महाभारत का युद्ध ख़त्म हो गया था और पांडव सेना में हर कोई उस जीत का श्रेय लेना चाहता था। युधिष्ठिर जानते और मानते थे कि इस युद्ध की जीत सिर्फ़ वासुदेव यानी भगवान कृष्ण की वजह से हुई है। युद्ध को समझने के लिए एक ऐसे निष्पक्ष व्यक्ति की तलाश थी जिसने पूरा युद्ध देखा हो और निष्पक्ष वर्णन कर सके। राजा बर्बरीक के शीश ने वह पूरा युद्ध देखा था। वो महाबली भीम के पौत्र और घटोत्कच के बेटे थे। जब उनसे पूछा गया तो महाबली बर्बरीक ने कहा कि मुझे तो युद्ध में दुश्मन पक्ष से लड़ते सिर्फ वासुदेव ही दिखाई दिए। हर जगह वासुदेव लड़ रहे थे।
महाभारत की इस पौराणिक कथा को बीजेपी और संघ से जुड़े एक वरिष्ठ नेता ने मुझे उस सवाल के जवाब में सुनाया जब मैंने उनसे बीजेपी की 2019 में हुई शानदार जीत और उसके बाद विधानसभा चुनावों में एक के बाद एक जीत का कारण जानना चाहा। उनका कहना था कि बीजेपी की तरफ़ से युद्ध में सिर्फ़ मोदी ही लड़ रहे हैं। चुनावी समर में यूं तो हर कोई अपनी तरफ से मैदान में है लेकिन उसकी ताकत, उसका चेहरा, उसका भरोसा सिर्फ़ नरेन्द्र मोदी हैं जिसकी वजह से ये जीत हासिल हो रही है। उन्होंने कहा कि साल 2014 के चुनावों में तो सच मानिए कि मतदातों को अपने संसदीय क्षेत्र के उम्मीदवार के बारे में कोई जानकारी तक नहीं थी लेकिन उसने मोदी के नाम पर वोट दिया और कमोबेश यही हाल 2019 के चुनावों में रहा अन्यथा करीब पचास से ज़्यादा सांसदों के ख़िलाफ़ एंटी इंकंबेंसी थी और उनका जीतना मुश्किल था, लेकिन बीजेपी 282 से बढ़कर 303 तक पहुंच गई।
बहुत से विरोधी अक्सर यह कहते ही रहे हैं कि मोदी का चेहरा लोकसभा चुनावों में तो बीजेपी की जीत की गारंटी है लेकिन विधानसभा चुनावों में वोटर स्थानीय मुद्दों और चेहरों के हिसाब से वोट देता है यानी मोदी उस जीत के हकदार नहीं होते। इस बात को कर्नाटक चुनावों में बीजेपी की हार के बाद संघ के मुखपत्र माने जाने वाली पत्रिका ‘आर्गेनाइजर’ में छपे एक लेख से और बल मिला, जिसमें कहा गया था कि केवल मोदी के नाम के भरोसे या हिन्दुत्व के नाम पर चुनाव नहीं जीते जा सकते। इस लेख के बाद हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने मुख्यमंत्री के चेहरे के साथ चुनाव नहीं लड़ा और केवल मोदी के नाम और चेहरे पर ही चुनाव लड़े गए और हिन्दी पट्टी के तीनों महत्वपूर्ण राज्यों- छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में बीजेपी ने मजबूत जीत हासिल की। साल 2023 में बीजेपी ने 6 राज्यों में सरकार बनाई है।
अगले लोकसभा चुनावों की अनौपचारिक तौर पर उलटी गिनती शुरू हो गई है और विपक्षी दलों का इंडिया गठबंधन मोदी के मुकाबले कोई सशक्त चेहरा अभी तक नहीं ढूँढ पाया है और अब बिना चेहरे के ही शायद वो चुनाव लड़े जबकि बीजेपी मोदी के चेहरे पर ना केवल इस बार ‘हैट-ट्रिक’ लगाने की तैयारी में है बल्कि उसे उम्मीद है कि इस बार वो पिछले रिकार्ड को भी तोड़ देगी। वैसे, यह काम आसान नहीं है क्योंकि उत्तर भारत में बीजेपी पिछले चुनाव में ही नब्बे फीसदी से ज़्यादा सीटों पर कब्जा कर चुकी और दक्षिण भारत में उसके नंबर बढ़ने की संभावना फिलहाल नहीं दिखती। कमोबेश यही हाल पूर्वी और पश्चिमी भारत का भी है बल्कि इन तीनों हिस्सों में इंडिया गठबंधन और दूसरे राजनीतिक दल उसे मजबूत टक्कर देने की स्थिति में दिखाई देते हैं। फिर क्या वजह है कि बीजेपी को अपनी जीत का इतना भरोसा है?
इसका एकमात्र कारण मोदी का नेतृत्व दिखाई देता है। सवाल यह भी है कि मोदी के चेहरे को इतनी ताक़त कैसे मिली और वो कैसे बीजेपी का ब्रांड बन गए हैं जिसका मुक़ाबला करने के लिए किसी दूसरे दल के पास कोई मज़बूत चेहरा नहीं है?
क्यों मोदी के दस साल के राज के बाद भी उनके ख़िलाफ़ एंटी-इंकंबेंसी दिखाई नहीं देती है?
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि मोदी ने यह विश्वसनीयता और ताक़त अपने काम और डिलीवरी पर बनाई। इसके साथ ही संघ और बीजेपी की विचारधारा को उन्होंने मजबूती से आगे रखने और लोगों में इसके लिए भरोसा पैदा करने का काम किया है। आरएसएस के एजेंडा में तीन प्रमुख बातें रहीं जिन्हें बीजेपी हमेशा अपने चुनावी घोषणा पत्र में शामिल करती रही लेकिन खुद उसे भी इनके पूरा होने की उम्मीद नहीं थी। इन तीन मुद्दों अयोध्या में राम मंदिर निर्माण, कश्मीर से अनुच्छेद -370 को ख़त्म करना और यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करना शामिल है। साल 1998 में बनी वाजपेयी की गठबंधन सरकार में तो इन मुद्दों पर काम करने के बजाय इन्हें अलग रख दिया गया था यानी विवादित मुद्दों पर बीजेपी सहयोगी दलों के साथ झगड़ा मोल नहीं लेना चाहती थी।
साल 2014 में मोदी सरकार के आने के बाद इन मुद्दों को प्राथमिकता दी गई और पार्टी की तरफ़ से ज़ोर-शोर से रखा गया। मोदी सरकार ने कश्मीर में अनुच्छेद-370 को खत्म कर दिया और अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हो रहा है, जिसमें 22 जनवरी को प्राण प्रतिष्ठा समारोह का आयोजन किया गया है। साथ ही दोनों मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर लग गई है। यूनिफॉर्म सिविल कोड को भी यदि अगली बार मोदी सरकार आती है तो बहुत संभव है कि उसे लागू कर दिया जाए। इसके साथ ही तीन तलाक को खत्म करना भी एक बड़ा मुद्दा रहा। संसद का नया भवन बनाना और उसमें 1996 से लटके महिला आरक्षण बिल को पास करना भी बड़ी जीत के तौर पर देखा जा रहा है। सरकार अब एक देश-एक चुनाव की तरफ भी बढ़ रही है।
मोदी अपनी हर बात पर ‘अनअपोलोजेटिक’ दिखते हैं यानी कोई दुविधा नहीं।
चुनावी राजनीति में और सरकार के ख़िलाफ़ एंटी इंकंबेंसी को कम करने में सरकार की उज्ज्वला योजना, डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर, किसान समृद्धि योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना और 80 करोड़ लोगों को पांच किलो अनाज बांटने की योजना की अहम भूमिका रही है। माना जा रहा है कि बीजेपी ने इस तरह से क़रीब 28 करोड़ लाभार्थी तैयार किए हैं यदि उसमें से 20 करोड़ लोग भी उसे वोट देते हैं तो यह चुनाव जीतने के लिए महत्वपूर्ण होंगे। इसके साथ ही मोदी के कमान सँभालने के बाद बीजेपी की लोकप्रियता में भी तेजी से बढ़ोतरी हुई है और आज करीब 20 करोड़ बीजेपी कार्यकर्ता रजिस्टर्ड हैं। दुनिया के देशों में मोदी की लोकप्रियता के साथ वहां रहने वाले भारतीयों में भी उनका क्रेज बढ़ा है जिसका अप्रत्यक्ष फायदा देश में भी होता है।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि बीजेपी की प्रोपेगंडा मशीनरी ने मोदी के राजनीतिक कद को इस जगह पहुंचा दिया है कि वहां उनसे मुकाबला करना मुश्किल लगता है।
मोदी की विश्वसनीयता और लोकप्रियता का ऐसा माहौल रचा गया है कि अब किसी भी योजना की ‘गारंटी’ पर ‘मोदी की गारंटी’ की मुहर लग गई है। ‘गारंटी’ शब्द का पहला इस्तेमाल कांग्रेस ने कर्नाटक चुनावों में किया था लेकिन अब यह बीजेपी का ट्रेडमार्क बन गया लगता है। सवाल यह है कि क्या विपक्ष इस मोदी ब्रांड का कोई तोड़ निकाल पाया है। सवाल सिर्फ़ चेहरे का नहीं है क्या उसके पास मोदी के जवाब में कोई ऐसा बड़ा मुद्दा है जो वोटर को उसके पक्ष में खड़ा कर सके?
मोदी अपनी तीसरी पारी के साथ भारत को दुनिया की तीसरी इकॉनमी बनने का दम भर कर एक नया ताकतवर सपना दिखा रहे हैं, क्या विपक्ष के पास कोई मज़बूत सपना है बेचने के लिए? यह सच है कि चुनावों में फैक्टर नहीं चलता लेकिन यदि आपके पास कोई जवाब नहीं है तो फिर उसे चलने से कोई रोक भी नहीं सकता। चुनावों के लिए वक्त की घड़ी तेजी से घूम रही है और विपक्ष के पास अभी कोई ठोस रणनीति नहीं दिख रही। चुनाव की हार-जीत जनता तय करती है बिना आवाज़ किए। उसकी गूंज वोट में सुनाई देती है और ब्रांड हमेशा ही नंबर वन बना रहे, यह भी ज़रूरी नहीं।