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राष्ट्रवादी ज्ञान के मामले में तार्किकता की तलाश व्यर्थ और अनावश्यक

राष्ट्रवादी ज्ञान के मामले में तार्किकता की तलाश व्यर्थ और अनावश्यक

भगवान गणेश की कथा को ब्रह्मांड में पहली प्लास्टिक सर्जरी की घटना बताना या फिर सुश्रुत को पहला शल्य चिकित्सक बताना, क्या इन बातों के पीछे कोई वैज्ञानिक तर्क है। 

“इसमें कोई शक नहीं कि शल्य चिकित्सा का ज्ञान भारत से ही पूरी दुनिया में गया था। भगवान गणेश वे पहले व्यक्ति थे जिनकी प्लास्टिक सर्जरी की गई थी। यह भी इत्तेफ़ाक़ नहीं कि वे मूषक की सवारी करते हैं।” हैं या थे?

ऐसी बात अगर आज का प्रधानमंत्री बोले तो लोग उसे जनतांत्रिक जुमला कहते हैं। आख़िर उन्हें एक मूर्ख जनता का निर्माण जो करना है। यह जनतंत्र में राजनीति का अधिकार है। नेता को जनता में मूर्खता का प्रचार करने का संसदीय अधिकार है। 

जैसे मनुष्य देवता को अपनी छवि में गढ़ते हैं, वैसे ही नेता अपनी देवता, यानी जनता को अपनी छवि में गढ़ने की कोशिश करते हैं। दोनों को एक दूसरे के योग्य साबित करना पड़ता है। कुछ वक्त बाद तय करना मुश्किल हो जाता है कि मूर्ख जनता ने अपना नेता बनाया या नेता ने अपनी जनता का सृजन किया। फिर जो इस मूर्खता को मूर्खता कहता है, वह गणशत्रु हो उठता है। जनता उसके खून की प्यासी हो उठती है।

आख़िरकार इन्हीं प्रधानमंत्री ने कुछ वर्ष पहले ही अपने मित्र पूँजीपति के हस्पताल के उद्घाटन के अवसर पर डॉक्टरों और समाज के अभिजन से भरी सभा में दावा किया था कि कर्ण के जन्म की कथा से मालूम होता है कि भारत में आनुवंशिकी का ज्ञान मौजूद था।

गर्भ के बाहर जन्म हो सकता है, यह बिना जेनेटिक विज्ञान के कैसे कल्पना की जा सकती थी? कवि कल्पना आख़िर वैज्ञानिक के सत्य पर ही आधारित हो सकती है! यह भारतीयतावादियों का विश्वास है। वे न तो वाल्मीकि को और न व्यास की कल्पना को स्वायत्त मानना चाहते हैं। जैसे सौ कौरवों के जन्म की कथा इसका प्रमाण है कि भारत में महाभारत के समय स्टेम सेल का विज्ञान मौजूद था। यह बात भी नेता ने अपनी जनता को बतलाई थी। 

इस पर कोई नहीं सोचता कि क्यों दुनिया के दूसरे हिस्सों के लोग अपनी दंतकथाओं पुराकथाओं के लिए वैज्ञानिक तर्क नहीं खोजते? क्यों उन्हें ऐतिहासिक बतलाने पर ज़ोर नहीं देते? क्यों हमारे भीतर यह हीनता ग्रंथि है कि बिना विज्ञान द्वारा प्रमाणित हुए हम अपनी कथाओं को सच नहीं मान पाते? क्यों हमारे पौराणिक चरित्रों को ऐतिहासिक होना पड़ता है?

…गोली मारने का आह्वान 

मूर्खता का प्रचार पूरी तरह क़ानूनी है, वैसे ही जैसे राष्ट्रवाद के लिए घृणा और हिंसा के प्रचार का। अपने लोगों में जोश भरने के लिए और उन्हें अपनी तरफ इकट्ठा करने के लिए अगर आप देश के ग़द्दारों को गोली मारने का आह्वान कर रहे हैं, या हिंदू राष्ट्र के निर्माण के लिए मारने की तैयारी करने का नारा लगा रहे हैं, तो उसे समझा जा सकता है। वह अपराध नहीं है! इतना तो अब भारत के न्यायाधीश भी समझने लगे हैं।

क्या हिंसा के लिए मूर्खता की भूमि आवश्यक है? ख़ासकर जब किसी समुदाय के ख़िलाफ़ हिंसा हो? किसी समुदाय, पूरे के पूरे समुदाय को अपना शत्रु मानने के लिए ख़ासी मूर्खता चाहिए।

मूर्खता है श्रेष्ठतावाद 

एक समय जर्मन समाज में यह मूर्खता थी कि उसने यहूदी समुदाय को अपना दुश्मन मानकर उसके विनाश को अपना धर्म माना। आज इस्राइल के यहूदी समाज में वैसी ही मूर्खता है जिसके कारण वे ख़ुद को श्रेष्ठ मानकर अरब, फ़िलिस्तीनियों पर वैसी ही हिंसा कर रहे हैं, जैसी उनके साथ यूरोप में की गई थी। श्रेष्ठतावाद ऐसी मूर्खता है सब जिसे आभूषण की तरह धारण करते हैं। और यह श्रेष्ठतावाद हिंसा को जन्म देती ही है। 

जैसे भारतीय समाज में ब्राह्मणों को श्रेष्ठ मानने की मूर्खता। उसके कारण सहस्रों वर्षों से सामाजिक संरचना में बिंधी हुई हिंसा अब इतनी स्वाभाविक हो गई है कि उसे हिंसा कहनेवाले की हत्या की जा सकती है।

पहली प्लास्टिक सर्जरी 

बहरहाल! हम फिर शुरुआत पर लौट आएँ। जो वक्तव्य इस टिप्पणी के आरंभ में उद्धृत है, वह किसी राजनेता का नहीं, वह ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज़ के प्लास्टिक सर्जरी विभाग के अध्यक्ष का वक्तव्य है। उन्होंने गणेश की कथा को ब्रह्मांड में पहली प्लास्टिक सर्जरी की घटना बतलाया। साथ ही यह भी कहा कि सुश्रुत इस धरती के पहले शल्य चिकित्सक ही नहीं, वैज्ञानिक और सिद्धांतकार भी थे। 

हमारे डॉक्टर साहब देखकर हैरान रह गए कि उन्होंने जिन औज़ारों का उल्लेख किया है, वे उस समय के धातुविज्ञान में उल्लिखित धातुओं के मेल में हैं।

सुश्रुत अगर पहले शल्य चिकित्सक थे तो प्रभु गणेश का काल क्या है? या यह प्रश्न निरर्थक और अप्रासंगिक है? क्या प्लास्टिक सर्जरी पहले शुरू हुई या अन्य प्रकार की शल्य चिकित्सा? यह भी एक सिर को किसी दूसरी गर्दन पर लगाना प्लास्टिक सर्जरी कैसे है? क्या वह अंग प्रत्यारोपण है? एक ही वस्तु दो कैसे हो सकती हैं? 

लेकिन राष्ट्रवादी ज्ञान के मामले में तार्किकता की तलाश व्यर्थ और अनावश्यक है।

चूहे की सवारी का तर्क 

मूर्खता प्रामाणिक लगे इसलिए उसमें हर सीमा पार करनी होती है। जैसे डॉक्टर साहब ने गणेश को तो प्लास्टिक सर्जरी का प्रमाण बतलाया। फिर कहा कि उनके मूषक को अपना वाहन चुनना भी वैज्ञानिक है क्योंकि हम अपने सारे प्रयोग चूहों पर करते हैं। क्या गणेशजी ने इसीलिए चूहे की सवारी चुनी? यह क्या सुश्रुत ने सिखाया है या किसी विदेशी ने?

फिर भी हमारे डॉक्टर साहब को इन सवालों से छुट्टी नहीं मिलेगी क्योंकि वे जनता के बीच नहीं चिकित्सा विज्ञान की बिरादरी के सामने जवाबदेह होंगे। और अगर ख़ुद को भारत की भौगोलिक सीमा में नहीं बल्कि अपने ज्ञान के विश्व का सदस्य मानते हैं तो उन्हें अन्तरराष्ट्रीय बिरादरी के सामने भी अपनी बात का मान रखना होगा।

देसी गाएँ विदेशी गायों से श्रेष्ठ

लेकिन जैसा देखा जा रहा है, हमारे वैज्ञानिक पेश पेश हैं नेता के ज्ञान को प्रमाणित करने में। जैसे इसी संस्थान ने कुछ समय पहले एक शोध शुरू किया था कि कोमा में पड़े मरीज़ों को महामृत्युंजय जाप से जगाया जा सकता है या नहीं! वैसे ही दिल्ली आईआईटी ने पंचगव्य पर अलग से काम करने की घोषणा की थी। देसी गाएँ रसायनों और धातुओं को कैसे पचा जाती हैं? इस आश्चर्य का राज हमारे वैज्ञानिक खोजना चाहते हैं। यह भी कि हमारी देसी गाएँ विदेशी गायों से श्रेष्ठ कैसे हैं!

कोरोना ख़त्म होने का आश्वासन 

वैसे ही कोरोना संक्रमण के समय सरकार की तरफ़ से नियुक्त डॉक्टर वीके पॉल ने बाक़ायदा घोषणा कर दी थी कि भारत में किस तारीख़ को संक्रमण समाप्त हो जाएगा। यह हिमाक़त दुनिया के किसी और वैज्ञानिक ने नहीं की थी। संक्रमण अभी भी चल रहा है लेकिन वैज्ञानिक डॉक्टर पॉल ने अपने दावे के लिए, जो दो साल पहले ही ग़लत साबित हो गया, कोई माफ़ी नहीं माँगी है। 

शायद जब वे भारत की जनता को यह आश्वासन दे रहे थे, तब भी जानते थे कि वे ग़लतबयानी कर रहे हैं। लेकिन इसमें इन्हें कोई संकोच नहीं हुआ। ऐसी निश्चित भविष्यवाणी की जा सकती है, यह ख़याल ही हास्यास्पद है, लेकिन डॉक्टर पॉल ने बेझिझक यह किया। और वह सिर्फ़ इसलिए कि अपने नेता को सर्वोपरि सिद्ध कर सकें।

हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद 

मूर्खता का निरंतर, चौतरफ़ा प्रचार, प्रसार उसको समाज का स्वभाव बनाने के लिए आवश्यक होता है। वह जीवन के एक ही क्षेत्र में करने से नहीं होगा। नक्षत्र विज्ञान हो या जीव विज्ञान या इतिहास या भौतिक शास्त्र, हर इलाक़े में ग़लतबयानी, झूठ और मूर्खता को स्थापित करना होता है। इसलिए जो यह समझते थे कि यह हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद मात्र इतिहास को अपनी शिकारगाह बनाकर संतुष्ट हो जाएगा, वे भोले थे। इसे समाजशास्त्र, गणित, चिकित्साशास्त्र, सब चाहिए। 

जो इस राष्ट्रवाद को भारत के लिए स्वीकार्य मानते हैं, उन्हें अपने क्षेत्र में भी मूर्खता की देवी को तुष्ट करने के लिए ज्ञान की बलि देनी होगी।

अंतरराष्ट्रीय प्लास्टिक सर्जरी दिवस पर भारत को इस विद्या का प्रणेता बनाकर हमारे डॉक्टर हास्य के पात्र होंगे। लेकिन इसकी उन्हें परवाह नहीं। नेता के सामने तो उनके नंबर बढ़े न?

नेताओं के मूर्खता अभियान में जब विद्वान शामिल होने को तत्पर हों तो देश वाक़ई ख़तरे में है। ऐसा वे क्यों करते हैं? क्यों एक अर्थशास्त्री नोटबंदी के फ़ायदे गिनाता है, क्यों एक इतिहासकार राणा प्रताप को अकबर पर विजयी साबित करता है, क्यों एक भाषाशास्त्री संस्कृत को विश्व की सारी भाषाओं की जननी ठहराता है? इन प्रश्नों का उत्तर जब आप उनसे चाहेंगे जो वास्तव में विद्वान हैं लेकिन इस मूढ़ता के अभियान के सिपहसालार बन गए हैं तो वे अकेले में कहेंगे कि उनकी इन बातों को गंभीरता से लेने की ज़रूरत नहीं। लेकिन जो ज़्यादा ढीठ हो जाते हैं, वे कुतर्क और धमकी पर उतर आते हैं।

ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज़ सुश्रुत के ज्ञान का दस्तावेज़ीकरण करे इससे अधिक आवश्यक है कि वह अभी स्वास्थ्य के क्षेत्र में मौलिक शोध करे। वह करना कठिन है, अपने पूर्वज चुनकर उनकी काल्पनिक उपलब्धि के कीर्तन में किसी प्रतिभा की आवश्यकता ही नहीं। सांसारिक लाभ की कामना और संभावना तो है ही।

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