या तो क्रांति कर लो या फिर करवा चौथ मना लो...
मान तो कुछ ऐसा ही लिया गया है कि स्त्रियाँ जो कुछ और जैसा कुछ लिखती हैं, वह स्त्री-विमर्श में शामिल होता है। क्या यह मान लेने वाली बात है हमें तो ऐसा महसूस होता है कि पुरुषों की क़लम से भी स्त्री को लेकर बहुत कुछ लिखा गया है, वरन ‘दिव्या’ क्यों लिखी जाती, जो वेश्या होने का अधिकार पाने को स्वीकार करने में हिचकती नहीं। रेणु क्यों महंतों की जागीर रहे मठ को लछमी के हवाले करते, जो मठ पर महज़ दासिन थी या कमली को जाति प्रथा तोड़ने के लिए दुस्साहसी क्यों बनाते ऐसे और भी उदाहरण मिल जाएँगे, जिनमें स्त्री के अधिकार केवल दया, तरस या पूजा और महिमा भर अर्जित करने तक सीमित न थे, उन सीमाओं को तोड़ा गया।
स्वतंत्रता के बाद स्त्री शिक्षा ने जब पाँव पसारे तो महिलाओं ने क़लम उठा ली। अब तक उनके पक्ष-विपक्ष में पुरुष लिखते रहे थे, उसका स्वरूप बदला क्योंकि डरती और झिझकती हुई औरत भी अपने मन की बात कह बैठी। मुंशी प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी ने कुछ कहानियाँ ही नहीं, ‘प्रेमचंद घर में’ लिखने की आज़ादी ले ली। यह कहने का मतलब है कि स्त्री वह लिख सकती है, जिसे उसके बारे में लिखने में ज़्यादातर पुरुष हिचकते हैं। उसके साहस-दुस्साहस का वर्णन भी करते हैं तो इस भाव से कि देखो, औरत होकर भी वह ऐसा कर गई!
बँधी-बँधाई धारणाएँ तोड़ने आया स्त्री-विमर्श
ऐसी ही बँधी-बँधाई धारणाओं का खंडन करने के लिए आया स्त्री-विमर्श, अपने मानवीय अधिकारों को लागू करने की पुरज़ोर आवाज़ देता हुआ। लड़की का जन्म रोका न जाए, उसकी परवरिश लड़की की तरह नहीं, संतान की तरह हो। पढ़ने का हक़ उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। उसकी रज़ामंदी के बिना विवाह जुर्म है। पतिव्रता के नाम पर कर्मकांड और व्रत-त्यौहार परंपरा नहीं रूढ़ियाँ हैं। बच्चे पैदा करना, न करना उसकी मर्ज़ी पर है। सबसे ज़्यादा घातक वे शब्द हैं जो उसे चुडै़ल, डायन, बाँझ, विधवा, रंडी आदि विशेषणों से नवाज़ते हैं। दहेज़ और बलात्कार स्त्री के अपमान की पराकाष्ठा हैं।
ग़ुलामी के अपने ही आनंद!
उपर्युक्त कठघरों को तोड़ने और अपनी पुरानी बेड़ियाँ काटने पढ़ी-लिखी महिलाएँ निकल पड़ीं। कॉलम, कविता, कहानी और उपन्यासों की झड़ी लग गई। स्त्री-विमर्श का झंडा बुलंद हुआ। मगर मैं मानती हूँ कि लिखावट जब तक व्यवहार में न आए, हमारे शब्द और सतरें बेमानी हैं। कुछ समय पहले तक जिस तरह स्वतंत्रता पाने के मूल्य को समझा जाता था, इसी तरह स्त्री-विमर्श को बहुमूल्य माना जाता रहा। लेकिन ग़ुलामी के अपने ही आनंद होते हैं और सुविधाओं के अपने सुख।
- जो स्त्री-विमर्श के नाम पर क्रांति की पताकाएँ उड़ा रही थीं, वे ही करवा चौथ मनाती हुई ब्यूटी पार्लरों में घुस गईं। जो शिक्षा की बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ लेकर महिला सशक्तीकरण का बिगुल बजा रही थीं, वे दहेज़ का विरोध तो कर रही हैं मगर ख़ुद लाखों का लहँगा और लाखों के मेहँदी-महावर के मेकअप में कोताही नहीं करतीं। इतनी सजी-धजी स्त्री-विमर्श की पुरोधा आगे चलकर तन ढँकने वाले कपड़ों का बहिष्कार करती हैं। देह पर सुविधाजनक कपड़ों के नाम पर नंगा दिखना पहली पसंद हो चला है।
स्त्री स्वतंत्रता की क्रांति यहीं दफ़न तो नहीं होगी
स्त्री-विमर्श के नए शगूफ़ों में इन दिनों औरत की ब्रा और माहवारी मुख्य मुद्दे हैं, सैनिटरी पैड सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण डिमांड है। तो फिर तय हो जाए कि स्त्री स्वतंत्रता की क्रांति यहीं आकर दफ़न होनी है कि आगे भी कोई और मुद्दा जगह पाएगा ये जो शगूफ़े हैं, इनमें न तो कहीं किसान स्त्रियों को जगह है, न मज़दूर औरतों के अभावों की चिंता। तब क्या आज का यह नया विमर्श केवल सुविधाभोगी और ग़ुलामी का आनंद लेती महिलाओं के लिए है जो फैशनेबल कपड़ों से होता हुआ सैनिटरी नैपकिन पर विश्रमित हो बैठता है नहीं तो बताया जाए कि इस चलताऊ स्त्री-विमर्श से स्त्री का जीवन किस तरह बदलता है।