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लिंचिंगः भारत का मजबूत विपक्ष अपने गिरेबान में कब झांकेगा, कब बोलेगा

लिंचिंगः भारत का मजबूत विपक्ष अपने गिरेबान में कब झांकेगा, कब बोलेगा

भारत में लिंचिंग की घटनाएं चुनाव के बाद अचानक बढ़ गईं। पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में लिंचिंग की घटना होने पर वहां के सत्ता पक्ष और विपक्ष इसके विरोध में खड़े होते हैं। वहां के प्रमुख अखबार संपादकीय लिखते हैं। लेकिन भारत में अब विपक्ष मजबूत होने के बावजूद लिंचिंग पर बोलने से कतरा रहा है। मीडिया ने ऐसी घटनाओं का नोटिस लेना छोड़ दिया है। जाने माने स्तंभकार अपूर्वानंद पूछ रहे हैं यह किस किस्म का समाज हैः

“हमें इस घटना पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि हमारा देश तबाही की खाई के कगार पर खड़ा है। हम अब उस बिंदु पर पहुंच गए हैं जहां हम भीड़ की हिंसा और सड़क के इंसाफ़ को वाजिब ठहराने के लिए धर्म का नाम ले रहे हैं; संविधान, कानून और राज्य का खुलेआम उल्लंघन कर रहे हैं।’'

यह बयान भारत के किसी मंत्री या नेता का नहीं है। हालाँकि भारत में ऐसे बयान की सख़्त ज़रूरत है। पाकिस्तान की संसद में बजट पर चर्चा के दौरान वहाँ के योजना मंत्री एहसान इक़बाल ने यह वक्तव्य दिया है। पाकिस्तान मुस्लिम लीग ( नवाज़) पार्टी के नेता ने टोकाटाकी के बावजूद कहा कि संसद को इस मसले पर सख़्त रुख़ लेना होगा क्योंकि पाकिस्तान पर पूरी दुनिया की निगाहें टिकी हुई हैं। 

इक़बाल सियालकोट के रहनेवाले 40 वर्षीय मोहम्मद इस्माइल की भीड़ के द्वारा हत्या किए जाने पर प्रतिक्रिया दे रहे थे। इस्माइल स्वात गए थे जहाँ उनपर इल्ज़ाम लगाया गया कि उन्होंने क़ुरान के पन्ने जलाए हैं।यह क़ुरआन की बेअदबी है और जुर्म है।  पुलिस ने उन्हें हिरासत ने ले लिया लेकिन भीड़ वहाँ से खींचकर ले गई और उसने इस्माइल को गोली मार दी। इतना ही नहीं, इस्माइल को आग लगा दी गई और चौराहे पर ख़ंभे पर टांग दिया गया। 

मंत्री ने कहा कि इसे हम नज़रअंदाज़ कर सकते थे अगर यह अलग थलग कोई घटना होती लेकिन ऐसी घटनाओं का सिलसिला बन गया है।इक़बाल ने सियालकोट, जरनवाला और सरगोधा में ऐसी ही घटनाओं की याद दिलाई।

मंत्री का क्षोभ ईमानदार और साहसी है। पाकिस्तान में क़ुरआन और पैग़म्बर की बेअदबी अत्यंत संवेदनशील मसला है । बेअदबी का इल्ज़ाम लगाकर किसी की भी हत्या की जा सकती है। इसकी आलोचना या विरोध का नतीजा भी उतना ही भयानक हो सकता है। पाकिस्तान के राजनेता सलमान तासीर की हत्या की याद ताज़ा है। उन्होंने बेअदबी के क़ानून में तब्दीली की माँग की  इल्ज़ाम और उसके चलते मौत सज़ा भुगतनेवाली आसिया बेगम की माफ़ी की अर्ज़ी का समर्थन किया। इसके चलते उनके अंगरक्षक मलिक मुमताज़ क़ादरी ने उन्हें गोलियों से भून दिया।

ख़ुद इक़बाल पर हमला हो चुका है। लेकिन वे बोले।

इक़बाल बोलनेवाले अकेले नहीं हैं। पाकिस्तान के बड़े अख़बार डॉन ने लिखा- 

“भीड़ ने एक और शिकार किया है। इस बार यह क्रूर घटना गुरुवार को स्वात के मडयान इलाके में हुई जब बेअदबी के आरोपी एक शख्स को जिंदा जला दिया गया। यहां तक कि यह तथ्य भी कि पीड़ित पुलिस हिरासत में था, भीड़ को 'न्याय' देने से नहीं रोक सका।”

उसने आगे लिखा-

“इस तरह का घिनौना व्यवहार पाकिस्तान में आम बात हो गई है, क्योंकि ऐसी घटनाएं डरावने तरीक़े से बार बार हो रही हैं। अधिकांश मामलों में, ईशनिंदा के आरोप में व्यक्तियों की पीट-पीट कर हत्या कर दी जाती है, जबकि अन्य मामलों में, संदिग्ध अपराधियों को भीड़ द्वारा पीट-पीट कर मार डाला जाता है या गोली मार दी जाती है। 'भीड़ के न्याय' की दोनों किस्में राज्य के घटते इक़बाल की निशानी हैं।”

उपाय क्या है? डॉन के मुताबिक़-

इस तरह  लोगों की हत्या और उन पर हमला करने में “शामिल लोगों पर मुकदमा चलाने के रूप में तत्काल उपाय किए जाने की आवश्यकता है, लेकिन बुरी खबर यह है कि एक व्यापक, समाज-व्यापी चरमपंथ विरोधी परियोजना को सफल होने में दशकों नहीं तो कई साल लग सकते हैं। सड़ांध गहरी है और इसका कोई फ़ौरी समाधान नहीं है।” लेकिन अख़बार के मुताबिक कुछ कदम उठाए जा सकते हैं और उठाए जाने चाहिए:

“जैसे समाज पर फैलाए गए नफरत फैलाने वालों पर लगाम लगाना। यह राज्य की प्राथमिक चुनौती है।अगर ऐसा करने का कोई इरादा  राज्य का हो। अन्य उपायों में स्कूलों और मदरसों में सह-अस्तित्व और सहिष्णुता पर पाठ के साथ-साथ धार्मिक मंचों  से ऐसे ही संदेश प्रसारित करना भी शामिल हो सकता है।”

यह पाकिस्तान की बात है। वहाँ के सोशल मीडिया के मंचों पर इस घटना पर तकलीफ़ और ग़ुस्सा जतानेवाले हज़ारों में हैं। 

पाकिस्तान के पड़ोसी भारत का क्या हाल है?


पिछले 15 दिनों में भारत के अलग-अलग राज्यों, शहरों में मुसलमानों पर हिंदू भीड़ के हमलों की दर्जन भर से ज़्यादा खबरें मिली हैं। कहीं उन्हें पीट पीट कर मार डाला गया है, कहीं उनकी दुकानों पर हमला किया गया है, कहीं उनको अपने मोहल्ले छोड़कर भागने पर मजबूर होना पड़ा है। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, तेलंगाना से ऐसी घटनाओं की जानकारी मिली है। यह हिंसा उनके ख़िलाफ़ यह कहकर की आ रही है कि उन्होंने गाय की तस्करी  या गोकुशी की है या ऐसी तस्वीर लगाई है जिससे इसका भ्रम होता है। यह एक क़िस्म से बिना क़ानून का क़ानून है और पाकिस्तान की ईशनिंदा या बेअदबी के क़ानून की तरह का ही भीड़ का क़ानून है। 

भारत में 18वीं लोक सभा के चुनाव के नतीजों के आने के साथ ऐसी घटनाओं की बाढ़ आ गई। एक वजह बक़रीद भी है। हिंदुओं के बड़े हिस्से को मुसलमानों की क़ुर्बानी पर भी एतराज है।वे अहिंसा के पुजारी हैं और जानवरों के खून बहने से उनका खून खौल उठा है और फिर वे मुसलमानों का खून बहा सकते हैं।

जैसा हमने लिखा, भारत में पिछले 7 दिनों में दर्जन भर घटनाएँ हो चुकी हैं।इस हिंसा का विरोध करते हुए  भारत सरकार के किसी मंत्री के बयान की हम उम्मीद नहीं करते। लेकिन भारत के अन्य राजनीतिक दलों के नेताओं ने भी, जिन्हें मुसलमान समर्थक कहा जाता है, अपना मुँह नहीं खोला है। मुसलमानों पर आरोप है कि उन्होंने इन दलों को वोट दिया है। लेकिन उनके वोट की ताक़त पर जो पार्टियाँ संसद में और ताकतवर हो कर उभरी हैं, वे उनके ख़िलाफ़ हिंसा पर ख़ामोश हैं। 

आख़िर मुसलमानों ने क्यों इन पार्टियों को वोट दिया? उन्होंने नरेंद्र मोदी और भाजपा की मुसलमान विरोधी नीति के ख़िलाफ़ वोट दिया था। फिर उस जनादेश का सम्मान विपक्षी दल किस प्रकार कर रहे हैं? उनके ख़िलाफ़ घृणा और हिंसा की तरफ़ से मुँह घुमा कर?


कुछ मित्रों का कहना है कि ये पार्टियाँ अभी नीट की परीक्षा में धाँधली के सवाल पर सरकार को घेर रही हैं। इस मामले में उन्हें भारी जन समर्थन मिल रहा है। अगर वे मुसलमानों पर हिंसा के ख़िलाफ़ बोलेंगी तो इस समर्थन में दरार पड़ सकती है। सरकार के ख़िलाफ़ गोलबंदी में हिंदू मुसलमान के चलते भेद ना आ जाए, इस डर से वे चुप हैं। 

अगर इस रणनीति को हम एक मिनट के लिए मान भी लें, जो अनैतिक और कायरतापूर्ण है, तो भी हम अख़बारों और मीडिया की खामोशी को कैसे समझें? क्या इतनी घटनाओं के बाद एक भी संपादकीय या लेख नहीं लिखा जाना चाहिए था? कहीं कोई विरोध प्रदर्शन नहीं होना चाहिए था?

मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा को लेकर इस व्यापक और दमघोंटू खामोशी का मतलब है भारतीय या हिंदू  समाज की सामाजिक इंद्रियाँ सुन्न हो चुकी हैं। हमने मान लिया है कि मुसलमानों के ख़िलाफ़ घृणा प्रचार, उन पर हिंसा या उनकी हत्या कोई ख़ास बात नहीं, वह तो होता ही रहता है। अब हमारे बुद्धिजीवी भी हिंदुत्व के उभार की चर्चा करते हैं लेकिन इस हिंसा का ज़िक्र नहीं करते।जैसे हिंदुत्व और हिंसा का रिश्ता नहीं।जैसे वह अमूर्त विचार भर है! या शायद  इससे अपने समाज को लेकर शर्मिंदगी का अहसास होता हो!

दूसरे यह भी सोचने की ज़रूरत है कि इस हिंसा का एक सीधा रिश्ता उस नफ़रत से बिलकुल है जो नरेंद्र मोदी और भाजपा ने चुनाव प्रचार के दौरान मुसलमानों के ख़िलाफ़ भड़काई है।आख़िर उस घृणा का कहीं तो असर होना था।वह चुनाव के नतीजे के तुरत बाद होनेवाली हिंसा में दिखलाई पड़ रहा है।मोदी और भाजपा इस हिंसा के लिए ज़िम्मेदार से बच नहीं सकते।

मुसलमानों को इसकी सज़ा दी जा रही है कि उन्होंने भाजपा को राजनीतिक रूप से कमजोर किया और विपक्ष को मज़बूत किया। जो मुसलमानों के चलते आज अधिक ताकतवर हुए हैं, वे अब उनकी तरफ़ से बोलने क़तरा रहे हैं या उनके लिए यह विचारणीय भी नहीं रह गया है।

तो यह किस क़िस्म का समाज है और किस तरह की राजनीति है? अगर 4 जून के नतीजों से विपक्ष में ज़रा भी धर्मनिरपेक्ष साहस नहीं पैदा हुआ तो उन्हें बेकार समझना चाहिए। अभी भी वक्त है कि विपक्षी दल ख़ुद को नतीजों के लायक़ साबित करें।  

(लेखक जाने माने चिन्तक और दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)

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