पाखंड से परे - महात्मा गाँधी
महात्मा गाँधी पर इतने लोगों द्वारा इतने दृष्टिकोणों से इतना लिखा जा चुका है कि कोई नई बात कह पाना असंभव सा है। उनकी बहुत सी बातें ऐसी हो सकती हैं जिनकी प्रासंगिकता न बची हो। लेकिन एक बात ऐसी है जिसकी प्रासंगिकता दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। वह है पाखंड से दूर रहते हुए ईमानदारी से जीना।
विश्व नेता और विचारक के रूप में उनकी सबसे अनूठी देन कथनी और करनी में कोई अंतर न रखते हुए जीवन को अपने विचारों का प्रतिबिंब बना कर दिखाना रही है। साफ़-सफ़ाई जैसे छोटे-मोटे काम से लेकर पारदर्शिता, सत्य और अहिंसा जैसे बड़े और कठिन कामों के बारे में गाँधी जी जो सोचते और कहते थे वही करते भी थे।
उन्होंने भारत के ग़रीबों और देहात की बात करने से पहले उन्हें समझना और उनकी तरह रहना शुरू किया। ऊँच-नीच और छुआ-छूत का भेद मिटा कर बराबरी की बात करने से पहले अपना मैला ख़ुद साफ़ करना शुरू किया। अपना कूड़ा साफ़ करना तो दूर आज लोग अपने कचरे को रिसाइकल करने के लिए अलग करने तक को तैयार नहीं होते।
गाँधी जी ने स्वावलंबन और ग्राम स्वराज की बात करने से पहले अपना सूत कातना और अपने काम ख़ुद करना शुरू किया। वे चाहते तो जिन्ना और दूसरे नेताओं की तरह आराम की ज़िंदगी बसर करते हुए भी नेतृत्व कर सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। क्योंकि वे पाखंड से दूर रहते थे। जैसा अनुभव करते और जो कहते थे वही करते भी थे। इन्हीं विशेषताओं ने उन्हें दुनिया का सबसे बड़ा, अनूठा और पहचाना जाने वाला ब्रांड बनाया। पाखंड से परे ईमानदारी के जीवन ने उन्हें जनसंचार और सोशल मीडिया के ज़माने से सौ साल आगे रखा और दुनिया के सबसे बड़े और शक्तिशाली साम्राज्य की जड़ें उखाड़ फेंकी।
गाँधी जी चाहते थे कि लोग शिक्षित, सशक्त, निर्भय और आत्मनिर्भर बनें। अपने काम ख़ुद करना और बेहतरी से करना सीखें। गाँव के लोग अपनी साफ़-सफ़ाई, बुनियादी स्वास्थ्य, प्राथमिक शिक्षा, रोज़गार और सुरक्षा के लिए सरकार का मुँह ताकने के बजाय स्वावलंबी बनें और इनकी व्यवस्था स्वयं करें। हर छोटे-मोटे काम को सरकार के भरोसे छोड़ने के पीछे उन्हें वे काम दूसरों पर छोड़ने का पाखंड नज़र आता था जिन्हें लोग ख़ुद नहीं करना चाहते।
बड़ी सरकार और जीवन के हर काम में दख़ल देने वाली सरकार के समाजवादी विचार के उलट गाँधी जी छोटी सरकार और निजी उद्यम के हामी थे। हिंसा, बल-प्रयोग और टैक्स के द्वारा जबरन छीन कर सामाजिक न्याय और बराबरी लाने की समाजवादी धारणा में भी उन्हें पाखंड नज़र आता था।
तानाशाही से वर्गहीन और शोषणविहीन समाज बनाने के साम्यवादी पाखंड की पोल खोलते हुए गाँधी जी ने अपने पत्र हरिजन में लिखा, "मैं परोपकारी या अन्य किसी प्रकार की तानाशाही को स्वीकार नहीं कर सकता। उसमें न को अमीर मिटेंगे और न ग़रीबों को संरक्षण प्राप्त होगा। हाँ, कुछ अमीर मार ज़रूर दिए जाएँगे और कुछ ग़रीबों को घर बैठे रोटी दे दी जाएगी। तथाकथित परोपकारी तानाशाही के बावजूद, एक वर्गा के रूप में, अमीर भी रहेंगे और ग़रीब भी। असली इलाज अहिंसक लोकतंत्र है, जिसे सबके लिए सच्ची शिक्षा भी कहा जा सकता है। अमीरों को कारिंदे के रूप में काम करने के सिद्धांत की सीख दी जानी चाहिए और ग़रीबों को स्वावलंबन की।"
गाँधी जी समाजवादी राष्ट्रीयकरण के भी ख़िलाफ़ थे। उन्होंने अपनी पुस्तक मेरा समाजवाद में लिखा है, "मेरा विश्वास निजी उद्यम में है और आयोजनबद्ध उत्पादन में भी है। अगर समस्त उत्पादन केवल राजकीय क्षेत्र में हुआ तो लोग नैतिक और बौद्धिक दृष्टि से कंगाल हो जाएँगे। वे अपनी ज़िम्मेदारियाँ भूल जाएँगे। इसलिए मैं पूँजीपतियों के पास उनकी फ़ैक्टरियाँ और ज़मींदारों के पास उनकी ज़मीनें रहने दूँगा, लेकिन उनसे यह कहूँगा कि वे स्वयं को अपनी संपत्ति का न्यासी ही समझें।"
समाजवादी और पूँजीवादी दोनों व्यवस्थाओं में गाँधी जी की बातें पूरी तरह चरितार्थ हुई हैं। साम्यवादी देशों में निकम्मेपन से अर्थव्यवस्थाएँ ठप हो गईं और पूँजीवादी देशों में कारोबारियों के स्वार्थ और लालच पर अंकुश लगाने के लिए कारोबारी सामाजिक दायित्व के नियम लागू करने पड़े।
गाँधी जी ने गाँव-गाँव घूम कर जान लिया था कि खेती और पशुपालन के साथ-साथ दस्तकारी और कुटीर उद्योग भारत की कृषि आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था की जान हैं। इसलिए वे सबसे पहले उनके विकास पर ज़ोर देते थे। वे बड़े उद्योगों और कल-कारख़ानों के विरोधी नहीं थे। वे औद्योगीकरण के भी हिमायती थे। पर दस्तकारी और कुटीर उद्योगों की क़ीमत पर नहीं। वे चाहते थे कि बड़े उद्योग भी दस्तकारी और कुटीर उद्योगों के विकास में सहायक बनें और उनकी माँग को पूरा करें।
लेकिन समाजवादी और पश्चिमी शैली के उद्योगों की नकल पर किए गए औद्योगीकरण के पाखंड ने दस्तकारी और कुटीर उद्योगों के विकास में सहायक होने के बजाय उनकी कमर तोड़ने का काम किया और गाँवों में बेरोज़गारी, ग़रीबी और देश में आर्थिक विषमता बढ़ती गई। उद्योगों के सरकारीकरण की वजह से औद्योगिक विकास की रफ़्तार भी भारत के समकक्ष देशों की तुलना में काफ़ी धीमी रही।
तेज़ी से बढ़ती आर्थिक विषमता को मिटाने के लिए बाज़ार से कर्ज़ लेकर पैसा बाँटने और आने वाली पीढ़ियों का भविष्य दाँव पर लगा कर सामाजिक न्याय करने का जो पाखंड चल रहा है, वह भी गाँधी जी के विचारों से मेल नहीं खाता। आर्थिक विषमता की समस्या पर गाँधी जी ने यंग इंडिया में लिखा, "यद्यपि हम समकक्ष पैदा हुए हैं अर्थात हमें बराबर अवसर पाने का अधिकार है, पर हम सबकी क्षमता एक जैसी नहीं होती। यह स्वभाव से असंभव है। यह स्वाभाविक है कि कुछ लोगों में ज़्यादा पैसा कमाने की योग्यता होगी और कुछ में कम। मैं बुद्धिमान व्यक्ति को अधिक कमाई करने का अवसर दूँगा, मैं उसकी प्रतिभा का गला नहीं घोटूँगा। लेकिन उसकी अतिरिक्ति कमाई का ज़्यादा हिस्सा राज्य की भलाई में इस्तेमाल किया जाना चाहिए।"
लेकिन ज़्यादा पैसे वाले का पैसा समाज की भलाई में कैसे लगे इसे लेकर गाँधी जी ने कभी सरकारी या ग़ैर सरकारी बल प्रयोग की बात नहीं की। उन्होंने हमेशा संपन्न लोगों में और पूरे समाज में सामाजिक दायित्व और परोपकार की भावना को जगाने और उसके सहारे असमानता दूर करने की हिमायत की। इसकी मिसाल के तौर पर बजाज परिवार जैसे उन कारोबारी परिवारों को लिया जा सकता है जिन्होंने गाँधी जी के साहचर्य में रहकर उनके सामाजिक दायित्व के सिद्धांतों को अपनाया।
वे हमेशा वैसी और उतनी ही बात करते थे जिस पर अमल किया जा सके और स्वयं उसे अमल में लाकर दिखाने के लिए तैयार रहते थे। कथनी और करनी में तालमेल रखने और पाखंड से दूर रहने के मामले में पंडित नेहरू भी गाँधी जी के सामने बहुत बौने नज़र आते हैं। गाँधी जी की यह ख़ूबी उनके बाद, एक हद तक, केवल लाल बहादुर शास्त्री में ही दिखाई देती है।
(लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक)
(शिवकांत के फ़ेसबुक पेज से साभार)