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मीडिया की प्राथमिकताओं पर हँसें या रोयें?

मीडिया की प्राथमिकताओं पर हँसें या रोयें?

आज के समय में मीडिया की भूमिका क्या है? मीडिया को आख़िर क्या करना चाहिए? उसकी प्राथमिकताओं में आम लोग कहाँ हैं?

मीडिया में चार दशक से ज्यादा काम करने के बाद भी मैं आज इस पशोपेश में हूं कि मुझे या आपको मीडिया की प्राथमिकताओं पर हंसना चाहिए या रोना चाहिए? मीडिया की प्राथमिकताओं का जन पक्षधरता से कितना करीबी रिश्ता है, इसका आकलन भी मीडिया की प्राथमिकताओं से किया जा सकता है। आज भारतीय मीडिया की प्राथमिकताओं के मामले में प्रतिस्पर्धा या तो अपने आप से है या फिर सत्तारूढ़ पार्टी से। यदि आप नियमित टीवी देखते हैं या अखबार पढ़ते हैं तो आप इस भेद को आसानी से समझ सकते हैं।

हाल की ही बात करें तो आज देश और दुनिया में मणिपुर की साम्प्रदायिक हिंसा, महिला उत्पीड़न और वहाँ की सत्ता की भीरुता प्रमुखता में है। लेकिन दुर्भाग्य से हमारा मीडिया और हमारी संसद मणिपुर के नाम से बिदकती है। प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं का कवरेज करने के लिए जो टीवी चैनल अपने संवाददाताओं को अपने खर्च पर विदेश भेजते हैं उनके पास अपने संवादाताओं को मणिपुर भेजने के लिए पैसे नहीं हैं। हैं भी तो वे मणिपुर को उतना महत्वपूर्ण नहीं समझते जितना कि दुनिया समझती है। हमारे मुख्यधारा के मीडिया के लिए मणिपुर से ज्यादा महत्वपूर्ण ज्ञानवापी मस्जिद का मामला है। पाकिस्तान से भारत आई सीमा हैदर का मामला है। भारत से पकिस्तान गयी अंजू का मामला है। इन मुद्दों के पीछे मीडिया की दीवानगी देखने लायक है।

भारतीय मीडिया की साख पिछले एक दशक में रसातल में जाती दिखाई दे रही है। इसके लिए आप केवल देश की सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। सरकार ने मीडिया के लिए भले ही अपनी गोदी उपलब्ध करा दी हो लेकिन उसने किसी के साथ जबरदस्ती शायद नहीं की। मीडिया में सरकार की गोदी में सवार होने की स्पर्द्धा तो अपने आप शुरू हुई है। मीडिया न तो ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और नारी है और न ही जड़धि -जल, जो उन्हें प्रीत सिखाने के लिए भय दिखाने की जरूरत पड़े। मुमकिन है कि तमाम मीडिया घरानों को सरकार की ओर से डराया-धमकाया गया हो लेकिन ये भी सच है कि सरकार से प्रीत कर अपनी प्राथमिकताएं बदलने वाला मीडिया खुद ही बिना रीढ़ का हो चुका है। उसे झुकने, नवने में ही  सुखानुभूति होती है।

हमारा मीडिया बीते एक हफ्ते से सीमा हैदर का दीवाना है। उसके तमाम संसाधन और मेधा सीमा हैदर को कवर करने में खर्च हो रही है। संसद का हंगामा उसके लिए दूसरी प्राथमिकता है। अब ज्ञानवापी के मुद्दे को लेकर मीडिया चिरक रहा है लेकिन मणिपुर का मुद्दा उसके लिए अस्पृश्य है या इतना ज्यादा संवेदनशील है कि वो उसे चिमटे से भी नहीं छूना चाहता। मैं ये बात केवल अखबारों और टीवी चैनलों के लिए नहीं कह रहा। मेरा इशारा सोशल मीडिया पर भी है। सोशल मीडिया पर बड़े ही सुनियोजित तरीके से मणिपुर को बेदखल कर सीमा हैदर को, ज्ञानवापी मस्जिद/मंदिर को बैठा दिया गया है। अखबार हों या चैनल या यूट्यूब चैनल या फिर अल्पकालिक रीलें, सबके ऊपर सरकारी विज्ञापनों की चादर चढ़ी है। जिसके जितने लम्बे पांव हैं, उसको उतनी बड़ी चादर भेंट की गई है। अर्थात आप सरकारी चादर ओढ़कर लम्बी तानकर सोइये और जनता को भी सोने के लिए तैयार कीजिये। हमारा मीडिया ये ड्यूटी बखूबी निभा रहा है। 

आपको यकीन नहीं होगा किन्तु ये विचित्र किन्तु सत्या जैसा है कि भारतीय मीडिया की साख देश और दुनिया में दो कौड़ी की हो गयी है। और ये सब हुआ है भारतीय मीडिया के जन-पक्षधरता से दूर जाने की वजह से। आज मीडिया के हर स्वरूप में पत्रकार कम कठपुतलियाँ ज्यादा हैं। उनका काम खबरें तलाशना या तराशना नहीं बल्कि उपलब्ध कराई गयी खबरों  को चीख-चीखकर पढ़ना, सुनाना और छापना भर रह गया है। जो पत्रकार थे वे धीरे-धीरे लतिया दिए गए हैं। एक समय मीडिया मुगल कहे जाने वाले अधिकाँश पत्रकारों को नौकरियों से बेदखल कर दिया गया है क्योंकि वे सरकार की आँखों के लिए किरकिरी थे। 

सरकार को जो फूटी आँख न सुहाता हो उसे कोई भी मीडिया घराना अपने यहां रख सकता है? आज गुजरे जमाने के तमाम पत्रकार, प्रस्तोता मजबूरी में 'यू-ट्यूबर' बन गए हैं। सरकार यहां भी उनके पीछे पड़ी है। लेकिन दैवयोग से वे अभी यहां आजाद हैं।

देश की सत्ता और मीडिया का मुख्य मुद्दों और जन पक्षधरता से मुंह मोड़ना महज संयोग नहीं है। संयोग तो पल दो पल ठहर कर चला जाता है।  ये तो एक साजिश है। एक दुरभि संधि है जो अलोकतांत्रिक है। लेकिन ये लोकतंत्र में ही मुमकिन है। तानाशाही में तो इसकी ज़रूरत ही नहीं पड़ती। हमारे पड़ोस में चीन है। वहाँ मीडिया की ज़रूरत ही नहीं है। चीन की ही तरह हमारा लोकतंत्र और मीडिया खरामा-खरामा एकाधिकार की ओर बढ़ रहा है। क्या दिखाया जाना है, क्या पढ़ाया जाना है? ये मीडिया नहीं, कोई और तय करने लगा है। 1975 में भारत में यही सब प्रयोग तत्कालीन केंद्र सरकार ने किये थे और 19 महीने बाद हुए आम चुनाव में इसकी सजा भी भुगती थी, दुर्भाय ये है कि आज की सरकार 1975 की सरकार की गलतियों से सबक लेने के बजाय उनका अनुशरण करती दिखाई दे रही है।

आप ही सोचिये कि यदि सीमा हैदर पाकिस्तान की जासूस निकल आये तो इससे देश की जनता को क्या हासिल होने वाला है? इससे भी सरकार की भद्द पिटेगी कि सीमा हैदर सरकार की तमाम घेराबंदी के बावजूद भारत में प्रवेश कैसे कर गयी? मान लीजिये यदि ज्ञानवापी में कोई मंदिर निकल आये तो इससे क्या होगा, ज्यादा से ज्यादा कि मंदिर पर अतीत के मुगल आतताइयों ने कब्जा कर मस्जिद तान दी थी। इन खबरों से घायल मणिपुर को तो मरहम मिलने वाली नहीं है। टमाटर सस्ता होने वाला नहीं है। रसोई गैस के दाम कम होने वाले नहीं हैं। पेट्रोल सस्ता होने वाला नहीं है। यानी मीडिया का 'खर्ब' अब सत्ता के हाथी के कान के ऊपर नहीं है, उलटे सत्ता का 'खर्ब' [अंकुश ] मीडिया के नाजुक कान के ऊपर टिका है।

देश का दुर्भाग्य है कि देश के मीडिया को गोदी में बैठाने की जो पहल भाजपा की सरकारों ने की थी आज उसकी नकल दूसरे दलों की सरकारें भी खुल्ल्मखुल्ला कर रही हैं। पंजाब हो, दिल्ली हो, राजस्थान हो, छत्तीसगढ़ हो, मध्यप्रदेश हो, सब जगह मुख्यमंत्री खुद विज्ञापनों में मुख्य किरदार में हैं। वे सरकार के लिए कम विज्ञापन के लिए ज्यादा काम करते नजर आ रहे हैं। चुनावी मौसम में तो ये सरकारें, ये मुख्यमंत्री और इन सबसे ऊपर प्रधानमंत्री के पास न जाने कहाँ से इतना पैसा आ जाता है कि वे मीडिया का 75  फीसदी हिस्सा अपने विज्ञापनों से आच्छादित कर देते हैं? आप सुबह अखबार का पहला पन्ना देखें या किसी टीवी चैनल का समाचार, मनोरंजन का कार्यक्रम आपको सबसे पहले मुस्कराते हुए प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री दिखाई देंगे। 

सरकार चाहती ही नहीं कि आपको सुबह-सुबह मणिपुर में सरेआम गोली से मारी जाती, सामूहिक बलात्कार का शिकार होती औरतें दिखाई दें। सरकार चाहती ही नहीं कि आप किसी आदिवासी के सर पर किसी बाहुबली को पेशाब करता देखकर अपना पूरा दिन खराब करें। यानी सरकारें एक तरह से लोककल्याण का काम कर रहीं है।

इस लोकतंत्र में किसी भी दल की कैसी भी सरकार हो, यानी जनादेश से बनी हो या धनादेश से। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता सबका एक ही चरित्र है और एक ही लक्ष्य है कि देश के मीडिया को पालतू कुत्ता बनाओ। गले में जंजीर डालो, दरवाजे के बाहर बाँध दो। खूबसूरत पात्रों में लजीज खाना खाने को दो और उसको चोर, उच्चकों और सेंधमारों को देखकर भौंकना भुला दो। एक जमाने में मीडिया को 'वाच डॉग' के मुहावरे के तौर पर कहा जाता था लेकिन आज का मीडिया सचमुच का पालतू श्वान बन गया है। आदमी चाहे तो कुछ भी कर सकता है और सरकार के लिए तो कुछ भी नामुमकिन है ही नहीं। आज तो बिलकुल नहीं। आज का तो मुहावरा ही है की- ‘साहब है तो मुमकिन है'। ऐसे में मीडिया का ऊपर वाला ही मालिक है। हम और आप जैसे लोग केवल अरण्यरोदन कर सकते हैं। जंगल में रोती स्त्री हो या शेर, कोई उसकी सुनने वाला नहीं होता। आज मणिपुर की ही नहीं, बल्कि पूरे देश की यही दशा है।

बहरहाल हम गांधीवादी लोग हैं। हालाँकि हम साबरमती में गांधी के आश्रम को नेस्तनाबूद होने से बचाने में नाकाम रहे लेकिन हमने सत्य, अहिंसा का रास्ता नहीं छोड़ा। मीडिया के लिए भी गांधी की स्मृतियों पर चलता बुलडोजर कोई ख़बर नहीं है। हमें आज भी उम्मीद है कि 'अच्छे दिन' आएंगे। हमारा आशावाद ही हमारी असली पूंजी है। बाक़ी तो सब सरकार ने छीन ही लिया है। चूंकि आशा पर ही आसमान टिका है इसलिए हम जैसे लोग, आप जैसे लोग भी इसी उम्मीद के सहारे आने वाले अच्छे-बुरे दिनों के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं। हमारे साथ न सत्ता प्रतिष्ठान है और न मीडिया के मुग़ल। हम अकेले हैं, बेहद अकेले।

(राकेश अचल के फ़ेसबुक पेज से साभार)

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