सत्ता, साजिश और प्रपंच की ‘महारानी’
बीती रात तक देख ही डाली। सूत्र रूप में बोलें तो ‘महारानी-2’ की उपलब्धि यही है कि आप इसे बड़ी सहजता से देख जाते हैं। अपने आसपास की जानी-समझी लेकिन कुछ नई परतें खोलती कहानी जैसी। देखते हुए वेब सीरीज वाली प्रचलित मरामारी, खूनखराबा और भयंकर गालियाँ नहीं झेलनी पड़तीं। खूनखराबा भी एक ठहराव, संतुलन के साथ दिखता है। अभिनय दमदार है और प्रायः सभी जाने-अनजाने चेहरे किरदार के प्रति न्याय करते हैं। संवाद और स्क्रिप्ट पर बढ़िया काम हुआ है। अपराध और राजनीति के गठजोड़ वाली कहानियों की भीड़ में एक और की चुनौती को भी यह बखूबी झेल जाती है। पहले सीजन की कमियों से पार पाती हुई। अक्सर एक थियेट्रिकल अनुभव देती हुई। फिर भी कुछ है, जिस पर बात करना बनता है।
'महारानी' देखते वक़्त दिमाग में बिहार छाया रहता है तो यह स्वाभाविक है। बनाने वालों ने भी इससे परहेज तो नहीं ही किया है। दावा भी नहीं कि यह बिहार की कहानी है या नहीं। घटनाएँ, पात्र, नाम ज़रूर कुछ इस तरह सामने आते हैं कि बिहार (विभाजन के पहले वाला) खुद ब खुद सामने आ जाता है। सारे तार जुड़ते जाते हैं। लेकिन, खासतौर से सीजन 2 देखते वक़्त कई बार लगता है कि इस वेब सीरीज का आनंद वाक़ई लेना है तो ‘बिहार’ को दिमाग से निकाल कर इसे भारतीय राजनीति के चेहरे के तौर पर देखना बेहतर होगा, वरना आप तथ्यों के तार जोड़ने में उलझ जाएंगे। महारानी वेब सीरीज ऐसी ही है।
लेकिन दिक्कत है कि इसे देखते हुए आपका मन बारबार बिहार, लालू यादव, राबड़ी देवी, नीतीश कुमार, साधु, कांति, सीवान और शाहबुद्दीन की ओर जाता ही है। शीबू सोरेन भी दिखते हैं। नौकरशाही के कई चर्चित चेहरे भी। और जब-जब ऐसा होता है आप अपने अंदर से बहस करने लगते हैं। यथार्थ और कल्पना के बीच कुछ तलाशने लगते हैं। शायद वेब सीरीज से कनेक्ट टूट भी जाता है, भले उतनी ही देर के लिए।
मतलब मसाला सारा है जो बिहार से बाहर निकलने नहीं देता। प्रेम कुमार और नागनाथ जैसे शातिर चरित्र हैं। कीर्ति सिंह भी। बाद के दिनों वाले प्रशांत किशोर का लेडी वर्जन भी है यहां। हर चरित्र खुद को जस्टीफाई करता हुआ। लेकिन गड़बड़ तब होता है जब बिहार की इस कहानी में कल्पना की ऊंची उड़ान का तड़का लग जाता है और कहानी अचानक कोई बड़ा मोड़ लेकर हमें किसी दूसरे यथार्थ में पहुंचा देती है। जो फिलहाल न बिहार का सच है न देश का। आदर्श की बघार ऐसी कि भविष्य की उम्मीद भी नहीं! यह एक तरह का जादुई यथार्थ है।
हालाँकि सीजन-1 के अंत से लेकर और सीजन 2 तक आमतौर पर जिस जादुई यथार्थ की बात ‘महारानी’ करती है, वैसा सपना देखने में कोई हर्ज भी नहीं। काश कि राजनीति ऐसी भी हो सकती! यह ज़रूर कहना होगा कि इतना सच और इतना क़रीब से दिखते चरित्रों को देखते समय सच का अतिरेक कहीं-कहीं ‘अतिरेक से भी ज़्यादा’ लगने लगता है।
हुमा कुरैशी का अभिनय दोनों सीजन में शानदार और सहज है। ग्लैमर की बघार से उन्हें एकदम बाहर निकालता हुआ। बस संवाद अदायगी के बिहारीपन में कमी कई बार खटकती है।
मतलब, केंद्रीय चरित्र महारानी में अक्स तो राबड़ी देवी का है लेकिन उच्चारण यूपी वाले योगी का ज़्यादा दिखता है, ख़ासतौर से जब वह ‘क्ष’ को ‘स’ उच्चारित करती है। संभव है सायास भी हो। लेकिन यह उनके अभिनय कौशल में कहीं से भी बाधक नहीं है। बाक़ी, विनीत कुमार (गौरी शंकर पांडे यानी नागनाथ), आशिक हुसैन (प्रेम कुमार), अतुल तिवारी (राज्यपाल गोवर्धन दास), कनी कुसृति (कावेरी), प्रमोद पाठक (मिश्रा जी), दिव्येन्दु भट्टाचार्य (मार्टिन एक्का) अद्भुत छाप छोड़ते हैं। नवीन कुमार (अमित स्याल) पिछली बार की तरह इस बार भी अपनी ‘पेट में दांत’ वाली कुटिलताओं के साथ मौजूद हैं, तो मराठी होने के बावजूद सोहम शाह (भीमा भारती) पिछली बार से ज्यादा गहरा असर छोड़ते हैं, यह कहना अतिरेक नहीं होगा। पहले सीजन के कई ज़रूरी चरित्रों का इस सीजन में पूरी तरह लोप हो जाना कहीं-कहीं खटकता ज़रूर है। हालाँकि चरित्रों का उभार पिछले सीजन के मुक़ाबले इस बार ज़्यादा मझे हुए रूप में सामने आया है जो सीरीज क्रिएटर की चुनौती भी थी।
हालाँकि पर्दे पर देखते हुए इसी वेब सीरीज का वह संवाद कई बार दर्शक के गले में अटक जाता है कि, ‘जैसे ही आपको लगता है कि आप बिहार को समझ गए हैं, बिहार आपको झटका दे देता है’। लगता है इसके लेखकों ने यह संवाद कहीं न कहीं अपने बचाव में ही डाला होगा। यानी अगर इसमें इतने करीब से दिखते, इतने प्रचलित चेहरे और चरित्र न होते तो शायद यह अपना नया यथार्थ गढ़ती, अतिरेक वाली कहानी के साथ भी यह और प्रभावी होती। क्योंकि तब हम अपने आपसे यथार्थ और जादुई यथार्थ को लेकर बहस में न उलझते। मानने में हर्ज नहीं कि यह तो पूरे देश का सच है और जादुई के बावजूद ज्यादा करीब लगता हुआ।
सच यह भी है और इसे सीरीज की सीमा ही कहेंगे कि लेखक और निर्देशक इसे बिहार की कहानी कहने से बचना भी चाहते हैं, बिहार बन जाने के मोह से निकाल भी नहीं पाते। यही कारण है कि जब हम इसे बिहार की कहानी के तौर पर देख रहे होते हैं तो अतिरेक लगता है, बिहार के बाहर (उत्तर भारत) की मानकर देखते हैं तो कल्पनिक यथार्थ। यथार्थ, काल्पनिकता और जादुई यथार्थ का यह घालमेल कई बार बांधता है तो तंद्रा टूटने पर अपने आपसे मुठभेड़ करता हुआ भी दिखता है। दोनों सीजन का अंतिम सीक्वेंस, मंडल की जगह वर्मा आयोग की चर्चा, रथयात्रा की जगह पादुका यात्रा और नवीन कुमार के चरित्र का कुटिल बल्कि शातिर मोड़ ऐसे ही सायास घालमेल का हिस्सा हैं, लेकिन सिनेमाई आनंद में कहीं से भी बाधक नहीं, बल्कि इजाफा करते हुए।
सीरीज का दारोमदार बॉलीवुड की मौजूदा भेड़चाल में अलग पहचान रखने, अपनी फ़िल्मों के बहाने कुछ अलग टिप्पणी दर्ज कर जाने वाले सुभाष कपूर पर है। उनकी ‘जॉली एलएलबी-2’ बॉक्स ऑफ़िस पर भले न चली लेकिन फर्ज़ी एनकाउंटर के मामले में इंसाफ तक पहुँचाती यह कहानी हमें याद रह जाती है तो यह आनायास नहीं है। बसपा सुप्रीमो मायावती के किरदार में ऋचा चड्ढा को लेकर बनी ‘मैडम चीफ़ मिनिस्टर’ और ‘फंस गए रे ओबामा’ वाले सुभाष ‘महारानी’ में भी प्रचलित और बहुप्रचारित नेरेटिव से अलग निष्कर्ष देकर अलग दिखने लगते हैं। महारानी की कसी हुई स्क्रिप्ट और धारदार संवाद लेखन के लिए स्वयं सुभाष कपूर के साथ नंदन सिंह और उमाशंकर सिंह की तारीफ तो करनी ही होगी, यह इसका सबसे मजबूत पक्ष भी है। हां, यह भी कि इस बार गीत-संगीत पक्ष पर भी दर्शक कुछ देर तो जरूर ठहरा होगा! मतलब, सबने मिलकर महारानी-3 की संभावना बढ़ा दी है।
(नागेंद्र प्रताप की फेसबुक वाल से)