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नेहरू को कोसने वाले बताएँ, सावरकर-जिन्ना किसके वफ़ादार थे?

नेहरू को कोसने वाले बताएँ, सावरकर-जिन्ना किसके वफ़ादार थे?

सत्ताधारी लोगों के भाषणों को सुनकर ऐसा लगा कि कश्मीर की समस्या के लिए केवल जवाहरलाल नेहरू ज़िम्मेदार थे। क्या नेहरू ज़िम्मेदार थे? क्या स्वतंत्रता आंदोलन में उनका योगदान कोई मायने नहीं रखता?

कश्मीर में छह महीने राज्यपाल शासन बढ़ाने के लिए संसद में लाये प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान सरकार की तरफ़ से जो भी भाषण हुए उसमें जवाहरलाल नेहरू का नाम बार-बार आया। सत्ताधारी लोगों के भाषणों को सुनकर ऐसा लगा कि कश्मीर की समस्या के लिए केवल जवाहरलाल नेहरू ज़िम्मेदार थे। चुनावी सभाओं में तो नेता लोग कुछ भी कह सकते हैं लेकिन संसद के पवित्र कक्ष में ऐसी बातों को कहने से परहेज किया जाना चाहिए। इस बात में कोई शक की गुँजाइश नहीं है कि देश की आज़ादी महात्मा गाँधी की अगुवाई में हासिल की गई थी लेकिन उस सारी प्रक्रिया में जवाहरलाल नेहरू का योगदान किसी से कम नहीं है और नेहरू के योगदान को कम करने से किसी को कोई लाभ नहीं होने वाला है। 

आज़ादी की लड़ाई में महात्मा गाँधी की अगुवाई में देश ने 1942 में 'अँग्रेज़ों भारत छोड़ो' का नारा दिया था। उसके पहले क्रिप्स मिशन भारत आया था जो भारत को ब्रितानी साम्राज्य के अधीन किसी तरह का डामिनियन स्टेटस देने की पैरवी कर रहा था। देश की अगुवाई की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस ने स्टफोर्ड क्रिप्स को साफ़ मना कर दिया था। कांग्रेस ने 1929 की लाहौर कांग्रेस में ही फ़ैसला कर लिया था कि देश को पूर्ण स्वराज चाहिए। लाहौर में रावी नदी के किनारे हुए कांग्रेस के अधिवेशन में तय किया गया था कि पार्टी का लक्ष्य अब पूर्ण स्वराज हासिल करना है। उस अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस अध्यक्ष थे। 1930 से ही देश में 26 जनवरी के दिन स्वराज दिवस का जश्न मनाया जा रहा था। इसके पहले कांग्रेस का उद्देश्य होम रूल था। इसी अधिवेशन की परिणति थी कि देश में 1930 का महान आन्दोलन, सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू हुआ। नमक सत्याग्रह या गाँधी जी का दांडी मार्च इसी फ़ैसले को लागू करने के लिए किया गया था। 1930 के आन्दोलन के बाद अँग्रेज़ सरकार ने भारतीयों को ज़्यादा गंभीरता से लेना शुरू किया।

जब से केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी है तब से देश के निर्माण और आज़ादी की लड़ाई में जवाहरलाल नेहरू के योगदान को नज़रअंदाज़ करने का फैशन हो गया है। सवाल उठता है कि जवाहरलाल नेहरू के योगदान का उल्लेख किये बिना भारत के 1930 से 1964 तक के इतिहास की बात कैसे की जा सकती है

जिस व्यक्ति को महात्मा गाँधी ने अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था, जिस व्यक्ति की अगुवाई में देश की पहली सरकार बनी थी, जिस व्यक्ति ने मौजूदा संसदीय लोकतंत्र की बुनियाद रखी, जिस व्यक्ति ने संसाधनों के अभाव में भी अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भरता की डगर पर डाल कर दुनिया में गौरव का मुकाम हासिल किया उसको अगर आज़ाद भारत के राजनेता भुलाने का अभियान चलाते हैं तो यह उनके ही व्यक्तित्व पर प्रकाश डालता है।

नेहरू रिपोर्ट का अतुल्य योगदान 

देश की आज़ादी के लिए जो आन्दोलन चलाया गया उसमें नेहरू रिपोर्ट का अतुल्य योगदान है। यह रिपोर्ट 28-30 अगस्त 1928 के दिन ऑल पार्टी कॉन्फ़्रेंस में तैयार की गयी थी। यही रिपोर्ट महात्मा गाँधी की होमरुल की माँग को ताक़त देती थी। इसी के आधार पर डामिनियन स्टेटस की माँग की जानी थी। इस रिपोर्ट को एक कमेटी ने बनाया था जिसके अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू थे। इस कमेटी के सेक्रेटरी जवाहरलाल नेहरू थे।

1942 का आन्दोलन और नेहरू 

दुनिया का मामूली इतिहासकार भी जानता है कि भारत की आज़ादी में 1942 के आन्दोलन की निर्णायक भूमिका है। उस आन्दोलन में जवाहरलाल नेहरू की भूमिका अविस्मरणीय है। इस आंदोलन के लिए बम्बई में कांग्रेस कमेटी ने जो प्रस्ताव पास किया था, उसका ड्राफ़्ट भी जवाहलाल नेहरू ने बनाया था और उसको विचार के लिए प्रस्तुत भी नेहरू ने ही किया था। भारत छोड़ो आन्दोलन के दिन 9 अगस्त 1942 को उनको मुंबई से गिरफ्तार किया गया था और 15 जून 1945 को रिहा किया गया था। यानी उस आन्दोलन में भी 34 महीने से ज़्यादा वह जेल में रहे थे। इसके पहले भी वह अक्सर जेल भेजे जाते रहे थे।

जो लोग नेहरू को खलनायक बनाने की कोशिश कर रहे हैं, ज़रा कोई उनसे पूछे कि उनके राजनीतिक पूर्वज सावरकर, जिन्ना आदि उन दिनों ब्रिटिश हुक़ूमत की वफ़ादारी के ईनाम के रूप में कितने अच्छे दिन बिता रहे थे। सावरकर तो माफ़ी माँग कर जेल से रिहा हुए थे।

अंडमान की जेल में वी. डी. सावरकर सजायाफ्ता कैदी नम्बर 3278 के रूप में जाने जाते थे। उन्होंने अपने माफ़ीनामे में साफ़ लिखा था कि अगर उन्हें रिहा कर दिया गया तो वह आगे से अँग्रेज़ों के हुक़्म को मानकर ही काम करेंगे और ब्रिटिश साम्राज्य के हित में ही काम करेंगे। इतिहास का कोई भी विद्यार्थी बता देगा कि वी. डी. सावरकर ने जेल से छूटने के बाद ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे महात्मा गाँधी के आन्दोलन को ताक़त मिलती हो। बल्कि हिन्दू महासभा के नेता के रूप में अँग्रेज़ों के हित में ही काम किया।

देश के हीरो

भारत छोड़ो आन्दोलन की एक और उपलब्धि है। अहमदनगर फ़ोर्ट जेल में जब जवाहरलाल बंद थे उसी दौर में उनकी किताब 'डिस्कवरी ऑफ़ इण्डिया' लिखी गयी थी। जब अँग्रेज़ हुक्मरान को पता लगा कि कांग्रेस वर्किंग कमेटी के बारह सदस्य एक ही जगह रहते हैं और वहाँ राजनीतिक मीटिंग करते हैं तो सभी नेताओं को अपने राज्यों की जेलों में भेजा जाने लगा। मार्च 1945 में गोविंद वल्लभ पन्त, आचार्य नरेंद्र देव और जवाहरलाल नेहरू को अहमदनगर से हटा दिया गया। बाक़ी  गिरफ्तारी का समय इन लोगों ने यूपी की जेलों, बरेली, नैनी अल्मोड़ा में काटा। 

जब इन लोगों को गिरफ्तार किया गया था तो किसी तरह की चिट्ठी पत्री लिखने की अनुमति नहीं थी और न ही कोई चिट्ठी आ सकती थी। बाद में नियम थोड़ा बदला। हर हफ़्ते इन कैदियों को अपने परिवार के लोगों के लिए दो पत्र लिखने की अनुमति मिल गयी। परिवार के सदस्यों के चार पत्र आ सकते थे। लेकिन जवाहर लाल नेहरू को यह सुविधा नहीं मिल सकी क्योंकि उनके परिवार में उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित और बेटी इंदिरा गाँधी ही थे। वे लोग भी यूपी की जेलों में बंद थे और वहाँ की जेलों में बंदियों को कोई भी चिट्ठी न मिल सकती थी और न ही वे लिख सकते थे। इसलिए भारत छोड़ो आन्दोलन का ज़िक्र होगा तो महात्मा गाँधी के साथ अहमदनगर फ़ोर्ट में बंद रहे उन बारह कांग्रेसियों का ज़िक्र ज़रूर होगा जो जब जेल से रिहा हुए तो देश ने उनको हीरो के रूप में स्वीकार किया।

महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरू का किरदार अब विश्व की धरोहर है। भारत में अगर हम उनको अपमानित करके मामूली राजनीतिक लाभ लेने के चक्कर में पड़े तो विश्व का सभ्य और न्यायप्रिय समाज उनको कभी नहीं भूलने देगा।

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