सीएम की कुर्सी को लेकर बिगड़ेंगे बीजेपी-शिवसेना के रिश्ते?
शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे का अपने बेटे आदित्य ठाकरे को महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनाने का स्वप्न कहीं राज्य के राजनीतिक समीकरण तो नहीं बदल देगा आदित्य ठाकरे इन दिनों प्रदेश में जन आशीर्वाद यात्रा पर निकले हैं और सार्वजनिक रूप से वह कह भी चुके हैं कि यदि जनता ने कहा तो वह चुनाव भी लड़ेंगे और मुख्यमंत्री भी बनेंगे। दरअसल, महाराष्ट्र में शिवसेना-बीजेपी गठबंधन में मुख्यमंत्री कौन होगा, एक ऐसा यक्ष प्रश्न है जिसका उत्तर ना तो उद्धव ठाकरे ने कभी खुलकर दिया है ना ही मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडनवीस ने। जब दोनों पार्टियों ने लोकसभा चुनाव के पूर्व अपने चार साल चले मनमुटाव के बाद सुलह की थी, उस समय भी यह सवाल अनुत्तरित ही रहा था।
लोकसभा चुनावों के बाद दोनों ही दलों के कुछ नेताओं ने इस विषय पर जब बयानबाज़ी शुरू की तो उद्धव ठाकरे और देवेन्द्र फडनवीस ने यह हिदायत दी कि वे इस मामले में कुछ नहीं बोलें। बाद में दोनों ही नेताओं के बयान आये कि मुख्यमंत्री पद को लेकर ‘हमारे बीच सब तय हो चुका है’ और समय आने पर उसकी घोषणा कर दी जायेगी।
शिवसेना ने खेला दाँव!
राजनीति के कुछ जानकार इसे शिवसेना के एक दाँव के रूप में भी देखते हैं। उनका मानना है कि शिवसेना का मुख्यमंत्री बनेगा, का कार्ड खेल कर पार्टी हाईकमान शिव सैनिकों को ज़्यादा से ज़्यादा सीटें जिताने के लिए प्रेरित कर रहा है। क्योंकि आज विधानसभा में शिवसेना और बीजेपी के विधायकों की संख्या में बड़ा अंतर है और पार्टी की पहली प्राथमिकता इस अंतर को ख़त्म करने की ही है। लेकिन क्या यह अंतर ख़त्म हो पायेगा और क्या ज़्यादा सीटें जीतने के बाद भी बीजेपी, शिवसेना के लिए मुख्यमंत्री पद छोड़ सकती है
बीजेपी की राजनीति को देखते हुए जो कयास लगाए जा सकते हैं उनके अनुसार दोनों सवालों का उत्तर ना में ही हो सकता है। लेकिन इंतज़ार उस पहेली के जवाब का है जिसके तहत यह कहा जाता है कि ‘हमारे बीच सब तय हो चुका है’।
लोकसभा चुनावों के बाद महाराष्ट्र में अब विधानसभा चुनावों की चौसर सजने लगी है। बीजेपी-शिवसेना के गठबंधन का फ़ॉर्मूला बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह व शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे घोषित करने वाले हैं जबकि कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) इस बार नये फ़ॉर्मूले के साथ चुनाव लड़ने वाली है।
कांग्रेस इस बार राज ठाकरे, प्रकाश अंबेडकर की वंचित आघाडी से टूटकर निकले नेताओं व अन्य छोटे दलों को भी सीटें देने की तैयारी में है।
2014 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और एनसीपी अलग-अलग लड़े थे लेकिन उससे पहले जब भी दोनों पार्टियों ने गठबंधन करके चुनाव लड़ा, सीटों का बंटवारा क्रमशः 174-114 का रहा। बता दें कि महाराष्ट्र की विधानसभा में 288 सीटें हैं। लेकिन 2014 और अब 2019 के लोकसभा चुनाव में एनसीपी ने प्रदेश में लोकसभा की ज़्यादा सीटें जीतीं, लिहाजा एनसीपी नेता चाहते हैं कि विधानसभा में उनकी पार्टी को अधिक सीटें मिलें।
एनसीपी के नेता यह फ़ॉर्मूला 50:50 का हो, ऐसा चाहते हैं। जबकि कांग्रेस के नेताओं ने 2014 के विधानसभा चुनाव के प्रदर्शन को नये फ़ॉर्मूले का आधार बनाया है। इस फ़ॉर्मूले के अनुसार, 2014 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 42 सीटें जीती थीं और 64 सीटों पर वह दूसरे स्थान पर रही थी यानी ये 106 सीटें कांग्रेस को मिलनी ही चाहिए।
एनसीपी ने 41 सीटें जीती थी और 54 स्थानों पर वह दूसरे नंबर पर रही थी, लिहाजा इन 95 सीटें पर उसका दावा बनता है। अब जो बंटवारा होना है वह है शेष 87 सीटों का। कांग्रेस चाहती है की इन शेष सीटों को, जो सहयोगी दल साथ में आने वाले हैं उन्हें और कांग्रेस-एनसीपी के बीच बाँटा जाय।
कांग्रेस इस बार इस कोशिश में लगी हुई है कि दलित और मुसलिम मतदाताओं के मत विभाजन को रोका जाए। लोकसभा चुनाव के परिणामों में दलित-मुसलिम गठबंधन वाली प्रकाश अंबेडकर और असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ने क़रीब दो दर्जन से अधिक विधानसभा क्षेत्रों में अच्छा प्रदर्शन किया था। हालाँकि इस गठबंधन में अब फूट भी पड़ चुकी है।