गाँधी जयंती: सुन लो गोडसे, आज भी गाँधी ज़िंदा हैं
सत्य और अहिंसा को निजी जीवन का आधार बनाने और समाज के नव-निर्माण की बुनियाद बनाने के लिए अपना जीवन समर्पित करने के कारण गाँधीजी देश-काल-पात्र से परे के नायक माने जाते हैं। गाँधीजी की जीवन-यात्रा में प्राचीन और आधुनिक आदर्शों का समन्वय हुआ। उनका व्यक्तित्व पूर्व और पश्चिम का विशिष्ट संगम था।गाँधीजी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी संत विनोबा की समझ में गाँधीजी को पाँच प्राचीन स्रोतों से प्रकाश मिला – गीता, तुलसीदास कृत रामचरित मानस, जैनचिंतन परंपरा, ईसा की सिखावन, और भक्ति आन्दोलन के संतकवि। दूसरी तरफ़, उनको आधुनिक मनस्वियों में से श्रीमद् राजचंद्र, लेव तोलस्तोय, जॉन रस्किन, और हेनरी डेविड थोरो से बुनियादी मूल्यों का बोध हुआ। यह अकारण नहीं था कि उनको गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने ‘महात्मा’ माना और नेताजी सुभाष बोस ने ‘राष्ट्रपिता’ कहा। लेकिन अपने यश और प्रभाव के बावजूद गाँधीजी आजीवन लगातार आलोचनाओं के निशाने पर रहे।अंतत: आज़ादी के बाद देश-विभाजन से भड़की साम्प्रदायिकता की हिंसा के दौरान हिन्दू-मुसलमानों-सिखों के बीच परस्पर सद्भाव व प्रेम की स्थापना की उनकी नोआखाली और बिहार से लेकर दिल्ली तक की अविश्वसनीय कोशिशों से क्षुब्ध एक गिरोह ने तो उनकी हत्या ही कर डाली। यह अलग बात हुई कि हत्यारे सिर्फ़ गाँधीजी के शरीर को नष्ट कर सके। उनका कर्मकाय और विचारकाय तो मानव सभ्यता के शुभ पक्ष का अमिट अंश बन गया।
यह याद करने की ज़रूरत नहीं है कि ‘हिंदुत्व’ के सिद्धांतकार सावरकर और ‘द्वि-राष्ट्रवाद’ के समर्थक और पाकिस्तान के जनक मुहम्मद अली जिन्ना से लेकर साम्प्रदायिकतावादियों और साम्यवादियों की उनसे गंभीर असहमतियाँ थीं। उनकी अपनी राजनीतिक संस्था कांग्रेस पार्टी भी उनसे अलग चलती थी।इसीलिए 1934 के बाद उन्होंने कांग्रेस की साधारण सदस्यता भी त्याग दी थी। अपने जीवन के अंतिम 14 बरस वह निर्दलीय समाजसुधारक और सर्वोदय-साधक रहे।
स्वयं उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी जवाहरलाल नेहरू ने भी 1945 में उनको लिख कर बताया था कि “मुझे ‘हिन्द स्वराज’ को पढ़े बहुत साल हो गए और मेरे दिमाग में सिर्फ़ धुँधली-सी तसवीर है। लेकिन जब मैंने उससे 20 साल पहले इसे पढ़ा था तब भी वह मुझे असलियत से एकदम परे लगा था।उसके बाद के आपके भाषणों और लेखों में मुझे बहुत कुछ ऐसा मिला है, जिससे पता चलता है कि आप पुरानी हालत से आगे बढ़े हैं और आधुनिक धाराओं की पसंदगी भी उनमें दिखाई देती है। इसलिए मुझे ताज्जुब हुआ जब आपने हमें बताया कि अब भी पुरानी तसवीर आपके दिमाग में ज्यों-की-त्यों कायम है। जैसा कि आप जानते हैं, कांग्रेस ने इस तसवीर पर कभी ग़ौर नहीं किया, उसे मंज़ूर करने की तो बात ही अलग है।” आज भी गोलवलकरवादियों और आम्बेडकरवादियों से लेकर माओवादियों और कॉर्पोरेट पूंजीवादियों तक के बीच गाँधीजी के बताए मार्ग को लेकर गहरी शँकाएँ हैं।
इस अवधि में गाँधीजी के जीवन, विचार और आदर्शों को लेकर दुनिया भर में दिलचस्पी लगातार बढ़ती गई है। ईसा मसीह के बाद उनके जीवन और विचारों के बारे में ही सबसे ज़्यादा किताबें लिखी गयी हैं। क्यों?
इसलिए कि तमाम बाधाओं और सीमाओं के बावजूद उनका कर्म और विचार इस तेज़ी से बदलती दुनिया के लोगों के बीच मार्गदर्शक बनते गए हैं। ये मार्गदर्शक असत्य के ख़िलाफ़ सत्य, हिंसा के ख़िलाफ़ अहिंसा, युद्ध के ख़िलाफ़ शांति, भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ नैतिकता, ग़ुलामी के ख़िलाफ़ स्वराज, पर्यावरण-प्रदूषण के ख़िलाफ़ प्रकृति संरक्षण और अन्याय के ख़िलाफ़ न्याय के संघर्षों में सहज प्रेरणा-स्रोत के रूप में हैं।इसमें उनकी आठ दशक लम्बी और भारत, इंग्लैंड और दक्षिण अफ़्रीका के विस्तार में संपन्न रोमांचक जीवन साधना का बुनियादी योगदान है। इसी के समानांतर, उनसे दिशा पानेवाले देशी और विदेशी व्यक्तियों और आंदोलनों का बड़ा महत्व है। लेकिन इसमें से एक सरोकारी व्यक्ति या संगठन या आन्दोलन के लिए क्या काम का है?
हम भारतीयों के लिए 21वीं शताब्दी की अनेकों चुनौतियों में से तीन प्रश्न सर्वोच्च महत्व के हैं-
- निजी जीवन आनंदमय कैसे हो?
- राष्ट्र-निर्माण की मुख्य बाधाएँ क्या हैं और उन्हें कैसे दूर करें?
- मानव-समाज को पापमुक्त कैसे बनाएँ?
आइए देखें कि क्या इस संदर्भ में गाँधी-मार्ग की कोई प्रासंगिकता है?
व्यक्तिगत जीवन को संतोषपूर्ण कैसे बनाएँ?
मानवमात्र के सफल और शांतिमय जीवन की चुनौती को गाँधीजी ने सर्वोच्च महत्व का प्रश्न माना था। उनके अनुसार जीवन में सुख की प्राप्ति और सार्वजनिक जीवन के दोषों को दूर करने की कुंजी साधारण स्त्री-पुरुष के हाथ में है। इसके लिए सनातन आदर्शों को जीवन में उतारना ही सहज मार्ग है। गाँधीजी ने इन्हें अपने जीवन का आधार बनाया और अपने आश्रमवासियों की आचार-संहिता में शामिल किया। आज भी गाँधी-मार्गियों के लिए ये ग्यारह सूत्र बुनियादी जीवन मूल्य हैं। गाँधीजी ने इन्हें ‘एकादश व्रत’ की संज्ञा दी है-
अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचारी असंग्रह,
सर्वधर्म समानत्व स्वदेशी न अस्पृश्यता,
शरीरश्रम अस्वाद अभय व्रत आश्रमे।
राष्ट्र-निर्माण की चुनौतियाँ – गाँधीजी की सूची
भारतीय राष्ट्र-निर्माण की चुनौतियों की अलग-अलग विचारधाराओं में अलग-अलग समझ रही है। लेकिन गाँधीजी ने इनकी पहचान के लिए दक्षिण अफ़्रीका से लेकर चंपारण तक के अपने सघन अनुभवों और तोलस्तोय फ़ार्म, फ़ीनिक्स आश्रम, साबरमती आश्रम और सेवाग्राम के सहजीवन के निष्कर्षों को आधार बनाया था। फिर इन्हें जुलाई, 1946 में लिपिबद्ध करके ‘रचनात्मक कार्यक्रम’ के रूप में गुजराती, हिंदी और अँग्रेज़ी में प्रकाशित किया। गाँधीजी के सहयोगी वालजी गोविन्दजी देसाई ने 1959 में इसका सम्पादित संस्करण तैयार किया- ‘चरित्र और राष्ट्र-निर्माण’।
भारतीय राष्ट्र-निर्माण में गाँधीजी को स्वतंत्रता की पूर्व-संध्या के दिनों में कम से कम 18 प्रश्न प्रासंगिक लगते थे। गाँधीजी ने सजग किया था कि हमारे स्वराज की पूर्णता और अहिंसक समाज की रचना के लिए इनका समाधान अनिवार्य है। दूसरी तरफ़ सविनय अवज्ञा और सत्याग्रह की प्रभावशीलता के लिए भी इसमें समय लगाना एक ज़रूरी शर्त थी।
इनमें सामाजिक मोर्चे पर सांप्रदायिक सद्भाव, अस्पृश्यता उन्मूलन, स्त्री स्वतंत्रता, आदिवासियों की सेवा और शराब और नशाखोरी से मुक्ति को महत्वपूर्ण माना गया।
आर्थिक संदर्भ में खादी, ग्रामोद्योग, आर्थिक समानता की अनिवार्यता और पशुधन संवर्धन को प्राथमिकता दी गयी।
सांस्कृतिक नव-निर्माण के लिए स्वच्छता, बुनियादी शिक्षा, स्वास्थ्य-चेतना, प्रादेशिक भाषाओं का संवर्धन और उपयोग, राष्ट्रभाषा के लिए संकल्प और कोढियों (और अन्य उपेक्षितों) की सेवा की ज़रूरत का ध्यान दिलाया गया।
राजनीतिक दृष्टि से किसानों, श्रमिकों, महिलाओं, निरक्षर वयस्कों और विद्यार्थियों के लिए विविध दायित्व सुझाए गए।
क्या इसमें कोई संदेह है कि सात दशकों से चलायी जा रही महानगर अभिमुख विकास योजनाओं के निराशाजनक नतीजों के कारण आज़ादी के इतने साल बाद इन सवालों का आज भी बहुत महत्व है? अभी भी सही राह पर चलने में देर नहीं हुई है।
मानव-समाज पाप-मुक्त कैसे बने?
गाँधीजी ने सनातन चिंतन धारा के प्रवाह के अध्ययन और निरीक्षण के आधार पर तीन चुनौतियों को मानव समाज में व्याप्त विकृतियों के मूल में पाया। एक तो, ‘स्व’ और ‘अन्यता’ के बीच का बढ़ता फासला। ‘स्व’ के प्रति प्रेम और ‘अन्य’ के प्रति उपेक्षा और दूरी सहज भाव होते हैं। लेकिन आधुनिक मनुष्यों के बीच ‘स्व’ की परिभाषा सिमटती जा रही है। इससे ‘परायेपन’ का निरंतर विस्तार होता है और मानव समाज ‘पराये या अन्य’ के प्रति आशंका, अविश्वास और असुरक्षा के माहौल से उद्वेलित होने को अभिशप्त हो जाता है।दूसरे, हम आधुनिक काल में ‘आवश्यकता’ और ‘लोभ’ में अंतर भुलाए जा रहे हैं। सादगी की जगह ‘विलासिता’ का आकर्षण लोभ को प्रबल बनाता है। आवश्यकताओं को न्यूनतम बनाने की पारम्परिक विवेकशीलता की जगह बाज़ार-प्रेरित प्रचुरता को सुख का आधार समझना बड़ी भूल है। तीसरे, ‘आत्म-संयम’ की ‘इन्द्रिय-सुख’ की प्रबलता मनुष्य को अनेकों समस्याओं से पीड़ित करती है। हमारे जीवन में सात्विकता की कमी और तामसिकता की बढ़ोतरी होती है।
इन्हीं मान्यताओं के आधार पर गाँधीजी ने मनुष्यों के बीच फैल रहे सात महापापों के प्रति सतर्क रहने की ज़रूरत समझायी है।
- बिना परिश्रम के संपत्ति का होना,
- चरित्रहीन ज्ञान,
- अनैतिक व्यापार,
- अविवेकपूर्ण सुख और आनंद,
- सिद्धान्तहीन राजनीति,
- अमानवीय विज्ञान, और
- त्याग-रहित धर्म।
अगर हम निजी और सामूहिक रूप से सजगता रखें तो मनुष्यों का पापमुक्त सामुदायिक और राष्ट्रीय जीवन कठिन नहीं होगा।