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‘आप’ के वजूद को बचाने की चुनौती है केजरीवाल के सामने

‘आप’ के वजूद को बचाने की चुनौती है केजरीवाल के सामने

लोकसभा चुनाव में दिल्ली में मिली करारी हार के बाद अरविंद केजरीवाल के सामने सबसे बड़ी चुनौती आम आदमी पार्टी का वजूद बचाकर रखने की है।

अमेठी में स्मृति ईरानी से हारने के बाद लोकसभा चुनावों में जितनी फजीहत कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी की हुई है, उतनी ही फजीहत चुनाव नतीजे आने के बाद दिल्ली में आम आदमी पार्टी की भी हुई है। लोकसभा की सात सीटों में से अगर चार पर किसी पार्टी की जमानत जब्त हो जाए और पाँच सीटों पर पार्टी तीसरे नंबर पर रहे तो फिर उस पार्टी का भविष्य निश्चित रूप से बहुत अच्छा तो नहीं ही कहा जा सकता। ख़ासतौर पर यह देखते हुए कि जब वह पार्टी सिर्फ़ साढ़े चार साल पहले दिल्ली में 54 फ़ीसदी से ज़्यादा वोट लेकर 70 में से 67 सीटें जीतने के दावे पर अब तक इतराती रही हो।

17वीं लोकसभा में अब 'आप' का सिर्फ़ एक सदस्य नज़र आएगा और वह हैं पंजाब के संगरूर से जीते भगवंत मान। हालाँकि मान की अपनी प्रतिष्ठा जैसी भी रही हो लेकिन उन्होंने पार्टी को शून्य तक पहुँचने से तो बचा ही लिया है।

दिल्ली के सीएम और पार्टी के सर्वेसर्वा अरविंद केजरीवाल को इसी शून्य का डर तो सता रहा था, तभी वह दिल्ली में कांग्रेस के साथ गठबंधन के लिए बार-बार मिन्नतें कर रहे थे। केजरीवाल तब खुलेआम कह रहे थे कि अगर गठबंधन नहीं हुआ तो सातों सीटों पर बीजेपी जीत जाएगी। गठबंधन नहीं हुआ और सातों सीटों पर बीजेपी ही जीत गई। अब जो आंकड़े सामने आ रहे हैं, उन्हें देखकर तो यही कहा जा सकता है कि अगर गठबंधन हो जाता तो भी बीजेपी ही जीतती। इसकी वजह यह है कि दिल्ली में बीजेपी ने सात सीटों पर जीत हासिल करते हुए 56.5 फ़ीसदी वोट शेयर हासिल किया है। कांग्रेस 22.5 फ़ीसदी शेयर लेकर दूसरे नंबर पर आ गई है। तीसरे नंबर पर आम आदमी पार्टी है जिसका वोट शेयर इस बार गिरकर 18.11 फ़ीसदी ही रह गया है।

कहने का मतलब यह है कि अगर गठबंधन हो भी जाता तो भी जीत बीजेपी की ही होती। 2014 में सिर्फ़ पश्चिमी दिल्ली सीट पर बीजेपी उम्मीदवार ने कांग्रेस और 'आप' के उम्मीदवार को कुल मिलाकर मिले वोटों से ज़्यादा वोट हासिल किए थे। तब बाक़ी छह सीटों पर अगर कांग्रेस और 'आप' के वोट जोड़ लिए जाते तो बीजेपी हार जाती। लेकिन इस बार तो सातों सीटों पर दोनों के वोट मिलाकर भी वे बीजेपी को नहीं हरा पाते।अगर सिर्फ़ वोट शेयर की ही बात करें तो आम आदमी पार्टी 2013 के विधानसभा चुनावों में पहली बार उतरी थी और उसने धमाका करते हुए पहले ही शॉट में 29.5 फ़ीसदी वोट अपने स्कोरबुक में जोड़ लिए थे। इसके बाद 2014 के लोकसभा चुनाव हुए तो भले ही आम आदमी पार्टी के सारे उम्मीदवार दूसरे नंबर पर रहे हों लेकिन उसका वोट शेयर बढ़कर 32.9 फ़ीसदी हो गया था।

इसके बाद आया 2015 का विधानसभा चुनाव जब आम आदमी पार्टी ने 54 फ़ीसदी से ज़्यादा वोट हासिल करके बीजेपी को सिर्फ़ तीन सीटों पर समेट दिया और कांग्रेस का तो सूपड़ा ही साफ़ कर दिया। बीजेपी को तब क़रीब 32 फ़ीसदी और कांग्रेस को 9 फ़ीसदी वोट मिले थे।

अब अगर विधानसभा चुनाव के प्रदर्शन से 2019 के लोकसभा चुनावों के नतीजों की तुलना की जाए तो फिर लगता है कि 'आप' पतन की तरफ है। यह सब इसलिए भी नज़र आता है कि 'आप' का वोट बैंक उसके बाद से लगातार गिरावट पर है। 2017 के नगर निगम चुनावों में 'आप' गिरकर 26 फ़ीसदी पर आ गई थी जबकि कांग्रेस ने 21 फ़ीसदी वोट हासिल किए थे।

अब लोकसभा चुनावों में मोदी की सुनामी के बावजूद दिल्ली में कांग्रेस का वोट प्रतिशत बहुत ज़्यादा नहीं गिरा। कांग्रेस अब भी 22.5 फ़ीसदी पर है जोकि नगर निगम के मुकाबले सिर्फ़ डेढ़ फ़ीसदी ही कम है। दूसरी तरफ 'आप' का वोट प्रतिशत और कम होकर 18.11 फ़ीसदी हो गया है।

दिल्ली की सात लोकसभा सीटों के वोटों की ग़िनती विधानसभा सीटों के हिसाब से करें तो पता चलेगा कि 'आप' का उसी तरह सूपड़ा साफ़ हो रहा है जैसे 2015 में कांग्रेस का हुआ था। विधानसभा की 70 सीटों में हुई ग़िनती के हिसाब से 'आप' को एक भी सीट पर लीड नहीं मिली।

यहाँ तक कि सीएम अरविंद केजरीवाल, डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया और 'आप' के बाक़ी पाँचों मंत्रियों के इलाक़ों में भी आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों की हार हुई है। इस बार वह पाँच सीटों पर तीसरे नंबर पर लुढ़क गई है। सिर्फ़ उत्तर-पश्चिम दिल्ली से पार्टी के उम्मीदवार गुग्गन सिंह और दक्षिण दिल्ली से राघव चड्ढा दूसरे नंबर पर आए हैं।

इन दोनों उम्मीदवारों के अलावा पश्चिमी दिल्ली के बलबीर सिंह जाखड़ की जमानत बच सकी है। इसके अलावा 'आप' के चार उम्मीदवारों पूर्वी दिल्ली से आतिशी, उत्तर-पूर्वी दिल्ली से दिलीप पांडे, नई दिल्ली से बृजेश गोयल और चांदनी चौक से पंकज गुप्ता की जमानत ही जब्त हो गई है।

एक और ख़ास बात यह है कि दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों में से सिर्फ़ पाँच सीटों पर कांग्रेस को लीड मिली है। यह इत्तेफ़ाक नहीं बल्कि सच्चाई है कि ये पाँचों ही सीटें मुसलिम बहुल आबादी वाली हैं। इनमें से एक पूर्वी दिल्ली लोकसभा क्षेत्र की ओखला सीट है।

ओखला सीट से पार्टी के उम्मीदवार अरविंदर सिंह लवली को लीड मिली है। इसके अलावा उत्तर-पूर्वी दिल्ली की एक सीट सीलमपुर पर भी कांग्रेस की उम्मीदवार शीला दीक्षित ने लीड बनाई। चाँदनी चौक संसदीय इलाक़े की तीन सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवार जयप्रकाश अग्रवाल को लीड मिली। ये इलाके हैं चांदनी चौक, मटिया महल और बल्लीमारान। 

इस तरह अगर आज चुनाव हो जाएँ और दिल्ली की जनता लोकसभा सीटों की तरह ही वोट करे तो फिर 65 सीटों पर बीजेपी जीतेगी और पाँच सीटों पर कांग्रेस। आम आदमी पार्टी को एक भी सीट मिलती नजर नहीं आती।

सात महीने बाद विधानसभा के चुनाव होने हैं। इस लिहाज से यह आंकड़ा काफ़ी दिलचस्प और महत्वपूर्ण है। अरविंद केजरीवाल को दरअसल यह पहले से पता था कि दिल्ली में लोकसभा चुनावों में हार होने वाली है। इसीलिए वह कांग्रेस को अपने जाल में उलझा रहे थे। उन्हें लग रहा था कि कांग्रेस इस जाल में उलझकर बेवकूफ बन जाएगी और गठबंधन कर बैठेगी। गठबंधन होने से भले ही नतीजों पर फर्क नहीं पड़ता लेकिन केजरीवाल कई बातें साबित करने में सफल हो जाते। सबसे पहली बात तो यही साबित होती कि दिल्ली में कांग्रेस इतनी कमजोर है कि वह 'आप' के सहारे के बिना नहीं चल सकती। कांग्रेस को कमजोर साबित करके वह विधानसभा चुनावों भी खड़े होने लायक भी नहीं रहने देते।

इसके अलावा 'आप' को हरियाणा, पंजाब, चंडीगढ़ और गोवा में मजबूती मिल जाती जबकि अब साबित हो गया है कि पंजाब की एक सीट के अलावा उसका कहीं कोई वजूद ही नहीं है। चूंकि सभी स्थानों पर कांग्रेस और 'आप' का वोट बैंक एक ही है तो गठबंधन की आड़ में 'आप' कांग्रेस के वोट बैंक को चट कर जाती। कांग्रेस ने समझौता नहीं किया और जाल में उलझने से बच गई। यही वजह है कि वह अब 'आप' से ज़्यादा मजबूत नजर आ रही है।

'आप' अब हार का बहाना ढूँढ रही है। पार्टी कह रही है कि दिल्ली की जनता ने उसे सातों सीटों पर इसलिए हरा दिया क्योंकि लोकसभा चुनावों में सारी लड़ाई पीएम नरेंद्र मोदी और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी के बीच सीमित हो गई थी।

पार्टी यह मानने के लिए तैयार क्यों नहीं है कि उसके पूर्ण राज्य के मुद्दे को जनता ने पूरी तरह नकार दिया है। हालाँकि 2014 में भी बीजेपी दिल्ली की सातों सीटों पर जीती थी और उसके बाद विधानसभा में 'आप' की ऐतिहासिक जीत हुई थी लेकिन अब हालात बदल गए हैं। अब सवाल केजरीवाल की विश्वसनीयता का भी है। चुनाव प्रचार के दौरान 'आप' के दो विधायक बीजेपी में शामिल हो गए और कई अभी लाइन में लगे हुए हैं।

इन नतीजों के बाद अब केजरीवाल को एकाएक वर्करों के साथ संवाद की बात सूझी है और जल्दी से सारे वादों को पूरा करने का दम भी भरा जा रहा है लेकिन 'आप' जनता में अपनी विश्वसनीयता और केजरीवाल की विश्वसनीयता कैसे कायम कर पाएगी, इसका उसे ख़ुद पता नहीं है।

पार्टी के विधायकों को केजरीवाल अगर खुलेआम बेवकूफ, गधा या टुच्चा कहते हैं या फिर लोकसभा चुनावों के लिए उम्मीदवारों से की गई पैसे की माँग के आरोप झूठे हैं तो अब तक उनका खंडन क्यों नहीं आया। केजरीवाल के सारे मजबूत सहयोगी उनका साथ छोड़कर जा चुके हैं। उनकी पार्टी का ग्राफ़ तेज़ी से गिर रहा है। ऐसे में यह बाट जोहना कि 2015 का इतिहास दोहराया जाएगा, सच्चाई से आंखें मूंदने के बराबर है। अब देखना यही है कि 'आप' कैसे इस भंवर से बाहर निकल पाती है क्योंकि पार्टी के नेता ख़ुद मानते हैं कि उनके कई विधायक बीजेपी के संपर्क में हैं। बीजेपी भी 14 विधायकों के संपर्क में होने की बात करती है। इस हार के बाद केजरीवाल के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपनी पार्टी को बचाकर रखने की है। पार्टी के पूर्व नेता और मशहूर कवि कुमार विश्वास का कहना है कि विधानसभा चुनावों से पहले पार्टी का पतन हो जाएगा।

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