गांधी ने किसी की हत्या नहीं की। गांधी ने किसी पर लाठी चार्ज नहीं करवाया। उन्होंने आंदोलनकारी विद्यार्थियों को हॉस्टल और लॉज में घुसकर पिटवाया नहीं और न ही आंदोलन करने वालों की कभी संपत्ति कुर्क करवाई। गांधी ने कहीं दंगा नहीं करवाया। उन्होंने किसी धर्म और संगठन को कभी प्रतिबंधित नहीं करवाया। उन्होंने किसी को फांसी पर नहीं चढ़वाया। उन्होंने किसी की संपत्ति नहीं छीनी। वे कभी सत्ता में भी नहीं रहे। उन्होंने न ही कोई हथियार बनाया और न ही किसी के बनाए हथियार का इस्तेमाल किया। उन्होंने किसी को गाली भी नहीं दी, गोली मारने की तो बात ही दूर। बल्कि उन्होंने अपनी लाठी से भी किसी पर हमला नहीं किया। वे तो सांप को मारने की बजाय उसे पकड़कर जंगल में सुरक्षित छोड़ आते थे। उनकी हत्या की जब जब कोशिश हुई तब उन्होंने कभी प्रतिरोध नहीं किया। बल्कि सदैव अपने विरोधी के सामने सीना तानकर खड़े थे। अपनी हत्या का प्रयास करने वाले किसी भी हमलावर पर उन्होंने मुकदमा भी नहीं चलवाया।
आखिर में जब उन्हें गोली मारी गई तब भी उन्होंने कोई प्रतिरोध नहीं किया। बल्कि `हे राम’ कह कर अपने प्राण त्यागे। अगर वे आखिरी बार भी हमलावर की गोली से बच गए होते तो शायद यही कहते कि उस पर कोई मुकदमा न चलाए जाए और माफ़ कर दिया जाए क्योंकि वह नहीं समझ रहा है कि उसने क्या किया है। इसके बावजूद गांधी की शहादत के दिन क्यों उनकी हत्या और हत्यारों के समर्थक सक्रिय हो जाते हैं और विभिन्न मंचों पर अपनी विचारधारा और कृत्य का प्रदर्शन करते हैं? इस साल भी चर्चा है कि `मैंने गांधी को क्यों मारा’ नाम की कोई फिल्म ऑनलाइन रिलीज की जाएगी। अगर फिल्म का दिखाया जाना रोक भी दिया जाए तो सोशल मीडिया पर गोडसे की जयकार करने वाले ज़रूर सक्रिय होंगे।
सवाल उठता है कि कौन हैं वे लोग जो गांधी को मारने के चौहत्तर साल बाद फिर मारने के लिए ढूंढ रहे हैं? वे अंग्रेज तो नहीं हैं हालांकि उनके विशाल साम्राज्य को उखाड़ फेंकने में गांधी ने अकेले सबसे बड़ा योगदान दिया था। वे कम्युनिस्ट नहीं हैं। हालाँकि कम्युनिस्टों और गाँधी में काफी असहमतियाँ रही हैं लेकिन उन्होंने गांधी को पूंजीपतियों का दलाल कहकर उनकी कड़ी आलोचना भले की हो पर जीते जी ऐसा कोई धतकरम करने का प्रयास भी नहीं किया। बल्कि आज गांधीवाद के सबसे मुखर प्रवक्ता कम्युनिस्ट ही हो गए हैं। भगत सिंह को मानने वाले भी समझ गए हैं कि समता और सद्भाव के मामले में गांधी और भगत सिंह एक मंच पर ही खड़े हैं। वे आंबेडकरवादी भी नहीं हैं। हालांकि गांधी और आंबेडकर के बीच भारतीय इतिहास का सबसे तीखा टकराव हुआ और डॉ. आंबेडकर को आजीवन पूना समझौते की टीस रही। अस्सी और नब्बे के दशक तक आंबेडकरवादी गांधी समाधि पर तोड़फोड़ करते रहे और उन्हें राष्ट्रपिता मानने या उनके द्वारा दिए गए `हरिजन’ नाम को स्वीकार करने से इनकार करते रहे। लेकिन आंबेडकरवादियों ने काफी बहस और विमर्श के बाद गांधी को समझना और उनके प्रति पुरानी कटुता को बिसराना ही उचित समझा है।
गांधी को फिर मारने की कोशिश करने वाले मुस्लिम भी नहीं हो सकते क्योंकि जिन्ना के नेतृत्व में उग्र मुस्लिम समुदाय के तीखे गांधी और कांग्रेस विरोध के बावजूद उधर से ऐसा प्रयास नहीं हुआ। बल्कि जब गांधी पाकिस्तान जाने के लिए जिन्ना से अनुमति मांग रहे थे तो जिन्ना ने कहा था कि उनसे कह दो वे अभी न आएं क्योंकि अगर उनको कुछ हो गया तो मैं पाकिस्तान को संभाल नहीं पाऊंगा। हालाँकि, दो मुस्लिमों ने अन्य कारणों से गांधी की हत्या का प्रयास किया था जिनमें एक दक्षिण अफ्रीका में मीर आलम और दूसरे चंपारण के बत्तख मियां थे, लेकिन वे भी बाद में उनके भक्त बन गए थे। गांधी की फिर हत्या की कोशिश किसी सिख, बौद्ध, जैन, ईसाई और पादरी की ओर से भी नहीं की जा सकती क्योंकि उन्हें गांधी से कोई डर नहीं है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का गांधी से विरोध रहा है। उससे जुड़े लोगों ने हत्या के सफल प्रयास से पहले तीन बार दिल्ली और महाराष्ट्र में उन्हें मारने का प्रयास किया भी था। जब गांधी के शरीर की हत्या हुई थी तब हत्यारे के उस संगठन से संबंध भी चर्चित हुए थे। लेकिन इन दिनों संघ ने भी गांधी को प्रातःस्मरणीय बना दिया है। उनके तमाम पदाधिकारी और कार्यकर्ता गांधी का गुणगान करते हैं उन पर बहुत सारा अध्ययन कर रहे हैं और कम से कम खुलेआम तो गांधी का अपमान नहीं करते। उस संगठन से निकले राजनेताओं ने गणतंत्र दिवस समारोह का विस्तार भी सुभाष बाबू की जयंती 23 जनवरी से गांधी के शहादत दिवस 30 जनवरी तक कर दिया है।
निश्चित तौर पर गांधी को फिर से मारने का आह्वान करने वाले लोग उसी धर्म और समुदाय से हैं जिसमें स्वयं गांधी ने जन्म लिया था और जिसे पूरी दुनिया में प्रतिष्ठित करने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी।
उनकी हत्या की फिर से कोशिश करने वाले उसी राष्ट्र के लोग हैं जिसे स्वतंत्रता दिलाने, जिसे संगठित करने और जिसे एक लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश बनाने में उन्होंने पूरा जीवन लगा दिया और जान भी दे दी। जो लोग गांधी की हत्या का गौरवगान करते हैं और फिर उनकी हत्या यानी उनके विचारों की हत्या का आह्वान करते हैं उनके इरादे स्पष्ट हैं। वे हिंदू समाज का सैन्यकरण करना चाहते हैं, उसके भीतर से उदारता, क्षमा, दया और करुणा मिटाना चाहते हैं, अल्पसंख्यकों और विशेष तौर पर मुस्लिमों का सफाया करना चाहते हैं और भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं। उन्होंने गांधी के एक अनुयायी नेहरू को तो अपने निरंतर प्रयासों से दफना देने में कामयाबी हासिल कर ली है और विचार से ज़्यादा कर्म में यक़ीन करने वाले दूसरे अनुयायी पटेल के सोच बारे में लोगों को भ्रमित कर दिया है। लेकिन उनके सामने गांधी की विचारधारा एक बड़ी चुनौती बनकर खड़ी हो गई है। हालाँकि गांधी विचारधाराओं के दायरे से आगे निकलकर मानवता को केंद्र में रखते हुए विश्व सभ्यता का स्वप्न देखने वाले थे। यह स्थिति गांधी को और मज़बूत बनाती है।
गाँधी जहाँ हर आदमी को अभय बनाना चाहते थे, वहीं यह लोग हर आदमी को भयभीत करना चाहते हैं। गांधी जहाँ हर व्यक्ति को अपने बराबर लाना चाहते थे, वहीं यह लोग समाज में भेदभाव और ऊँचनीच की व्यवस्था कायम रखना चाहते हैं। गांधी जहां संत जैसा जीवन जीते हुए अपने को किसी से भी ज्यादा पवित्र नहीं मानते थे, वहीं यह लोग छल कपट और हिंसा का जीवन जीते हुए अपने को श्रेष्ठ बताकर दूसरों को हेय बनाना चाहते हैं। गांधी श्रेष्ठता भाव से मुक्त थे और उनका मानना था जो काम उन्होंने किया है वह कोई सामान्य व्यक्ति भी कर सकता है। उनकी यही सोच उन्हें मनुष्य बनाए रखती है और यही विनम्रता उन्हें अतिमानव के पायदान पर स्थापित कर देती है।
गांधी भारतीयता को समझने का, दुनिया को समझने का, अन्याय से लड़ने का और नफ़रत और सभ्यताओं के संघर्ष के विरुद्ध भाई चारे के साथ खड़े होने का मार्ग दिखा गए हैं। वह मार्ग उन लोगों से सहन नहीं हो रहा है जो दमन, हिंसा, नफरत और हथियारों के बूते पर एक राष्ट्र निर्मित करना चाहते हैं और हर समय युद्ध का डंका बजाए रखना चाहते हैं। गांधी अपने धर्म को प्यार करते थे लेकिन दूसरे धर्म को हीन नहीं मानते थे बल्कि उसे भी उतना ही सम्मान देते थे, वहीं यह लोग सदैव दूसरे धर्म को नीच मानते हैं और अपने धर्म को श्रेष्ठ बताते हैं। गांधी धर्म को ईश्वर और सत्य तक पहुँचने का मार्ग मानते थे और कहते थे कि सारे मार्ग अपूर्ण हैं, जबकि गांधी से नफरत करने वाले अपने ही रास्ते को एक मात्र रास्ता मानते हैं। ऐसे लोग भले यह दावा करें कि इस्लाम के मानने वाले सत्ता के लिए अपने पिता और भाई की हत्या करने से परहेज नहीं करते लेकिन वास्तव में वे स्वयं उस यूनानी ग्रंथि से पीड़ित हैं, जिसे सिगमंड फ्रायड ने `इडिपस कांप्लेक्स’ का नाम दिया है। इडिपस थेपस शहर का नायक था और उसने अनजाने में अपने पिता का क़त्ल किया था और माँ से विवाह कर लिया था।
पिता की हत्या की मनोग्रंथि बाल मनोविज्ञान में एक अवस्था के रूप में पाई जाती है और वह धीरे-धीरे समझ बढ़ने के साथ समाप्त हो जाती है। लेकिन जो लोग गांधी की हत्या का गौरवगान करते हैं और फिर उनके विचारों की हत्या की योजना बनाते हैं वे अभी अपने विकास की शैशवास्था में ही हैं और उनकी वह ग्रंथि समाप्त नहीं हुई है। बल्कि उनकी वह ग्रंथि ख़तरनाक स्थिति तक पहुँच गई है। गांधी जैविक पिता तो अपने चार पुत्रों के ही थे लेकिन उन्होंने इस देश के निवासियों को जिस तरह से स्नेह दिया उससे सुभाष बाबू के नेतृत्व में लोग उन्हें राष्ट्रपिता कह बैठे। गांधी उस पदवी के भूखे नहीं थे। न ही वे महात्मा कहलाया जाना पसंद करते थे। लेकिन वे राम और रामराज्य के उस मूल्य को समझते थे जहाँ सत्यधर्म के लिए सत्ता का त्याग और संघर्ष का वरण सबसे बड़ी मर्यादा थी। सत्ता के लिए पिता, भाई और सौतेली मां को दंड देने का भाव लक्ष्मण में बार-बार उभरता है। लेकिन राम उसे दबा देते हैं। वे सत्य और पुत्रमोह में फँसे अपने पिता की दुविधा समझते हैं और उन्हें उससे निकालने के लिए वनगमन करते हैं। हालाँकि वे पिता के प्राण नहीं बचा पाते लेकिन वे कम से कम उन्हें अपमानित करने, दंडित करने और उनका प्रतिरोध करने का विचार तो मन में नहीं लाते।
गांधी सत्य के लिए हरिश्चंद्र और राम दोनों के पथ का अनुगमन करते हैं। हरिश्चंद्र ने उन्हें बचपन में प्रभावित किया था और राम उन्हें आजीवन प्रेरित करते रहे। लेकिन उनके राम हिंसा और दमन वाले राम नहीं हैं। वे सत्य और अहिंसा वाले राम हैं जहाँ सत्य ही राम हो जाता है यानी सत्य ही ईश्वर बन जाता है। लेकिन आज रामराज्य का दावा करने वाले सत्ता और असत्य के लिए उनके पथ से विचलित हो रहे हैं। यही कारण है कि देश में गांधी की हत्या का गौरवगान बढ़ रहा है। बार-बार उसकी अनुगूंज सुनाई पड़ रही है।
गांधी ने अपने सत्य के प्रयोग के दौरान बहुत सारी `गलतियां’ कीं। उनमें से दो बड़ी `गलतियां’ उल्लेखनीय हैं। एक तो उन्होंने अपने को ईश्वर घोषित नहीं किया और दूसरे वे आग्रह और आमंत्रण के बावजूद यूरोप जाकर बसे नहीं। गांधी के पास पूरा मौका था अपने को ईश्वर घोषित करने का और भारत भूमि पर अपने को पूज्य बनाने का।
तब शायद हिंदू धर्म के अनुयायी उनके साथ वैसा व्यवहार न करते जैसा आज कर रहे हैं। दूसरा मौक़ा था उनके यूरोप में बस जाने और ईसाई धर्म से अपनी निकटता बढ़ाते जाने का। यूरोप के लोग उनमें ईसा मसीह का रूप देख रहे थे। 1931 में जब वे दूसरे गोलमेज सम्मेलन के लिए यूरोप के दौरे पर थे तब उनसे वहां के लोगों ने आग्रह किया था कि वे अपने प्रयोगों का विस्तार यूरोप में क्यों नहीं करते। द्वितीय विश्व युद्ध की आशंका से ग्रसित लोग उनसे बड़ी उम्मीद पाले थे। लेकिन गांधी ने यह कह कर मना किया कि वे धरती के जिस हिस्से पर अपना प्रयोग कर रहे हैं वहां वे उसकी सफलता देखना चाहते हैं। अगर उसके बाद जीवन बचा तो वे यूरोप की ओर रुख करेंगे।
आज भारत भूमि पर गांधी का बढ़ता विरोध और उनकी दुर्दशा देखकर लगता है कि उन्होंने भारत को भले सब कुछ दे दिया लेकिन भारत उसके लायक है नहीं। भारत जब तक गांधी को समझेगा तब तक बहुत देर न हो जाए। लेकिन अगर दुनिया में गांधी के प्रति समझ बढ़ रही है तो लगता है कि कहीं से कोई व्यक्ति या विचार घूमता हुआ आएगा जो धरती के इस हिस्से को फिर से संभालेगा। तब गांधी से डरने वाले और उनसे नफ़रत करने वाले ख़त्म होंगे और वास्तव में अभय कायम होगा।