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<b></b>आत्मघाती गोल दागने पर आमादा मध्य प्रदेश कांग्रेस

आत्मघाती गोल दागने पर आमादा मध्य प्रदेश कांग्रेस

प्रदेश का कोई बड़ा नेता ‘एकला चलो’ और ‘अपनी ढपली-अपना राग’ वाले अंदाज़ को छोड़ने को तैयार नहीं लगता है।

जोड़तोड़ से 15 सालों के सत्ता के वनवास को समाप्त करने वाली मध्य प्रदेश कांग्रेस के ‘कर्णधार’ पुरानी ग़लतियों से सबक सीखने को तैयार नहीं हैं। आम चुनाव सिर पर हैं, लेकिन मध्य प्रदेश कांग्रेस इसके लिए कतई तैयार नज़र नहीं आ रही है।

प्रदेश का कोई बड़ा नेता ‘एकला चलो’ और ‘अपनी ढपली-अपना राग’ वाले अंदाज़ को छोड़ने को तैयार नहीं लगता है। लाखों वोट से हारने वाले दिग्गज नेता लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को जिताने की जुगत की बजाय अपनी टिकट पक्की कराने की कोशिश में जुटे हुए हैं। आपसी खींचतान के साथ सरकार चलाने संबंधी तमाम कठिनाइयों ने मुख्यमंत्री कमलनाथ को हलकान कर रखा है।

'एकला चलो' का अंदाज़ कर रहा परेशान

लोकसभा चुनाव की तारीख़ का ऐलान हो गया है। मध्यप्रदेश में अप्रैल और मई में अलग-अलग चरणों में चुनाव हैं। चुनावी किला फ़तह करने के लिए कुल जमा 50-60 दिनों का ही समय कांग्रेस के पास है। ऐसे में मध्यप्रदेश कांग्रेस के बड़े नेताओं की कथित बेरुखी और 'एकला चलो' का अंदाज़ तथा सरकार चलाने संबंधी दिक्कतों ने पार्टी का भला चाहने वाले कांग्रेसियों को भी ख़ासा चिंता में डाल रखा है।

मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में सबसे बड़े दल के रूप में उभरने और 114 सीटें (स्पष्ट बहुमत से दो सीटें कम) पाने के बाद कांग्रेस ने बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी और चार स्वतंत्र विधायकों को साथ लेकर सरकार बनाई थी। कमलनाथ ने 17 दिसंबर 2018 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। चुनाव के पहले वह मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे और सरकार बनने के बाद भी पीसीसी अध्यक्ष का दायित्व उन्हीं के पास है।

कमलनाथ नहीं दे रहे पीसीसी को समय

सरकार बनने के बाद से कमलनाथ पीसीसी को लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र अपेक्षित समय नहीं दे पा रहे हैं। मुख्यमंत्री पद की शपथ के बाद वह दो बार ही पीसीसी पहुँचे हैं। उनका प्रदेश कांग्रेस दफ़्तर पहुँचना भी रस्म-अदायगी सा रहा है। कमलनाथ ने 83 दिनों के मुख्यमंत्रित्वकाल में अपने निवास पर भी कांग्रेस के आला नेताओं की कोई बड़ी बैठक नहीं की है। इस अवधि में बड़े नेताओं में अकेले दिग्विजय सिंह की ही तीन-चार मुलाक़ातें और गुफ़्तगू कमलनाथ से हुई हैं। दिग्विजय सिंह से हुई इन मुलाक़ातों में भी ज़्यादा समय दिग्विजय सिंह के बिगड़े बोल और कथित सफ़ाई के ऊपर चर्चा में गया है।

विधानसभा में काबीना मंत्रियों के जवाब के बाद दिग्विजय सिंह द्वारा सार्वजनिक तौर पर मंत्रियों को लज्जित करने और इसके अलावा पुलवामा हमले को 'दुर्घटना' क़रार देने संबंधी बयानों से कमलनाथ बेहद खिन्न बताए जा रहे हैं।

उनकी खिन्नता का आभास इस बात से होता है कि दिग्विजय सिंह के पुलवामा हमले को 'दुर्घटना' बताने वाले बयान से कमलनाथ ने स्वयं को दूर रखा था।

सौदेबाजी कर रहे सहयोगी

कमलनाथ के लिए ‘मुसीबत’ दिग्विजय सिंह भर नहीं हैं, मंत्री न बनाये जाने से बेहद ख़फ़ा कांग्रेस के कई वरिष्ठ विधायकों के अलावा सरकार के सहयोगी बसपा और सपा के विधायकों ने भी उनकी नाक में दम कर रखा है। सीधे शब्दों में कहें तो बसपा-सपा के विधायक भी कमलनाथ को खुलेआम ‘ब्लैकमेल’ और सौदेबाजी करने से गुरेज़ नहीं कर रहे हैं।

कोटरी के विधायकों को मंत्री बनाये जाने के बाद मलाईदार विभाग नहीं मिलने और विभाग मिल भी गया है तो संबंधित मंत्री को खुली छूट न दिया जाना भी नेताओं को रास नहीं आ रहा है। ऐसे नेताओं में ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम सबसे ऊपर है। विधानसभा चुनाव जीतने के बाद वह गुना,ग्वालियर तक ही सिमटे हुए नज़र आ रहे हैं। कहा जा सकता है कि सिंधिया के पास माकूल बहाना है कि यूपी का प्रभारी बना दिये जाने की वजह से उन्हें मध्यप्रदेश के लिए ‘वक़्त’ कम मिल पा रहा है।

2014 में दो सीटों पर सिमटी थी कांग्रेस

मध्य प्रदेश में कुल 29 लोकसभा सीटें हैं। याद हो कि साल 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर में मध्य प्रदेश कांग्रेस तिनके की तरह उड़ गई थी। उसको महज़ छिंदवाड़ा और गुना की ही दो सीटें मिल सकी थीं। छिंदवाड़ा में कमलनाथ और गुना में ज्योतिरादित्य सिंधिया ही अपनी सीटें बचा पाए थे।

बता दें कि दिलीप सिंह भूरिया के निधन के बाद झाबुआ सीट को कांतिलाल भूरिया ने उपचुनाव में कांग्रेस के लिए जीता था।वहीं पिछले नतीजों को दोहराने के प्रयासों के साथ, भाजपा की निगाह इस बार छिंदवाड़ा पर भी पूरी शिद्धत से टिक गई है। इस सीट पर इस बार कमलनाथ के बेटे नकुलनाथ का चुनाव लड़ना तय हो चुका है। वे अपने पिता की विरासत और कांग्रेस के गढ़ को बरक़रार रखने के लिए संसदीय क्षेत्र को भरी गर्मी में जमकर ‘नाप’ रहे हैं।

1984 से नहीं जीती है कांग्रेस ये तीन सीटें

मध्यप्रदेश में भोपाल, इंदौर और विदिशा ऐसी संसदीय सीटें हैं जिन पर कांग्रेस 1984 के बाद से नहीं जीत सकी है। पिछले सात चुनावों से ये तीनों सीटें भाजपा लगातार जीत रही है। उज्जैन और मंदसौर भी भाजपा के अजेय गढ़ों में शुमार हैं।

उज्जैन सीट 1980 से लगातार भाजपा जीत रही है। इस सीट पर 1980 से 2014 के बीच हुए कुल 10 चुनावों में एक बार ही कांग्रेस को कामयाबी मिली, शेष नौ बार सीटें भाजपा के ही खाते में गई हैं।

इसी तरह मंदसौर में भी पिछले नौ चुनावों में मात्र एक बार ही कांग्रेस सीट जीत पायी और बाक़ी आठ बार उसे हार का सामना करना पड़ा है। अनेक सीटों का मूड 1984 के बाद से ज़्यादातर भाजपा के पक्ष वाला बना रहा है।

कांग्रेस का नारा ‘मिशन 29’

मध्यप्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ और उनकी टीम ने इस बार के चुनाव में ‘मिशन 29’ का नारा बुलंद किया है। मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक गिरिजा शंकर ने ‘सत्य हिन्दी’ से बात करते हुए कहा - ‘नारा चाहे कुछ भी दिया जाये, कांग्रेस में जिस तरह का बिखराव है और देश का जो मौजूदा चुनावी माहौल है, उसे देखते हुए कांग्रेस का टारगेट दहाई अंकों तक पहुँच जाए यह उसके लिए बड़ी कामयाबी होगी।’

उन्होंने कहा कि कांग्रेस भगवाकरण समाप्त करने पर जोर देती है लेकिन मध्यप्रदेश में 15 साल राज करने वाली भाजपा के ज़्यादातर भगवाकरण वाले कार्यों को समाप्त करने की हिम्मत जुटाने की बजाय ऐसे कामों को जीवित रखे हुए है।

वरिष्ठ पत्रकार और चुनाव विश्लेषक शिव अनुराग पटेरिया भी आने वाला चुनाव कांग्रेस के लिए मध्य प्रदेश में बेहद कठिन क़रार दे रहे हैं। पटेरिया का कहना है कि भाजपा इस समय राष्ट्रवाद की लहर पर सवार है। इस लहर को दिग्विजय सिंह और कांग्रेस के अन्य नेता अपने बयानों के जरिये तूफानी हवा दे रहे हैं, जो कांग्रेस के लिए बेहद घातक होगा। उन्होंने कहा, ‘मध्यप्रदेश कांग्रेस के नेताओं का अहम और ‘मैं’ पर अडिग रहने वाला रवैया, लोकसभा चुनाव में पार्टी की लुटिया डुबाने वाला नज़र आ रहा है।’

लाखों वोटों से हारने वाला भी चाह रहा टिकट

पूर्व केन्द्रीय मंत्री और मध्य प्रदेश कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सुरेश पचौरी होशंगाबाद लोकसभा सीट से टिकट पाने की जोड़तोड़ कर रहे हैं। वह 1999 में भोपाल लोकसभा सीट पर पौने दो लाख के क़रीब वोटों से उमा भारती से चुनाव हारे थे। पिछला और हाल ही का विधानसभा चुनाव वह भोजपुर में क्रमश: 20 और 30 हज़ार वोटों से ज़्यादा के अंतर से हारे बैठे हैं। इसके बावजूद वह टिकट चाह रहे हैं। वहीं 83 साल के पूर्व सांसद रामेश्वर नीखरा भी होशंगाबाद सीट से टिकट की दावेदारी किए हुए हैं। बता दें कि वह पहले इसी सीट पर 1989, 1991 और 1996 लोकसभा चुनाव में सरताज सिंह के सामने हार की हैट्रिक बना चुके हैं।

इसके अलावा लंबे अंतरालों से हारने वाले कई और ऐसे ही नेता लोकसभा चुनाव में टिकट के संजीदा दावेदार बने हुए हैं।

दिग्विजय सिंह, सलमान खान की चर्चा

कांग्रेस के पास कई सीटों पर दमदार उम्मीदवारों का भारी सूखा है। ऐसी सीटों में भोपाल, इंदौर और विदिशा ऊपरी पायदान पर हैं। इंदौर सीट से दिग्विजय सिंह को चुनाव लड़ाये जाने की सुगबुगाहट जोरों पर है। इस हवा को बल दिग्विजय सिंह की पिछले कुछ दिनों से इंदौर में अतिसक्रियता से मिल रहा है। हालांकि उनका नाम उनकी पुरानी लोकसभा सीट राजगढ़ से भी चल रहा है। इसके इतर इंदौर सीट के लिए ‘बजरंगी भाई जान’ (फिल्म स्टार सलमान खान) के नाम की भी चर्चा है।

भाजपा के पूर्व सांसदों पर दाँव की संभावनाएँ

होशंगाबाद संसदीय सीट के लिए सरताज सिंह का नाम सबसे ऊपर है। वह अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं। बता दें कि शिवराज सरकार में उपेक्षा की वजह से उन्होंने भाजपा को छोड़कर कांग्रेस का दामन हालिया विधानसभा चुनाव के ठीक पहले थामा था। कांग्रेस ने उन्हें होशंगाबाद विधानसभा सीट से टिकट दिया था लेकिन वह चुनाव हार गये थे।

वहीं विधानसभा 2018 के चुनाव में भाजपा को दमोह और पथरिया सीटों पर नुकसान पहुँचाने वाले दमोह के पूर्व सांसद और शिवराज सरकार में मंत्री रहे रामकृष्ण कुसमारिया दमोह सीट के लिए कांग्रेस के संभावित उम्मदीवार हैं। बता दें कि कि 2018 में उनको भाजपा से टिकट न मिलने पर वह निर्दलीय ही चुनाव लड़े थे।

इसके अलावा खजुराहो से भी वह सांसद रहे हैं, लिहाजा उनका नाम खजुराहो सीट के लिए भी कांग्रेस के संभावित प्रत्याशियों वाली लिस्ट में है। कुसमारिया कमलनाथ के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने वाले दिन ही कांग्रेस में शामिल हुए थे।

‘छह सर्वे’ के बाद तय होगा टिकट

कांग्रेस के सूत्रों की माने तो कांग्रेस में मध्यप्रदेश की टिकटों को लेकर छह अलग-अलग सर्वे हो रहे हैं। दो सर्वे कमलनाथ करवा रहे हैं, जबकि चार अलग-अलग सर्वे कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा कराए जा रहे हैं। दावा किया जा रहा है कि इन सर्वे में जिस दावेदार को सबसे ज़्यादा नंबर हासिल होंगे, उसे ही टिकट मिल पायेगा।

विधायकों को टिकट नहीं

ग्वालियर सीट के लिए ज्योतिरादित्य सिंधिया की पत्नी का नाम चर्चाओं में है। दूसरी तरफ़ कांग्रेस के कई विधायक लोकसभा चुनाव लड़ना चाहते हैं, लेकिन विधानसभा में नंबर गेम के चलते विधायकों को चुनाव में उतारे जाने की संभावनाएँ नहीं हैं। वहीं ख़बर है कि मध्यप्रदेश कांग्रेस, भाजपा के कुछ विधायकों को लोकसभा के टिकट का लालच देकर हाथ का साथ थामने की जुगतबाजी में लगी हुई है।

'गेमचेंजर' होगा ओबीसी कार्ड

सरकार बनते ही दो लाख रूपयों तक का किसानों का क़र्ज़ माफ़ करने का आदेश जारी करने वाले मुख्यमंत्री कमलनाथ ने लोकसभा चुनाव के ठीक पहले एक और बड़ा दाँव खेला है। उन्होंने नौकरियों में अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण की सीमा को 14 से बढ़ाकर 27 प्रतिशत कर दिया है, जो एक बड़ा पैंतरा माना जा रहा है।

सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की सीमा अधिकतम 50 प्रतिशत तय कर रखी है। सुप्रीम कोर्ट के डंडे से बचने के लिए कमलनाथ सरकार ने तमिलनाडु की तर्ज़ पर शुक्रवार को एक अध्यादेश पारित कर डाला है।

तमिलनाडु ने जनसंख्या के आधार पर आरक्षण दिया है और उसी फ़ॉर्मूले को कमलनाथ सरकार ने मध्यप्रदेश में अपनाया है।कुल मिलाकर मुख्यमंत्री नाथ अपने दम पर लोकसभा में ‘कमाल’ कर दिखाने की जुगत में हैं। कमलनाथ सरकार ने बेरोज़गार युवाओं पर भी शिकंजा कसा है। इस कड़ी में चुनावी वचन पत्र के वादे के तहत युवाओं को चार हज़ार रुपये के स्टाइपेंड के साथ 100 दिनों के रोज़गार की व्यवस्था की गई है। इसके अलावा वह कन्या विवाह 28 हज़ार से 51 हज़ार करने का दाँव भी वे खेल चुके हैं।

क़र्ज़ लेकर बाँट रहे हैं तनख्वाह

कमलनाथ सरकार के लिए राजकीय ख़ज़ाना चिंता का विषय बना हुआ है। सरकार बनने के बाद से दो महीने में ही नाथ सरकार 12 हज़ार करोड़ का क़र्ज़ ले चुकी है और क़र्ज़ से तनख्वाह भी बँटी है। वहीं किसानों की क़र्ज़माफ़ी के लिए 50 हज़ार करोड़ की ज़रूरत है।

ग़ौरतलब है कि विधानसभा में लाए गये लेखानुदान में बामुश्किल 6 हज़ार करोड़ का प्रावधान ही सरकार कर पायी है। जानकारों का कहना है कि सरकार की घोषणाओं के अमल पर हो रहे बेतहाशा खर्चे नहीं रुके तो आने वाले महीनों में 'ओवरड्यू' के हालात हो जायेंगे।  ऐसा होने पर राज्य की वित्तीय स्थिति को दोबारा पटरी पर ला पाना बेहद कठिन हो जायेगा।

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