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जब लहर नहीं, तो लोग क्यों कहते हैं आएगा मोदी ही

जब लहर नहीं, तो लोग क्यों कहते हैं आएगा मोदी ही

नरेंद्र मोदी की महाकाय शख़्सियत के इर्द-गिर्द व्यक्ति केंद्रित प्रचार इस चुनाव की सबसे बड़ी कहानी है और इससे यह लगता है कि कोई और मुद्दा या उम्मीदवार चुनाव मैदान में है ही नहीं।

महीनों तक एयर कंडीशनर स्टूडियो में बैठने के बाद अब टीवी एंकर्स चुनाव के समय मैदान में उतरे हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों में पैराशूट के माध्यम से उतरे हम एंकरों से अब यह उम्मीद की जा रही है कि न केवल हम रिपोर्ट करें बल्कि चुनाव नतीजे भी सही-सही बताएँ। ऐसे में, मैं जहाँ-जहाँ जा रहा हूँ, मुझसे एक ही सवाल पूछा जा रहा है कि हवा किस दिशा में बह रही है।इस वक़्त दो तरीक़े की राजनीतिक हवा दिखाई पड़ रही है। एक तरफ़ एक पार्टी के पक्ष में लहर बनती दिख रही है तो दूसरी तरफ़ यह कहा जा रहा है कि एक रहस्यमय लेकिन शांत अंडरकरंट धीरे-धीरे दूसरे पक्ष की तरफ़ बढ़ता जा रहा है।

2014 में एकतरफ़ा और आश्चर्यजनक फ़ैसला आया। उस चुनाव में बीजेपी को सिर्फ़ 31 फ़ीसदी वोट मिले थे फिर भी उस चुनाव को लहर का चुनाव बताया गया था। तब बहुमत से चुनाव जीतने वाली पार्टी को चुनाव के इतिहास में सबसे कम वोट मिले थे। शायद, यह अंकगणित के आधार पर मिला बहुमत था फिर भी हमने उसे राष्ट्रीय हवा या राष्ट्रीय लहर का नाम दिया था। 

उस वक़्त भी उत्तर-पश्चिम भारत में यानी अरब सागर से लेकर गंगा के किनारे और हिमालय तक लहर दिखाई पड़ी थी। सिर्फ़ 13 राज्यों में पंजाब और जम्मू-कश्मीर को छोड़कर भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों ने आश्चर्यजनक रूप से 291 में से 278 सीटें जीती थीं। इन राज्यों में से ज़्यादातर में बीजेपी का वोट प्रतिशत 40 फ़ीसदी से ज़्यादा था। बीजेपी को तब सबसे ज़्यादा वोट गुजरात में पड़े थे, जहाँ वोटों का आँकड़ा 59.1 फ़ीसदी था। इसके अतिरिक्त देश के दूसरे हिस्सों यानी दक्षिण और पूर्वी भारत में बीजेपी 245 में से सिर्फ़ 65 सीटें ही जीत पाई थी। 

इस तरह का सेफ़ोलॉजिकल हादसा बहुत कम होता है या अपवाद स्वरूप ही होता है। कांग्रेस डेटा टीम के प्रमुख प्रवीण चक्रवर्ती ने 2014 चुनाव को ‘ब्लैक स्वॉन मूवमेंट’ क़रार दिया था और तब ज़्यादातर लोग आश्चर्यचकित रह गए थे। लेकिन इस संभावना से कैसे इनकार किया जा सकता है कि बिजली दुबारा नहीं गिरेगी।

इस संभावना से कैसे इनकार किया जा सकता है कि नरेंद्र मोदी की टीम तमाम आशंकाओं को दरकिनार करते हुए देश के सीमित भू-भाग में फिर वही करिश्मा न दोहरा दे। क्या 2019 में 2014 की पुनरावृत्ति नहीं हो सकती और पहले की तरह ही नाटकीय फ़ैसला नहीं आ सकता।

हालाँकि ऊपर से देखने पर ऐसा संभव नहीं लगता। क्योंकि 2014 और 2019 में काफ़ी फ़र्क है। इसे ऐसे समझ सकते हैं। पहली बात यह कि 2014 में बीजेपी चैलेंजर की भूमिका में थी और उसने बड़ी चतुराई से मनमोहन सिंह सरकार के ख़िलाफ़ लोगों के ग़ुस्से को अपने पक्ष में भुना लिया था। अब बीजेपी सत्ता में है। ऐसे में वह 2014 की तरह कांग्रेस के ख़िलाफ़ ग़ुस्से को अपने पक्ष में नहीं कर सकती। दूसरी, पिछली बार उत्तर और पश्चिम भारत के कई राज्यों में बीजेपी ने स्वीप किया था। ऐसे में 1 भी सीट का नुक़सान बीजेपी के ख़िलाफ़ जाएगा। तीसरी, विपक्षी दल पहले से ज़्यादा संगठित हैं और गठबंधन बनाने में कामयाब रहे हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण उत्तर प्रदेश में अखिलेश और मायावती का गठबंधन है। यह बात इस चुनाव में काफ़ी निर्णायक साबित हो सकती है।

लेकिन चुनाव में गठबंधन का अकंगणित चुनावी रसायन को नज़रअंदाज नहीं कर सकता है। और यही 2014 और अब के चुनाव में बुनियादी अंतर है। अगर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं होते तो भी 2014 में बीजेपी अपने बल पर सरकार बना सकती थी, क्योंकि यूपीए 2 के ख़िलाफ़ लोगों में ज़बरदस्त ग़ुस्सा था। फिर भी यह कहना सही होगा कि नरेंद्र मोदी ने अपने बल पर अति आक्रामक चुनाव प्रचार से पार्टी को निर्णायक बढ़त दिलाई थी। लेकिन 2019 में अब यह साफ़ दिख रहा है कि बीजेपी का पूरा चुनाव प्रचार सिर्फ़ एक व्यक्ति के इर्द-गिर्द सिमट गया है और बाक़ी के लोग हाशिये पर हैं।

नरेंद्र मोदी की महाकाय शख़्सियत के इर्द-गिर्द व्यक्ति केंद्रित चुनाव प्रचार इस चुनाव की सबसे बड़ी कहानी है। और उनके इस प्रचार में उनकी मदद कर रहा है दिन-रात चलने वाला मीडिया का शोर। जिनको देखकर यह लगता है कि कोई और मुद्दा या उम्मीदवार चुनाव मैदान में है ही नहीं।

इस बार राष्ट्रपति चुनाव की तरह चुनाव प्रचार हो रहा है और लोकसभा के 543 सदस्यों पर इसको इस क़दर थोप दिया गया है कि इससे ऐसा लगता है कि दूसरे कारक और परंपरागत जातीय समीकरण पूरी तरीक़े से मर्दवादी राष्ट्रवाद या मजबूत नेता में समाहित हो गए हैं।

मीडिया के द्वारा प्रतिपादित एक ‘कल्ट विशेष’ का सृजन हो रहा है जिसमें सोशल मीडिया, वाट्सएप मैसेजेस और मुख्य धारा के मीडिया समुदाय ने राजनीति को रियलिटी टीवी के तमाशे में तब्दील कर दिया है। मोदी इस तमाशे के बिग बॉस हैं।

मैं आपको एक उदाहरण देता हूँ। पूर्वी उत्तर प्रदेश के फूलपुर में मैं एक चाय की दुकान पर बैठा हूँ और 22 साल के अजय यादव से बात कर रहा हूँ। अजय यादव कॉमर्स ग्रेजुएट हैं, पिछले एक साल से वह नौकरी की तलाश में हैं और हर बार उन्हें निराशा ही हाथ लगी है। वह मानते हैं कि मोदी सरकार ने नौकरी देने का जो वायदा किया था, वह पूरा नहीं हुआ। जब मैं अजय से पूछता हूँ कि वह किसको वोट देंगे, तो वह मुझसे कहते हैं कि मोदी जी के अलावा और क्या विकल्प है। जब मैं अजय से पूछता हूँ कि मोदी जी को क्यों वोट दोगे, तो वह जवाब देते हैं सर, उन्होंने ही तो पाकिस्तान को सबक सिखाया है। जब मैं उससे जोर देकर पूछता हूँ कि पाकिस्तान को सबक सिखाने से उसे नौकरी कैसे मिलेगी, तो वह कहता है, ‘वह सब तो ठीक है सर, पर पहले देश के बारे में सोचना है।’

अजय ने यह माना कि वह ‘हम देशभक्त’ नाम के वाट्सएप ग्रुप से जुड़ा हुआ है, जहाँ से उसे सारी ख़बरें मिलती हैं, जहाँ से उसे पता चला कि बालाकोट में 500 आतंकवादियों को मार गिराया गया। ग्रुप में आए मैसेजेज को देखने पर मुसलिम विरोधी पूर्वाग्रह स्पष्ट दिखाई पड़ा।

आइए, अब आपको विनोद मंडल से मिलवाते हैं जो दिल्ली की गीता कालोनी की झुग्गी में रहते हैं और ऑटो चलाते हैं। 2015 के विधानसभा चुनाव में विनोद ने आम आदमी पार्टी को वोट दिया था और वह स्वीकार करता है कि उसका बिजली का बिल कम हो गया है हालाँकि वह यह भी शिकायत करता है कि पीने का साफ़ पानी नहीं मिल रहा है। जब मैंने विनोद से पूछा कि तुम किसको वोट दोगे, तो उसने कहा, ‘मोदी, सर बहुत दम है उनमें।’ फिर उसने मुझे अपने मोबाइल फ़ोन पर एक वीडियो दिखाया, इस वीडियो में मोदी बाहुबली की तरह कपड़े पहने हुए हैं और नीचे लिखा है ‘मोदी है तो मुमकिन है।’ मैं उससे राहुल गाँधी के बारे में और कांग्रेस और उनकी न्याय स्कीम के बारे में पूछता हूँ, तो वह मेरी तरफ़ देखता है और कहता है, ‘कांग्रेस को 70 साल में बहुत मौक़ा दिया है सर, मोदी को 5 साल और ट्राई करते हैं सर।’

70 करोड़ से ज़्यादा मतदाताओं में अजय और विनोद सिर्फ़ दो आवाज़ें हैं। इस छोटे सैंपल साइज के आधार पर भारत जैसे विशाल और विविधता वाले देश में किसी भी निष्कर्ष पर पहुँचना ग़लत होगा और ख़तरनाक भी। लेकिन पिछले 8 हफ़्तों से देश भर में दौरा करने के बाद मैं यह कह सकता हूँ कि एक शातिर राजनीतिक मशीन ने एक देश-एक नेता की कहानी पूरे देश में बुन दी है। जिसने मिथ और सच्चाई के बीच की रेखा को धूमिल कर दिया है। साथ ही, सांप्रदायिक जुमले और उज्ज्वला और आयुष्मान भारत जैसी कल्याणकारी योजनाएँ साथ-साथ चल रही हैं। इसके साथ ही रोजमर्रा की जिंदगी की तकलीफ़ें और नया भारत और मजबूत नेता का सपना साथ-साथ सांस ले रहा है। 

हालाँकि इस आधार पर, यह नहीं कहा जा सकता कि 2019 में बीजेपी साधारण बहुमत ला पाएगी। पार्टी अभी भी कर्नाटक को छोड़कर दक्षिण में कमजोर है। उत्तर प्रदेश में गठबंधन स्थिर है। स्थानीय सांसदों के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा है और बंगाल और उड़ीसा में हवा बनाने के बावजूद ममता बनर्जी और नवीन पटनायक मज़बूत विरोधी के तौर पर उभरे हैं। लेकिन मोदी द्वारा किए गए अनवरत प्रोपेगेंडा की गूंज ने एक ऐसा माहौल पैदा कर दिया है जहाँ मतदाताओं को यह यक़ीन दिला दिया गया है कि आएगा तो मोदी ही। कभी-कभी अपराजेय होने की धारणा अंत में परिणाम को भी प्रभावित कर देती है। यानी अगर लोगों को यक़ीन हो जाए कि यही आदमी जीतेगा तो फिर वह उसी के वशीभूत होकर वोट करते हैं।

पिछले एक महीने में एक दर्जन राज्यों में घूमने के बाद सिर्फ़ एक राज्य पंजाब में मैंने यह महसूस किया कि वहाँ मोदी-मोदी का नारा नहीं चल रहा है।

हिंदी भाषी राज्यों की तुलना में सीमा से सटे एक प्रदेश में लोग राष्ट्रीय सुरक्षा और पाकिस्तान के मसले पर कम चिंतित हैं, यह बात काफ़ी अहम है। अमृतसर के जाने-माने ज्ञानी स्टॉल पर एक व्यवसायी ने मुझसे कहा, ‘दुश्मन की गोलियों के निशाने पर तो हम हैं, इसलिए हम शांति चाहते हैं और व्यवसाय भी न कि युद्ध और बम।’

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