गाँधी-150: सिनेमा से हमेशा असहमत रहे गाँधी जी
उनके नेतृत्व में भारत आज़ाद हुआ। वह राष्ट्रपिता कहलाते हैं लेकिन वह सिनेमा को पसंद नहीं करते थे। जीवन के अंत तक महात्मा गाँधी को कोई भी सिनेमा प्रेमी विद्वान या फिल्मकार यह नहीं समझा सका कि सिनेमा के अविष्कार के बाद दुनिया दो कालखंड में बंट गयी। एक तो सिनेमा के जन्म से पहले की दुनिया और दूसरी सिनेमा के जन्म के बाद की दुनिया।
दुनिया में कम्प्यूटर के आगमन से पहले मनोरंजन के क्षेत्र को जिस तरह सिनेमा ने विस्तार दिया और नए-नए रास्ते बनाए, वैसा विश्व में पहले कभी नहीं हुआ था। भारत में 90 के दशक से पहले तक सिनेमा के स्वप्नलोक, जादू, नशा या आकर्षण ने कई पीढ़ियों को जकड़े रखा। जब सिनेमा नया-नया था तब इसके जादू का क्या असर था, इसका अंदाज अब लगाना मुश्किल है।
आदमी, औरत, बच्चे, जवान, बूढ़े, अमीर, ग़रीब, पढ़े-लिखे, अनपढ़ सबके लिये सिनेमा तीन घंटे का ऐसा मनोरंजन था जिसे हासिल करना बहुत मुश्किल काम नहीं था।
मनोरंजन को मनुष्य के लिये ज़रूरी मानने वाले गाँधी जी ऐसे मनोरंजन के समर्थक थे जो मनुष्य को ऊपर उठाए और उसकी रुचियों को परिष्कृत करे। उन्हें सिनेमा सहित सार्वजनिक मनोरंजन की कुछ शैलियों से एतराज था। वह भारतीय लोक जीवन में प्रचलित मनोरंजन की बहुतेरी शैलियों को पसंद भी करते थे। उन्होंने लिखा है, ‘स्वांग, भाट और चारणों आदि से तो ठेठ बचपन से परिचित हूं और तभी से उन पर मुग्ध रहा हूं। किन्तु इन बेचारों को हमने ओछा मान कर निम्न कोटि के लोगों में धकेल दिया है।’
गाँधी जी ख़ुद भी संगीत में दिलचस्पी रखते थे। लंदन में पढ़ाई के दौरान गाँधी जी ने वायलिन बजाने के लिये संगीत की कक्षा में जाना शुरू किया। इतना ही नहीं, उन्होंने पाश्चात्य नृत्य की कक्षा में भी दाख़िला लिया लेकिन पढ़ाई के लिये कम समय निकल पाने की वजह से उन्होंने वायलिन और नृत्य दोनों से किनारा कर लिया।
1918 से महात्मा गाँधी का भारतीय समाज और राजनीति में दख़ल बढ़ने लगा था। कुछ ही समय में वह निर्विवाद रूप से भारत के सबसे बड़े नेता के रूप में स्थापित हुए। किसी भी अन्य नेता के मुक़ाबले गाँधी जी की बातों का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ने लगा था। ऐसे में गाँधी जी द्वारा किसी चीज़ का विरोध या तारीफ़ बहुत मायने रखती थी।
उस दौर के सिने माहौल पर नजर डाली जाए तो गाँधी जी की सिनेमा के प्रति चिंता के कारण समझ में आ सकते हैं। 1920 और 1930 के दशक में, भारत में प्रदर्शित अमेरिकी और यूरोपीय फ़िल्मों में नग्नता और उत्तेजित करने वाले दृश्य बहुतायत से होने लगे। भारतीयों द्वारा इस संबंध में लगातार चिंता जताई जा रही थी। यहां तक कि इस मामले में 21 मार्च 1927 को विधानसभा में तीख़ी बहस चली।
अभ्युदय और फ़िल्म इंडिया सहित कई पत्र-पत्रिकाओं ने सिनेमा की अश्लीलता के ख़िलाफ़ लिखना शुरू किया। संभ्रांत और मध्य वर्ग में यह धारणा मजबूत हो चली थी कि सिनेमा नौजवानों को बिगाड़ रहा है और इससे अश्लीलता बढ़ रही है।
गाँधी जी बेहद तार्किक व्यक्ति थे। वह सहज ही किसी वस्तु को अच्छा या बुरा नहीं मान लेते थे। पर तत्कालीन भारतीय समाज की मानसिकता और व्यवहार को लेकर गाँधी जी का अध्ययन इस ओर इशारा कर रहा था कि सिनेमा को लेकर लोगों में ख़ासा असंतोष है।
सिनेमा भले ही शुरू में कौतुहल और मनोरंजन की चीज रहा हो लेकिन फिर उसने शालीनता और अश्लीलता, अदब और बेअदबी, फैशन और रूचियों को नए सिरे से परिभाषित करना शुरू कर दिया। दरअसल, मनुष्य जो वस्तु अपनी आंख से देखता है उसका थोड़ा-बहुत प्रभाव उसके मन पर पड़ता है। यह प्रभाव वस्तु के अनुसार अच्छा या बुरा हो सकता है और किसी वस्तु को मनुष्य बार-बार देखे तो धीरे-धीरे उसका असर उसकी सोच और व्यवहार पर भी पड़ता है। और कब यह प्रभाव जाने-अनजाने उसके आचरण में परिलिक्षित होने लगता है यह उसे पता भी नहीं चलता।
गाँधी जी भी भाषणों और पत्रों के माध्यम से सिनेमा की लगातार आलोचना कर रहे थे। साल 1929 में बर्मा प्रवास के दौरान मजदूरों की ओर से आयोजित एक नाटक में लोगों को संबोधित करते हुए गाँधी जी ने कहा, ‘सार्वजनिक नाटकघरों में जाने के अन्य जो भी परिणाम हों, यह तो निश्चित ही है कि इस देश में नाटकों ने अनेकानेक युवकों का आचरण और चरित्र भ्रष्ट कर दिया है।...आप चारों ओर नजर तो डालिये वर्तमान व्यवस्था के कुप्रभाव में पनपने वाले सिनेमा, नाटक, घुड़दौड़, शराबखाने और अफीमघर इत्यादि के रूप में समाज के ये सभी शत्रु चारों ओर से मुंह बाए हमारी घात में खड़े हैं।”
भारत में एक सभा में गाँधी जी ने कहा था, ‘बहुत से लोग समझते हैं कि सिनेमा देखने से बहुत जानकारी मिलती है लेकिन मेरे गले तो यह बात उतरती नहीं....जब मैं बहुत छोटा था तब थियेटर गया था। मेरा वश चले तो सारे हिंदुस्तान से सिनेमा थियेटर के स्थान पर कताई थियेटर की स्थापना कर दूं...समाचार पत्रों में विज्ञापन द्वारा हमारे अभिनेता और अभिनेत्रियों के कितने गंदे चित्र प्रकाशित होते हैं।...नृत्य कला के प्रति मेरे मन में भी आदर भाव है। संगीत बहुत पसंद है। लेकिन युवक-युवतियों के मन पर बुरा प्रभाव पड़े, ऐसे गीतों और नृत्य पर अवश्य प्रतिबंध लगवा दूंगा। ग्रामाफ़ोन के रिकॉर्ड भी बन्द करवा दूंगा।’
1938 में महात्मा गाँधी से भारतीय सिनेमा के रजत जयंती समारोह की आधिकारिक स्मारिका के लिए एक संदेश भेजने का अनुरोध किया गया था। जिसका गाँधी के सचिव ने तीख़ा जवाब दिया और लिखा, ‘गाँधी जी बहुत ख़ास मौक़ों पर संदेश भेजते हैं। जहां तक सिनेमा जगत की बात है तो सिनेमा में उनकी कोई रुचि नहीं है। इसलिये सिनेमा की प्रशंसा के लिये उनसे एक शब्द की भी उम्मीद करना बेकार है।’
गाँधी जी ने जीवन में केवल दो फ़िल्में ‘मिशन टू मॉस्को’ और निर्देशक विजय भट्ट की ‘राम राज्य’ देखी। जबकि उनके विचारों से प्रभावित हो कर ना जाने कितनी फ़िल्में बनीं और आज भी बन रही हैं लेकिन फ़िल्में महात्मा गाँधी को कभी प्रभावित नहीं कर सकीं। वह इस माध्यम से जीवन के अंत तक असहमत रहे।