बड़ी खामोशी से कांग्रेस को बदल रहे हैं खड़गे
देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस अब अपना पुराना ढर्रा छोड़कर नए रास्ते पर चल रही है। कांग्रेस के नए अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे बदलाव ला रहे हैं। यह बदलाव बहुत ख़ामोशी के साथ हो रहा है। खड़गे इसका कहीं कोई श्रेय भी नहीं ले रहे। हाल ही में कांग्रेस संगठन में हुए बदलाव से संकेत मिलते हैं कि कांग्रेस में अब पुराने नेतृत्व को आराम दिया जा रहा है। नए और अपेक्षाकृत युवा नेतृत्व को ज़िम्मेदारी सौंपी जा रही है। खड़गे बहुत ही खामोशी के साथ वरिष्ठ नेताओं की जगह नए लोगों को जिम्मेदारी देकर कांग्रेस को मजबूत करने कोशिश कर रहे हैं।
केंद्रीय चुनाव समिति का क्या है संदेश?
सोमवार को मल्लिकार्जुन खड़गे ने कांग्रेस की नई केंद्रीय चुनाव समिति का पुनर्गठन किया। इसमें कई वरिष्ठ नेताओं का पता साफ कर दिया गया है। पुराने नेताओं में सिर्फ अंबिका सोनी और सलमान खुर्शीद इस कमेटी में जगह बनाने में कामयाब रहे हैं। बाद के नेताओं में मधुसूदन मिस्त्री और पीएल पुनिया रखे गए हैं। एके एंटनी और जनार्दन द्विवेदी को इस कमेटी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। दोनों ही नेता करीब 20 साल कांग्रेस की अध्यक्ष रहीं सोनिया गांधी के बेहद करीबी माने जाते थे। दोनों के बेटों ने कांग्रेस छोड़ बीजेपी का दामन थाम कर पार्टी में इन्हें शर्मिंदा किया है। इसे भी इनको हटाए जाने की बड़ी वजह माना जा रहा है।
कई नेताओं का बढ़ा क़द
खड़गे ने छत्तीसगढ़ के उपमुख्यमंत्री टीएस सिंह देव और बिहार से पिछले लोकसभा चुनाव में जीते कांग्रेस के एक मात्र सांसद मोहम्मद जावेद को केंद्रीय चुनाव समिति में जगह देकर उनका कद बढ़ाया है। इसी तरह कर्नाटक सरकार में मंत्री उत्तम कुमारपसल रेड्डी, केजे जार्ज, प्रीतम सिंह, अमी याज्ञनिक, ओंकार मकराम जैसे नेताओं को केंद्रीय चुनाव समिति में शामिल करके न सिर्फ उनकी जिम्मेदारियों में इजाफा किया गया है बल्कि उनको पार्टी की निर्णयशक्ति का हिस्सा बनाया गया है। साफ संदेश यह है कि पार्टी अब पुराने नेताओं को आराम देकर नए नेताओं को बड़ी जिम्मेदारी देना चाहती है।
कांग्रेस में केंद्रीय चुनाव समिति का काम लोकसभा और राज्यों के विधानसभा चुनाव में टिकटों पर मुहर लगाना होता है। इसलिए कांग्रेस कार्यसमिति के बाद इसे सबसे ज़्यादा अहम माना जाता है।
एके एंटनी की क्यों हुई छुट्टी?
कांग्रेस की इस अहम कमेटी से एके एंटनी और जनार्दन द्विवेदी का पत्ता साफ करने को लेकर सवाल उठ रहे हैं। राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि इन दोनों नेताओं को इतनी महत्वपूर्ण कमेटी से बाहर रखकर कांग्रेस ने एक घोषित मार्गदर्शक मंडल बना दिया है। कुछ महीनों पहले ही एके एंटनी के बेटे अनिल एंटनी ने कांग्रेस छोड़ भाजपा का दामन थाम लिया था। तब एंटनी को इस पर पार्टी में काफी शर्मिंदगी झेलनी पड़ी थी। करीब दो महीने पहले अपने राज्यसभा का कार्यकाल ख़त्म होने के बाद एके एंटनी ने दिल्ली छोड़ने का ऐलान किया था। तब उन्होंने यह भी कहा था कि अब वह सक्रिय राजनीति में नहीं रहना चाहते। केरल में ही रहेंगे। माना जा रहा है कि उनकी इसी इच्छा का सम्मान करते हुए उन्हें कांग्रेस कार्यसमिति में तो रखा गया है लेकिन केंद्रीय चुनाव समिति से बाहर कर दिया गया है।
क्या ये जनार्दन द्विवेदी की विदाई है?
जनार्दन द्विवेदी का मामला एके एंटनी से अलग है। जनार्दन द्विवेदी को मई 2018 में हुए फेरबदल में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने महासचिव पद से हटाया था। तब वो संगठन के प्रभारी थे। उनकी जगह ये जिम्मेदारी अशोक गहलोत को दी गई थी। तब पार्टी ने बाकायदा एक चिट्ठी जारी कर महासचिव पद पर उनकी सेवाओं के लिए उनका धन्यवाद किया था। महासचिव पद से हटने के बाद कार्यसमिति से वो बाहर हो गए थे। पांच साल पहले यह साफ हो गया था कि जनार्दन द्विवेदी को संगठन से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है।
अब केंद्रीय चुनाव समिति से जनार्दन द्विवेदी का पत्ता साफ होने के बाद माना जा रहा है कि उन्हें पार्टी से विदाई ही दे दी गई है। किसी और कमेटी में भी उन्हें जगह नहीं दी गई है।
पार्टी लाइन से अलग चल रहे थे द्विवेदी?
जनार्दन द्विवेदी पर आरोप है कि वो कई साल से पार्टी लाइन से अलग चल रहे थे। उन पर ये आरोप रहा है कि 2014 में केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद कई मुद्दों पर वो मोदी सरकार के साथ खड़े नज़र आए। अगस्त 2019 में जनार्दन द्विवेदी ने पहले तो जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने पर कांग्रेस के बजाय बीजेपी के रुख का समर्थन किया था। उसी साल दिसंबर में 'भागवत गीता' पर हुए कार्यक्रम में उन्होंने संघ प्रमुख मोहन भागवत के साथ मंच साझा किया था। 2020 में उनके बेटे समीर द्विवेदी ने बीजेपी का दामन थाम लिया था। महासचिव पद से हटाए जाने के बाद से जनार्दन द्विवेदी पार्टी में अलग-अलग चल रहे थे। हालाँकि पिछले साल उदयपुर में हुए चिंतन शिविर में उन्हें बुलाया गया था। लेकिन इसके अलावा पार्टी के किसी अन्य कार्यक्रम में उन्हें नहीं बुलाया गया।
क्या कांग्रेस में बन गया है 'अघोषित मार्गदर्शक मंडल'?
आराम देने के बाद राजनीतिक हलकों में यह चर्चा है कि क्या कांग्रेस में भी बीजेपी की तरह एक 'अघोषित मार्गदर्शक मंडल' बन गया है? सोनिया गांधी और कांग्रेस पर कई किताबें लिख चुके वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई इस विचार से असहमति जताते हैं। वो कहते हैं कि उम्र की वजह से कई नेताओं को जिम्मेदारियों से मुक्त ज़रूर किया गया है लेकिन पार्टी में 'मार्गदर्शक मंडल' जैसा कुछ बना है, यह कहना उचित नहीं होगा। मिसाल के तौर पर पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह 90 साल से ज्यादा हो चुके हैं। उम्र के इस पड़ाव पर उनके सक्रिय राजनीति में अहम योगदान की उम्मीद नहीं की जा सकती। इसी तरह एके एंटनी भी 82 साल के हो चुके हैं। उन्होंने खुद ही खुद को सक्रिय राजनीति से अलग कर लिया है। लेकिन कांग्रेस ने इन नेताओं के सम्मान को देखते हुए कार्य समिति में इन्हें जगह दी है। राशिद इसे सामान्य प्रक्रिया मानते हैं कि उम्र की वजह से वरिष्ठ नेता जिम्मेदारियों से मुक्त हो रहे हैं और उनकी जगह नए नेताओं को ज़िम्मेदारी दी जा रही है।
बिखरी कांग्रेस को एकजुट करने में जुटे हैं खड़गे
राशीद किदवई कहते हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष का पद संभालने के बाद मल्लिकार्जुन खड़गे ने कांग्रेस की बिखरी हुई ताक़त को एकजुट करने की कोशिश की है। शुरुआत से ही कांग्रेस में हमेशा से एक नाराज तबका रहा है। मौजूदा दौर में इसे जी-23 के नाम से जाना जाता है। खड़गे ने कांग्रेस कार्यसमिति के गठन के दौरान इनमें से कई नेताओं को जगह देकर सबको साथ लेकर चलने का संदेश दिया है। अब कांग्रेस में नाराज गुट लगभग समाप्त हो चुका है। इसी तरह से कर्नाटक के विधानसभा चुनाव नतीजे आने के बाद खड़गे ने हर प्रदेश के नेताओं की अलग-अलग बैठक बुलाकर वहाँ भी आपसी गुटबाजी ख़त्म करने की कोशिश की है। इस साल पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव और अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव की चुनौतियों से निपटने में खड़गे की ये कोशिशें रंग लाने वाली हैं।
दूसरी पंक्ति के नेताओं को तैयार कर रहे हैं
एक बड़ी वजह यह है कि उदयपुर चिंतन शिविर और रायपुर कांग्रेस अधिवेशन के प्रस्ताव के बावजूद संगठन में हर स्तर पर आधे पदों पर 50 साल से कम उम्र के नेताओं को जगह नहीं मिली है। कांग्रेस में लंबे अरसे से बुजुर्ग और नौजवान नेताओं के बीच वर्चस्व की लड़ाई चल रही है। खासकर राहुल गांधी के कांग्रेस में आने के बाद पार्टी में यह अंदरूनी जंग ज्यादा तेज हुई है। लेकिन जब जब पार्टी में नौजवान लोगों ने अपना वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश की है, बुजुर्गों ने उन्हें पटखनी देते हुए अपने वर्चस्व को कायम रखा है। खड़गे बुजुर्ग तजुर्बे और युवा जोश के बीच संतुलन बनाकर चलने की कोशिश कर रहे हैं। जहां कार्यसमिति में रणदीप सुरजेवाला, अजय माकन और अलका लांबा जैसे राहुल गांधी के बेहद करीबी समझे जाने वाले लोगों को जगह मिली है, वहीं सोनिया गांधी के दौर से पार्टी में रहीं अंबिका सोनी जैसे दिग्गजों का वर्चस्व अभी भी कायम है। नाराज़ गुट से आनंद शर्मा और मनीष तिवारी जैसे नताओं को भी साथ लेकर चलने की कोशिश हो रही है वहीं कन्हैया कुमार जैसे युवाओं को भी आगे लाया जा रहा है। कुल मिलाकर खड़गे बगैर किसी शोर शराबे के कांग्रेस को बदलने की कोशिश कर रहे हैं।