रीय राजनीति के अनुसार ही, इसमें हिन्दुत्व का तड़का लगा रही है। उसने मुसलमान ओबीसी को काटने के लिए हिन्दू ओबीसी का कार्ड खेला। सत्तारूढ़ टीएमसी ने इस हिन्दू ओबीसी कार्ड को जवाब देते हुए एक साथ कई समुदायों को रिझाने की कोशिश की है।