कोरोना की वजह से लॉकडाउन में कैद मुंबई में विगत कई दिनों से गणेशोत्सव मंडलों द्वारा यह सवाल उठाया जा रहा था कि अबकी बार गणेश महोत्सव कैसे मनाया जाएगा इन सवालों के बीच एक नई मुश्किल आ गई है। यह मुश्किल है महाराष्ट्र प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण मंडल के निर्देश।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल के दिशा-निर्देशों का पालन करते हुए महाराष्ट्र प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण मंडल ने सभी गणेश मंडलों को निर्देश जारी किये हैं कि वे इस बार प्लास्टर ऑफ़ पेरिस (पीओपी) का इस्तेमाल मूर्तियां बनाने में न करें। क़रीब 100 दिन बाद गणेशोत्सव शुरू होने वाला है, कोरोना की वजह से लॉकडाउन भी है और ऐसे में इस आदेश ने मूर्तिकारों की परेशानियां बढ़ा दी हैं।
एक तो लॉकडाउन की वजह से पहले से ही मूर्तिकारों को मिट्टी, रेत और पीओपी नहीं मिल पा रहा है और इस वजह से वे मूर्तियां भी नहीं बना पा रहे हैं। ऐसे में यह आदेश उनकी चिंताएं और बढ़ाने वाला है।
बृहन्मुंबई सार्वजनिक गणेशोत्सव मंडल के अध्यक्ष नरेंद्र दहीबाउकर का कहना है कि साडू की मिट्टी से बनायी गयी 2 फुट की मूर्ति को सूखने में 22 से 25 दिन लगते हैं जबकि मुंबई में सार्वजनिक गणेश मंडलों में 18 फुट और उससे बड़ी मूर्तियां स्थापित की जाती हैं। वह कहते हैं कि इतनी विशाल मूर्तियों को सूखने में कम से कम 8 महीने लगेंगे।
नरेंद्र ने कहा कि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल के निर्णय पर राज्य प्रदूषण नियंत्रण मंडल पुनर्विचार करे। उन्होंने कहा कि वर्तमान परिस्थितियों को देखकर राज्य सरकार को भी इस मामले में दखल देना चाहिए। दरअसल, पीओपी से बनने वाली मूर्तियों पर बहुत पहले से सवाल उठाये जा रहे हैं।
कोर्ट ने लगाई थी रोक
2005 में महाराष्ट्र अंध श्रद्धा निर्मूलन समिति के प्रमुख नरेंद्र दाभोलकर की तरफ से बॉम्बे हाई कोर्ट की औरंगाबाद बेंच में पीओपी से मूर्तियां बनाए जाने पर प्रतिबन्ध लगाने को लेकर याचिका दायर की गयी थी। इस जनहित याचिका पर 6 साल बाद सुनवाई शुरू हुई और कोर्ट ने फरवरी, 2011 में आदेश दिया कि यदि कोई भी पीओपी से मूर्तियां बनाएगा और शिकायत दर्ज हुई तो उसके ख़िलाफ़ आपराधिक मामला दर्ज होगा। लेकिन उसके बाद भी इसे लेकर कोई ख़ास बदलाव देखने को नहीं मिला।
महाराष्ट्र के बाद गोवा, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु आदि के उच्च न्यायालयों ने भी पीओपी से बनी मूर्तियों को लेकर इसी प्रकार के निर्णय दिए।
पिछले साल महाराष्ट्र सरकार ने गणेशोत्सव में मंडपों को सजाने में प्रयुक्त होने वाले थर्माकोल की बिक्री और इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी थी जिसकी वजह से उसका प्रयोग नहीं दिखा। पीओपी की मूर्तियों पर पाबंदी तो नहीं लगी लेकिन इसके बारे में जन जागृति की पहल हर गणपति उत्सव के दौरान देखी जाती है।
दरअसल, पहले भगवान गणेश की प्रतिमाएं मुंबई से सटे रायगढ़ जिले के पेण क्षेत्र में पायी जाने वाली साडू की मिट्टी से बनायी जाती थी लेकिन जैसे-जैसे प्रतिमाओं का क़द बढ़ने लगा और मिट्टी की जगह पीओपी ने ले ली तो सबकुछ बदल गया।
ऊंची-ऊंची रंग-बिरंगी, सजावट वाली गणेश मूर्तियां बनने लगीं और साथ ही प्रदूषण भी बढ़ने लगा क्योंकि जिन रंगों का प्रयोग किया जाने लगा, उन्हें काफी हानिकारक पाया गया है। पेण इलाक़े में जहां बड़े पैमाने पर विशाल गणेश प्रतिमाओं का निर्माण होता है, वहां अधिकाँश मूर्तियां तो बनकर तैयार भी हो चुकी हैं। ऐसे में इस आदेश से मूर्तिकारों पर दोहरी मार पड़ेगी।
महाराष्ट्र में गणेशोत्सव प्रमुखता से मनाया जाता है, ऐसे में यह आदेश राज्य सरकार के लिए एक नयी चुनौती के रूप में देखा जा रहा है।
हर साल अकेले मुंबई शहर में ही क़रीब तीन लाख गणपति की मूर्तियां नदी में विसर्जित की जाती हैं।इनमें अनेकों विशालकाय मूर्तियां भी शामिल हैं जिनका वजन टनों में होता है। गणपति की इन मूर्तियों को बड़े पैमाने पर बनाने का काम महीनों पहले शुरू हो जाता है। हजारों मूर्तिकारों को इस काम में लगाया जाता है।
ये मूर्तिकार मूर्तियों को बनाने में पीओपी का धड़ल्ले से इस्तेमाल करते हैं क्योंकि पीओपी सस्ता भी है, आसानी से मिल भी जाता है और काम आसान बना देता है। खासकर बड़ी मूर्तियों को बनाने में इसका इस्तेमाल होता है।
पीओपी को जब पानी में मिक्स किया जाता है तो ये मुलायम, सफेद, चिपचिपे जिप्सम में बदल जाता है। पर्यावरण के जानकारों का कहना है कि इसके पार्टिकल्स करीब 17 साल तक पानी में घुलते और तैरते रहते हैं।
पहले गणेश मूर्तियों का साज-श्रृंगार ऑर्गेनिक रंगों से किया जाता था लेकिन अब उसकी जगह लेड और आर्सेनिक वाले मेटालिक पेंट्स ने ले ली है क्योंकि ये सिंथेटिक रंग सस्ते होते हैं और आसानी से मिल भी जाते हैं। साथ ही प्रतिमाओं में अच्छी चमक भी पैदा करते हैं। इन रंगों में लेड, आर्सेनिक, मरकरी, कैडियम, जिंक ऑक्साइड और क्रोमियम आदि मिलाये जाते हैं जो पानी में ऑक्सीजन, कार्बन डाई ऑक्साइड का लेवल घटा देते हैं और मछलियों और दूसरे जीव-जतुंओं के जीवन के लिए खतरनाक साबित होते हैं।
2010 में देश के कई हिस्सों खासकर महाराष्ट्र, गुजरात, गोवा, कर्नाटक, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में गणेशोत्सव के दौरान और उसके बाद पर्यावरण को हुए नुक़सान को लेकर मचे हंगामे के बाद केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की नींद टूटी थी और उसने कुछ दिशा-निर्देश बनाए थे लेकिन उनकी अनुपालना होते-होते आज एक दशक बीत गया है।