अंग्रेजी शिक्षा पर मैकॉले और राममोहन राय के विचार एक से थे!
सत्य हिंदी ने लार्ड मैकॉले पर वरिष्ठ पत्रकार एन. के. सिंह का एक लेख छापा। इसमें उन्होंने बताया है कि मैकॉले के बारे में देश में जो भ्राँतियाँ है, वो सही नहीं है। सबसे बड़ी भ्राँति यह है कि उसने इस देश में अंग्रेज़ी शिक्षा को लागू कर देश को अंग्रेज़ों का मानसिक ग़ुलाम बनाने का काम किया। यहाँ तक की बीजेपी के वरिष्ठ नेता एल. के. आडवाणी भी इस भ्राँति का शिकार हो गए। राजनीतिक बहसों में और सार्वजनिक मंचों पर तो बडे ज़ोर-शोर यह कहा ही जाता है कि मैकॉले ने भारत में काले अंग्रेज़ पैदा किये! और ये कहते हुये मैकॉले को एक ख़ूँख़ार खलनायक में तब्दील कर दिया जाता है। एन. के. सिंह ने इस ‘झूठ’ का पर्दाफ़ाश किया है।
हक़ीक़त तो यह है कि अगर इस देश में अंग्रेज़ी शिक्षा नहीं आयी होती तो देश में न तो सांस्कृतिक पुनर्जागरण होता और न ही राजनीतिक चेतना का विकास होता। बहुत संभव था कि देश ग़ुलाम ही बना रहता।
अंग्रेजी शिक्षा का असर
अगर आज़ाद भी हो जाता तो भी वह लोकतंत्र नहीं होता। इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि उसका हाल पाकिस्तान जैसा होता। 19वी सदी में भारतीय चेतना का जो परिष्कार हुआ और इस चेतना के जो लोग वाहक या नायक बने वे सब अंग्रेज़ी शिक्षा में पले-बढ़े थे। ज़्यादातर की शिक्षा लंदन में हुयी थी। फिर चाहे वो देवेंद्र नाथ टैगोर हो, जस्टिस राना डे या फिर दादा भाई नौरोज़ी या सुरेंद्र नाथ बनर्जी। सब ने अंग्रेज़ी भाषा को अपनाया। उसके उलट मुसलिम तबके ने अंग्रेज़ी भाषा को संदेह की नज़र से देखा और उसको नहीं अपनाया। नतीजा मुसलिम तबक़ा आधुनिक विचारों से दूर ही रहा। बाद में सर सैय्यद अहमद ने जब इस तथ्य को समझा तब तक काफ़ी देर हो चुकी थी। हिंदू समाज काफी आगे निकल चुका था।आज के राजनीतिक माहौल में जब कि राष्ट्रवाद का नारा अपनी बुलंदी पर है और हर किसी की देशभक्ति पर सवाल खडा किया जा रहा है, यह कहना क्या उचित होगा कि हक़ीक़त में देश को एक लिहाज़ से मैकॉले का शुक्रगुज़ार होना चाहिये! अगर उसने अंग्रेज़ी शिक्षा को लागू करने का फ़ैसला न किया होता तो शायद देश को आधुनिक विचारों और विचारधाराओं से रूबरू होने में काफी वक़्त लगता! सांस्कृतिक और राजनीतिक चेतना को स्वतंत्रता के आंदोलन का स्वरूप लेने में समय लगता।
‘मैकॉले पुत्रों’ की देन
आज जब इस बात को जमकर फैलाया जा रहा है कि पश्चिमी सोच ने दरअसल देश को विश्व गुरू बनने से रोक दिया और एक ऐसा अभिजात्य वर्ग पैदा हुआ जो भारतीय सोच को हिक़ारत से देखता है, और जब तक देश अपनी सांस्कृतिक सोच में नहीं सोचेगा तब तक वो सही मायने में तरक़्क़ी नही कर सकता। बात यहाँ तक खींची जाती है कि भारत का संविधान भी ‘मैकॉले पुत्रों’ की देन है और इसमे कुछ भी भारतीय नहीं है, यह पश्चिमी संप्रत्यों से लैस है। इस संदर्भ में यह आशंका भी जतायी जाती है कि कही आने वाले दिनों में भारतीय संविधान को पूरी तरह से बदल न दिया जाये और भारतीयता के नाम पर लोकतंत्र को ही सूली पर चढ़ा दिया जाये।
यह बताना ज़रूरी है कि मैकॉले ने जो कहा था उसको भारतीय पुनर्जागरण काल के पितामह कहे जाने वाले राजा राजमोहन राय का पूरा समर्थन था।
राजा राम मोहन राय की चिट्ठी
राजा राजमोहन राय ने मैकॉले से क़रीब बारह साल पहले एक चिठ्ठी अंग्रेज़ सरकार को लिखी थी। इस चिठ्ठी में उन्होने न केवल अंग्रेज़ी शिक्षा की वकालत की थी, बल्कि संस्कृत में पढ़ाये जाने का खुल कर विरोध किया था। यह माना जाता है कि मैकॉले ने ‘कमेटी ऑन पब्लिक इंस्ट्रक्शंस’ में जो भाषण दिया उसमे राजा राजमोहन राय की इस चिट्ठी का काफी पुट था। इस कमेटी को ही ये तय करना था कि भारतीय स्कूलों में शिक्षा देने का माध्यम क्या हो। कमेटी के आधे सदस्य अरबी और संस्कृत के पक्ष में थे तो बाकी आधे अंग्रेज़ी के। मैकॉले ने चेयरमैन के नाते ज़ोरदार भाषण दिया और ये कहा कि भारतीय भाषाओं में शिक्षा देने से देश अंधेरे में ही रहेगा क्योंकि इसमे आधुनिक विचारों का समावेश नहीं है और यह सिर्फ पुरातन बातें ही करता है। उसने रूस का उदाहरण दिया था, और कहा था कि यूरोपीय भाषा में शिक्षा देने से महज़ सौ साल में रूस अज्ञानता से निकल कर सभ्यता की ओर बढ़ा ।संस्कृत स्कूल का विरोध किया था राय ने
मैकॉले ने जो बात कही थी उसकी प्रतिध्वनि राज़ा राममोहन राय की चिठ्ठी में मिलती है। उन्होंने यह चिठ्ठी तब लिखी थी जब अंग्रेज़ों ने 1823 में कोलकाता में संस्कृत स्कूल खोला था। राम मोहन राय ने लिखा था कि संस्कृत में पढ़ा कर क्या हासिल होगा
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हिंदू पंडित वही पढ़ायेंगे जो पहले से पढ़ाया जा रहा है। ये स्कूल सिर्फ व्याकरण के सौंदर्य और आध्यात्मिक विशेषताओं को ही व्याख्यायित करेगा जिसका कोई व्यावहारिक उपयोग नहीं होगा। ये तो हज़ारों साल से सबको पता है।
राजा राम मोहन राय, अंग्रेजों को लिखी चिट्ठी का अंश
इसके बाद वो वेदांत और भारतीय दर्शन को पढ़ाने पर भी सवाल खड़े करते हैं। उनका मानना था कि भारत को उस वक़्त यह जानने की ज़रूरत थी कि दुनिया में ज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में नया क्या हो रहा है और अगर उसे ये सब नहीं बताया या पढ़ाया जायेगा तो फिर एक युवा के जीवन के 12-15 साल बर्बाद हो जायेंगे।
क्या चाहते थे राय
चिट्ठी के अंत में राजा राममोहन राय काफी तल्ख़ हो जाते हैं। वह कहते है कि ब्रिटिश राज्य को अज्ञानता में रहना होता तो बेकन का दर्शन नही पढ़ाया जाता। पुराने स्कूलों को चलने दिया जाता। इस संदर्भ में राजा राममोहन राय ने आगे जो लिखा उसे पढ़ कर आज के लोगों को काफी हैरानी हो सकती है और संस्कृत की वकालत करने वाले उनसे कुपित भी हो सकते हैं। राजा राममोहन राय ने लिखा,’संस्कृत शिक्षा इस देश को अंधकार में ही रखेगी, अगर यही अंग्रेज़ी संसद की नीति है तो।
अगर स्थानीय जनता का कल्याण सरकार का उद्देश्य है तो तो यह कहीं अधिक उदारवादी और ज्ञान संपन्न माध्यम में शिक्षा देने को प्रोत्साहित करेगी; गणित, विज्ञान, रसायन, जीवविज्ञान, और दूसरे तरह के विज्ञान को अपनायेगी और इसके लिये वह इंग्लैंड में पढ़े प्रतिभाशाली लोगों को इस काम में लगायेगी।
'साथ ही ऐसी शिक्षा के लिये ज़रूरी किताबें और दूसरी सुविधाओं से संपन्न कालेज बनायेगी।’ यानी राममोहन राय के मुताबिक़ संस्कृत में शिक्षा भारत को अंधेरे में ले जाती। मैकॉले ने भी कमोवेश यही बात 1835 में कही थी।
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हमें शासित जनता और अपने बीच एक ऐसा वर्ग तैयार करना है जो दूभाषिये का काम करे; एक ऐसा वर्ग जो रक्त और रंग में तो भारतीय हो लेकिन वह स्वभाव, पसंद, विचारों, मूल्यों और बुद्धि में अंग्रेज़ हो।
लॉर्ड थॉमस बैबिंग्टन मैकॉले
मैकॉले बने खलनायक
लोगों ने मैकॉले के इस वाक्य को पकड़ लिया और उसे खलनायक बना दिया। लेकिन इस वाक्य के ठीक बाद का वाक्य भूल गये। मैकॉले कहता है , ‘इस वर्ग पर हम ये ज़िम्मेदारी देंगे कि वह देश की स्थानीय बोलियों (भाषाओं) में परिष्कार करे, इन बोलियों को पश्चिम से लिये गये विज्ञान से समृद्ध करे और इस तरह से विशाल जनसाधारण को ज्ञान संपन्न करने का माध्यम बने।’ जब दोनों वाक्यों को जोड़कर देखते हैं तो बात पूरी की पूरी बदल जाती है।आज के युग में जब कि फ़ेक न्यूज़ का बोलबाला है, तब इतिहास की बाते उटपटाँग लग सकती है। लेकिन वहीं सभ्यतायें निरंतर तरक़्क़ी करती है जो नये संदर्भों में नये मूल्यों को समावेशित करती चलती है। और इतिहास के खलनायकों से भी सीखती हैं और उनका निरंतर मूल्यांकन करती चलती है। मैकॉले निश्चित तौर पर अंग्रेज़ था और उसकी सोच में ब्रिटिश साम्राज्य का हित था। पर राजा राममोहन राय यह समझ रहे थे कि अतीत की अभिलाषा वर्तमान और भविष्य को तब तक बेहतर नही बनायेंगी जब तक भारत देश अंग्रेज़ी के माध्यम से आधुनिक विचारों को स्वीकार नही करता। ऐसे में संस्कृत को कमतर करने की उनकी मंशा नहीं थी, वह सिर्फ नये संदर्भ में नये मूल्यों की वकालत कर रहे थे। ऐसे में यह इत्तेफ़ाक है कि मैकॉले और राजा राममोहन राय की राय लगभग एक सी थी। और इतिहास में ऐसे वाकये होते रहते हैं।