क्या इसलिये लोग इसे जनाना लेखन कहते हैं?
मैं नहीं कहती कि लेखन विनम्रता भरा ही हो। अपनी बात पूरे ज़ोर के साथ कही जा सकती है। ध्यान यह भी रहे कि किसी का अपमान तो नहीं हो रहा। किसी को आहत करने की मंशा से तो नहीं बोला या लिखा जा रहा। व्यक्तिगत विद्वेष की बू तो नहीं आ रही। वैसे जो कुछ मैं यहाँ कह रही हूँ, सब खामख्याली है।
पिछले महीनों में ऑनलाइन प्रोग्राम खूब हुये हैं। लेखक लेखिकाओं का यह साझा मंच साहित्यक वार्ताओं से गुलज़ार रहा। आपसी मैत्री का माध्यम बना। यह भी माना जा सकता है कि लिखने से ज्यादा सक्रियता इन मंचों पर दिखाई दी। कारण यह भी हो सकता है कि आप जहाँ हो यदि नेटवर्क वहाँ आता है तो आप प्रोग्राम में शामिल हो सकते हैं। मैं भी ज़्यादातर कार्यक्रमों में शामिल रही। जो सोचा, वह बोला। नहीं तो जो उस समय बन पड़ा वही बोल दिया। माना यही कि लेखन पर, लेखक और लेखिकाओं पर ईमानदारी से हमारा वक्तव्य जाये। साथ ही हमारे अध्ययन को भी प्रमाणित करे।
बहरहाल हम तो बहुत ख़ुश चल रहे थे। प्रोग्राम आदरणीया मन्नू भंडारी की यादों पर केन्द्रित था जिनके लिये हम सब पूरे परिश्रम तथा उत्साह के साथ बोल रहे थे। और दूसरे साहित्यकार साथियों को सुन रहे थे। ऐसे ही उत्साहवर्धक प्रोग्राम में हम शिरकत कर रहे थे और अपनी रचनाओं के बारे में भी बता रहे थे, साथ ही जिन रचनाओं से हम प्रभावित हुये और प्रेरित होकर लिखा उनके प्रति स्नेह और सम्मान अर्पित कर रहे थे। तभी हमारे बीच से श्रीमती सुधा अरोड़ा ने आकर बोला - ‘मन्नू भंडारी को अवसाद हुआ तो वह मैत्रेयी के कारण हुआ।’ सुधा जी ने मेरी लिखी उस किताब का संदर्भ दिया जो किताब मैंने राजेन्द्र यादव पर ‘वह सफ़र था कि मुक़ाम था' नाम से लिखी है। मैंने इसमें कुछ ऐसा नहीं लिखा जो किसी को आहत करे। मगर कोई आहत होता है तो मैं इसमें क्या कर सकती हूँ। मैंने तो जो देखा वही लिखा, किसी से सुनकर नहीं लिखा, अनुमान से भी नहीं लिखा।
बहरहाल यह खींचतान राजेन्द्र यादव के जमाने से ही चली आ रही है। साथ ही कुछ अहमन्यता से भरी लेखिकाएँ अपने निशाने पर मुझे लेती रही हैं, शुरुआत से अब तक। कारण और भी रहे हैं मगर एतराज़ राजेन्द्र यादव को लेकर ज़्यादा ही उठे हैं। यह मेरी ही बात नहीं, मेरी तरह ही दो चार लेखिकाओं के घमंड की शिकार अन्य भी रही हैं- मसलन फ़लाँ लेखिका मेरे बराबर पर क्यों बिठा दी या फ़लाँ लेखिका के साथ मैं प्रोग्राम नहीं करूँगी, आदि आदि।
यह लेखिकाओं का अछूतवाद है जो हिन्दी साहित्य में पैठ कर बैठा है। पूछने का मन करता है कि आप लिखती हैं या लिखने का ढोंग करती हैं? क्या इसलिये ही लोग इसे जनाना लेखन कहते हैं। स्त्री को स्त्री से इतनी चिढ़ इतनी ईर्ष्या! याद आता है- “नारि न मोहे नारि के रूपा''।
बताइये घरों से निकलकर आपने क्या किया? वही द्वेष, दूसरे को नीचा दिखाने की साज़िशें और बदनाम करने के पुराने हथकंडे। क्या यही होता है साहित्यक वातावरण? डाह करनेवालियों को कहेंगे विदुषियाँ? ये समाज को क्या देंगी जो स्त्रियों में भी ऊँचनीच फैलाती हैं।
साहित्य में स्त्री विमर्श एक मिसाल होनी चाहिये जिसमें कमजोर स्त्री वर्ग को वह स्थान और सम्मान मिले जो अब तक तथाकथित प्रबुद्ध महिलाओं के नाम पर स्त्रियाँ लेती रही हैं।