किसी भी कल्याणकारी राज्य में सरकार का पहला कर्तव्य उसके नागरिकों के स्वास्थ्य या चिकित्सा और शिक्षा पर सबसे ज्यादा ध्यान दे। लेकिन देश का सबसे सबसे मकबूल नेता अपने दस साल के शासन के बाद भी जब चुनाव जीतने के लिए अपने भाषणों में लाक्षणिक रूप से मछली, मीट, मंगलसूत्र और मुसलमान कह कर डराये, तर्क की जगह वितंडावाद का सहारा ले और नितांत व्यक्तिगत धार्मिक कर्मकांड को चुनाव प्रचार का हिस्सा बनाये तो देश का भविष्य सही हाथों में नहीं माना जा सकता है।
स्वास्थ्य पर भूटान-श्रीलंका मीलों आगे
दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी इकॉनमी में स्वास्थ्य के मद में सरकार का प्रति-व्यक्ति सालाना खर्च (25 डॉलर) है जबकि भूटान 2.5 गुना, श्रीलंका तीन गुना, थाईलैंड दस गुना और ब्रिक्स के तमाम देश जैसे चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका 14-15 गुना ज्यादा खर्च करते हैं। चिंता सिर्फ यह नहीं है कि भारत की सरकार बेहद कम खर्च कर जनता को अपनी गाढ़ी कमाई इलाज में लगाने को मजबूर करती है, बल्कि यह कि पिछले दस वर्षों में केंद्र का खर्च लगभग वहीं का वहीं रुका है जबकि राज्य की सरकारें मजबूरन अपना व्यय इसी काल में डेढ़ गुना की हैं।
केन्द्र सरकार के बजट पर नज़र डालें तो वर्ष 2019-20 में जो राशि इस मद में दी गयी उसमें वर्ष 2023-24 में मात्र चार प्रतिशत का इजाफा हुआ जबकि राज्यों ने अपनी जीडीपी का डेढ़ गुना (0.64 प्रतिशत के मुकाबले 0.96 प्रतिशत) कर दिया। इसमें भी गंभीर मुद्दा यह है कि केंद्र के स्वास्थ्य मंत्रालय ने राज्यों को दिया जाने वाला हिस्सा जो वर्ष 2013-14 में 75.9 प्रतिशत था, घटा कर वर्ष 2023-24 में 43 प्रतिशत कर दिया। आयुष्मान योजना का राजनीतिक लाभ तो केंद्र की सरकार ने लिया लेकिन इस मद में भी होने वाले खर्च का बड़ा हिस्सा राज्यों को भुगतना पड़ता है। यह बात कम लोगों को पता है कि कोरोना महामारी के दौरान भी खर्च में राज्यों की भूमिका अग्रणी रही।
जहां तक स्वास्थ्य बीमा का सवाल है तो उसका लाभ गरीब व्यक्ति को इसलिए नहीं मिल पा रहा है क्योंकि बीमा का कार्ड इलाज नहीं करता। इलाज तब होता है जब स्वास्थ्य सेवा का ढाँचा और वह भी ईमानदार और ब्लॉक और जिले तक उपलब्ध हो। उस कार्ड का वास्तविक लाभ तभी मिल सकता है।
दुनिया में बाल-कुपोषण में भारत की स्थिति बेहद ख़राब है हालाँकि उसे भी लेकर सरकार ‘डिनायल मोड’ में रहती है और रिपोर्ट बनाने वालों को भारत-विरोधी बताती रही है।
75 साल बाद भी ‘15 सेकंड बनाम 15 मिनट’?
आम धारणा है कि समय के साथ मिले अनुभव से समाज की व्यक्तिगत हीं नहीं सामूहिक समझ भी बेहतर होती है। पर भारत का प्रजातंत्र इसका अपवाद रहा और वर्तमान चुनाव में इस तथ्य का इजहार भी सबसे घिनौने तरीक़े से किया गया। धर्म, जाति, अगड़ा-पिछड़ा, काला-गोरा, अमीर-गरीब, 15 मिनट बनाम 15 सेकंड, अर्ध-सत्य बता कर बदनाम करने वाले आंकड़े, बलात्कार के सच्चे-झूठे आरोप और ‘मंदिर बनाने वाले बनाम मंदिर में ताला लगवाने वाले’ जैसे विभाजक मुद्दों को हवा दे कर राजनीतिक वर्ग सत्ता में तो आ सकता है लेकिन इसकी क़ीमत एक स्थाई रूप से विखंडित सामाजिक ताने-बाने के रूप में होगी और ये मुद्दे समाज को स्थाई घाव दे जायेंगे।
जब चुनाव मंचों से लाक्षणिक भाषा में किसी पहचान-समूह को लक्षित कर “मंगलसूत्र”, “औरंगजेब” या “मीरजाफर” कहते हैं तो दो समुदायों के बीच अविश्वास घृणा बन जाता है। घृणा-आधारित खंडित समाज किसी भी जीडीपी के आयतन से रफू नहीं किया जा सकता है। एक वर्ग का ऐन चुनाव के वक़्त अगड़ा-पिछड़ा जनसंख्या के आधार पर संसाधनों का वितरण और आरक्षण दकियानूसी सोच है जो जनसंख्या-वृद्धि को बढ़ावा देती है। वहीं दूसरे वर्ग का 65 साल के अधूरे आँकड़े दे कर एक संप्रदाय के लोगों को देश की जनसंख्या और तज्जनित गरीब का कारण बताना सत्तालोलुपता की पराकाष्ठा है।
क्या यह सच नहीं कि अगर किसी एक समुदाय ने पिछले तीन दशकों में अपनी दस-साला (डिकेडल) ग्रोथ रेट सबसे तेजी से घटाई है तो वह उक्त सम्प्रदाय है? अगर 2021 की जनगणना हुई होती तो इस वर्ग का ग्रोथ दर लगभग उतना ही पाया जाता जितना राष्ट्रीय औसत होता। परिवार-नियोजन एक आर्थिक-सांस्कृतिक-शैक्षिक प्रक्रिया है। जिन पहचान-समूहों में शिक्षा कम होती है वहाँ नियोजन असफल होता रहा है। बिहार इसका लगातार उदाहरण बना हुआ है जहां का ग्रोथ रेट राष्ट्रीय औसत का लगभग डेढ़ गुना है। क्या इसके कारण हम वहाँ के लोगों या सरकारों को मुद्दा बनाते हैं? पुरानी कहावत है –युद्ध और प्यार में सब कुछ जायज है। लेकिन राजनीतिक वर्ग इस चुनाव में वैमनस्यता को स्थाई बनाने का गुनाह कर रहा है।
(एनके सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन के पूर्व महासचिव हैं। ये लेखक के अपने विचार हैं।)