क्या राहुल गांधी के सपनों की नई कांग्रेस यही है?
असली कांग्रेस किसे माना जाना चाहिए ? क्या उसे जो इस समय राहुल गांधी के नेतृत्व में मल्लिकार्जुन खड़गे के राज्य कर्नाटक में लाखों लोगों के स्वागत के बीच सड़कों से गुज़र रही है या फिर उसे जो नए अध्यक्ष का चुनाव होने के बाद नई दिल्ली में प्रकट होने वाली है? या दोनों को ही ?
कांग्रेस के असली चेहरे को लेकर देश की जनता को भ्रम में डाल दिया गया है। लोग इसी प्रतीक्षा में थे कि नई कांग्रेस का जन्म तो पाँच महीने की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बाद जनता के बीच से होने वाला है।
वर्ष 1998 में सीताराम केसरी की जगह सोनिया गांधी को अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। तभी से यह पद बिना किसी चुनाव के सोनिया गांधी और राहुल गांधी के बीच बंटता रहा है। ख़ुशियाँ मनाई जा सकतीं हैं कि चौबीस सालों के बाद पहली बार कोई ग़ैर-गांधी अध्यक्ष चुनावों के ज़रिए पार्टी को प्राप्त होने जा रहा है।
गर्व के साथ प्रचार किया गया है कि ‘गांधी परिवार’ के किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप के बिना होने जा रहे चुनाव में खड़गे द्वारा नामांकन दाखिल करते समय पार्टी के सारे वरिष्ठ नेता उपस्थित थे। इनमें मनीष तिवारी, पृथ्वीराज चव्हाण, भूपेन्द्र सिंह हुड्डा और आनंद शर्मा सहित गांधी परिवार को चुनौती देने वाले जी-23 के विद्रोही नेता भी शामिल थे। दावा किया जा रहा है कि 19 अक्टूबर को दिल्ली में एक नई और प्रजातांत्रिक कांग्रेस का जन्म हो रहा है। पहले एक ही कांग्रेस थी । चुनावों के बाद दो हो जाएँगी। एक राहुल की और दूसरी खड़गे के नेतृत्व में ‘परिवार’ के नियंत्रण की। बताया जा रहा है कि आंदोलन चलाने का काम राहुल करेंगे और गांधी परिवार तथा कार्यकर्ताओं के बीच सेतु की भूमिका खड़गे निभाएँगे।
अध्यक्ष पद की उम्मीदवारी को लेकर मचे घमासान से बात साफ़ हो गई थी कि ‘परिवार’ पार्टी संगठन पर अपनी पकड़ को ढीली नहीं पड़ने देना चाहता है। अस्सी-वर्षीय मल्लिकार्जुन खड़गे की एंट्री के बाद चीजों को लेकर ज़्यादा स्पष्टता आ गई है कि 17 अक्टूबर को मुक़ाबला परिवार के प्रति ‘वफ़ादारी’ और विद्रोहियों द्वारा की जा रही पार्टी के ‘सामूहिक नेतृत्व’ की माँग के बीच होना है। सभी मानकर चल रहे हैं कि जीत अंत में ‘वफ़ादारों’ की ही होती है।
कांग्रेस के ताज़ा घटनाक्रम के बाद भाजपा भी राहत की साँस ले सकती है कि नए कांग्रेस अध्यक्ष को लेकर उसे ज़्यादा चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। कांग्रेस में कुछ भी बदलने नहीं जा रहा है। चुनाव-प्रचार के लिए उसका यह आरोप भी क़ायम रह सकेगा कि ‘नए’ अध्यक्ष के बाद भी कांग्रेस पार्टी पर ‘पुराने’ परिवार का ही नियंत्रण क़ायम है।
दिग्विजय सिंह ने तैयार स्क्रिप्ट के मुताबिक़, नामांकन पत्र तो प्राप्त कर लिए थे पर अपने आप को पार्टी का अधिकृत उम्मीदवार नहीं घोषित किया। उन्हें जानकारी थी कि वे डमी कैंडिडेट हैं, ‘परिवार’ की अंतिम पसंद नहीं । गांधी परिवार द्वारा खड़गे को अधिकृत उम्मीदवार बनने के लिए तैयार किया जा रहा है। खड़गे के चुनावी मैदान में प्रवेश के साथ ही ज़ाहिर हो गया कि गहलोत के बाद ‘परिवार’ का सबसे ज़्यादा विश्वास किस उम्मीदवार को हासिल है।
दिग्विजय ही अगर अंतिम रूप से भी मैदान में बने रहते तो वे निश्चित ही डमी अध्यक्ष की तरह काम करने को तैयार नहीं होते। परिवार को इस बात का अंदेशा रहा होगा। इसलिए खड़गे को राज़ी किया जाना ज़रूरी था। एक मीडिया साक्षात्कार में दिग्विजय सिंह को कथित तौर पर यह कह कहते हुए उद्धृत किया गया था कि किसी भी नेता को तानाशाह नहीं बल्कि बराबरी वालों के बीच पहला होना चाहिए (the first among equals)
अध्यक्ष पद के चुनावों को लेकर निकले लम्बे चले समारोह में गहलोत ही सबसे ज़्यादा समझदार साबित हुए। गहलोत ने दिल्ली पहुँचकर गुलाबी नगरी में हुए कठपुतलियों के प्रदर्शन के लिए सोनिया गांधी से माफ़ी भी माँग ली और सचिन के भविष्य को आलाकमान की झोली में डालकर शांत भाव से जयपुर वापस लौट गए।
सोनिया गांधी से मुलाक़ात के बाद गहलोत ने इस बात का कोई खुलासा नहीं किया कि क्या उन्होंने सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाने की सिफ़ारिश की है और वे अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने के लिए तैयार हैं।( केरल के प्रसिद्ध अख़बार ‘मलयाला मनोरमा’ ने अपने कुशल फ़ोटोग्राफ़र द्वारा ली गई उस कथित नोट-शीट का चित्र उजागर किया है जिसे सोनिया गांधी से चर्चा के लिए गहलोत बिंदुवार तैयार करके दस जनपथ के अंदर ले गए थे। नोट शीट पर लिखे बिंदु गहलोत द्वारा सोनिया गांधी से हुई चर्चा के बाद पत्रकारों को दिए गए ब्यौरे से अलग कहानी कहते हैं।)
लोगों की रुचि अब इस बात को जानने में है कि क्या अध्यक्ष के चुनाव के बाद कांग्रेस में सब कुछ ठीक हो जाएगा या पार्टी के लिए अंदरूनी और बाहरी चुनौतियाँ बढ़ने वाली हैं? क्या कांग्रेस एक सशक्त विपक्षी दल के तौर पर भाजपा का मुक़ाबला करने के लिए सक्षम हो सकेगी?
राहुल गांधी अगले महीने के अंत में इक्कीस दिनों के लिए राजस्थान में प्रवेश करने वाले हैं और इस दौरान उनका कोटा की सड़कों से गुजरना भी प्रस्तावित है जहां के एक विधायक गहलोत के कट्टर समर्थक और जयपुर एपिसोड के शिल्पकार शांतिलाल धारीवाल हैं।
खड़गे आलाकमान के पर्यवेक्षक के तौर पर अजय माकन के साथ जयपुर गए थे। उनकी उपस्थिति में ही विद्रोही विधायकों का सारा ड्रामा हुआ था। अब पार्टी के नए अध्यक्ष के रूप में खड़गे की आगामी भूमिका इस बात से तय होगी कि वे गहलोत के मुख्यमंत्री पद ,सचिन पायलट के भविष्य और विद्रोही विधायकों के बारे में क्या फ़ैसला लेते हैं। कहा यही गया था कि गहलोत को लेकर कोई निर्णय एक-दो दिन में हो जाएगा।
राजस्थान में नेतृत्व को लेकर लिया जाने वाला कोई आक्रामक फ़ैसला ही अब तय करेगा कि कांग्रेस का संकट ख़त्म हो गया है या और बढ़ने वाला है। उम्मीद यही की जानी चाहिए कि नई दिल्ली में लिए जा रहे फ़ैसलों से राहुल गांधी पूरी तरह से अवगत और सहमत हैं और अपनी यात्रा की समाप्ति पर पाँच महीनों के बाद जब वे दिल्ली लौटेंगे कांग्रेस उन्हें पूरी तरह बदली हुई मिलेगी।