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क्या लोकसभा चुनाव समय से पहले हो सकते हैं ? 

क्या लोकसभा चुनाव समय से पहले हो सकते हैं ? 

क्या लोकसभा चुनाव इस साल नवंबर-दिसंबर में चार राज्यों के होने वाले विधानसभा चुनावों के साथ कराये जा सकते हैं ? क्या मोदी सरकार के नौ साल की उपलब्धियों के प्रचार पर जोर इसका संकेत हैं ? कम से कम वरिष्ठ पत्रकार विनोद अग्निहोत्री कुछ ऐसा ही सोच रहे हैं।  

वैसे तो भाजपा नेता अक्सर कहते हैं कि उनका दल किसी भी वक्त चुनाव के लिए तैयार रहता है, लेकिन इन दिनों जिस तरह भारतीय जनता पार्टी में जिस तरह शीर्ष स्तर पर बैठकों का दौर चल रहा है,मंत्रियों और सांसदों को जिले जिले भेजकर मोदी सरकार के नौ साल की उपलब्धियों का प्रचार किया जा रहा हैऔर प्रचार का सारा जोर मोदी सरकार के नौ साल के नारे पर है,उससे संकेत हैं कि भाजपा किसी भी समय (समय से पूर्व या समय पर) लोकसभा चुनावों का सामना करने के लिए खुद को तैयार कर रही है, जबकि विपक्ष अभी एकजुटता की रट से आगे नहीं बढ़ सका है।

मई के आखिरी सप्ताह में मोदी सरकार के नौ साल पूरे होने के उपलक्ष्य में भाजपा ने मीडिया के साथ जो संवाद किया उसमें भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने सरकार के नौ साल के कामकाज पर सारा जोर दिया और महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने जो प्रस्तुतिकरण (पीपीटी) दिखाया उसमें विस्तार से मोदी सरकार के नौ सालों की उपलब्धियों की तुलना यूपीए सरकार के दस साल के कामकाज से करते हुए बताया गया कि कैसे मोदी सरकार ने नौ सालों में कितना बेहतर काम किया है।भाजपा ने अपने प्रचार के लिए जो नया नारा गढ़ा है वो है `सेवा सुशासन और गरीब कल्याण।`

अटल बिहारी वाजपेयी के जमाने की भाजपा के एक दिग्गज नेता का कहना है कि हालाँकि अभी चुनावों में करीब एक साल है और आम तौर पर चुनाव से दो तीन महीने पहले पार्टी अपने पूरे कार्यकाल की उपलब्धियों का ब्यौरा देती है लेकिन इस बार जिस तरह दस साल पूरे होने से पहले ही नौ सालों के कामकाज और उपलब्धियों को पेश किया जा रहा है कि मानों इसी साल लोकसभा के चुनाव होने हैं, इससे साफ है कि सरकार और पार्टी के शीर्ष स्तर पर लोकसभा चुनावों को लेकर गंभीर मंथन हो रहा है।

इस मुद्दे पर सरकार और पार्टी के कुछ उच्च स्तरीय सूत्रों का कहना है जिस तरह 2022 के आखिर में हुए गुजरात, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली नगर निगम के चुनावों में दो जगह हिमाचल प्रदेश और दिल्ली नगर निगम में भाजपा की हार हुई उससे पार्टी शिखर स्तर पर असहज हुई लेकिन 2023 की शुरुआत में पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में भी भले ही कांग्रेस की करारी हार हुई लेकिन भाजपा को जैसी उम्मीद थी वैसे नतीजे नहीं आए। त्रिपुरा में उसकी सरकार जरूर बनी लेकिन सीटें कम हुईं और स्थिरता के लिए उसे गठबंधन करना पड़ा। मेघालय में कोर्नाड संगमा की जिस पार्टी से गठबंधन तोड़कर भाजपा राज्य की सभी सीटों पर अकेली चुनाव लड़ी वहां उसकी सीटें और मत प्रतिशत दोनों कम हुए। सिर्फ नगालैंड में जरूर भाजपा अपनी सहयोगी एनडीपीपी के सहारे कुछ बेहतर प्रदर्शन कर सकी।

हालांकि पूर्वोत्तर के नतीजों को भाजपा ने अपनी प्रचार और मीडिया रणनीति से एक बड़ी विजय के रूप में प्रचारित करके अपने पक्ष में जो माहौल बनाया था, मई में हुए कर्नाटक चुनावों में कांग्रेस के हाथों मिली करारी हार ने उसे बिगाड़ दिया। इसके बाद सरकार और पार्टी के उच्च स्तर पर देश के सियासी मूड और माहौल का आकलन शुरु हो गया।

उधर भारत जोड़ो पदयात्रा के बाद राहुल गांधी की छवि में लगातार सुधार और विपक्ष की राजनीति में कांग्रेस के मजबूत होने और सरकार के खिलाफ लगातार बढ़ती विपक्षी दलों की गोलबंदी ने भाजपा में शीर्ष स्तर पर माथे पर बल ला दिए हैं।राहुल गांधी की अमेरिका यात्रा में उन्हें जिस तरह भारतीय समुदाय और स्थानीय मीडिया ने गंभीरता से लिया और सुना उससे भी भाजपा असहज है।दक्षिण से उत्तर की भारत जोड़ो पद यात्रा की कामयाबी के बाद से ही सितंबर में पश्चिम से पूरब तक की दूसरी भारत जोड़ो यात्रा की चलने वाली चर्चा भी कर्नाटक के नतीजों के बाद भाजपा के रणनीतिकारों को सोचने पर मजबूर कर रही है।

इन सूत्रों के मुताबिक मौसम विशेषज्ञों के मुताबिक अगले साल मार्च के बाद जरूरत से ज्यादा गरमी पड़ने की संभावना है और अगर ऐसा हुआ तो लोकसभा चुनावों में मतदान कम होने की आशंका को भी भाजपा अपने मुफीद नहीं मानती है। हालांकि अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर कुछ अच्छी खबरें सरकार को सुकून भी दे रही हैं। दो हजार रूपए की नोटबंदी ने आर्थिक मोर्चे पर कोई संकट नहीं पैदा किया और मोजूदा तिमाही की विकास दर भी अनुमान से ज्यादा रही है। खुदरा महंगाई में भी मामूली सी कमी हुई है। लेकिन दूसरी तरफ मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ से मिलने  वाले फीडबैक ने पार्टी को सांसत में डाल दिया है।

राजस्थान में अगर कांग्रेस के लिए अशोक गहलौत बनाम सचिन पायलट का झगड़ा सिरदर्द है तो भाजपा में भी वसुंधरा राजे को साधना भी चुनौती है।


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हाल ही में हुई राजस्थान यात्रा में वसुंधरा को भी मंच पर ससम्मान बिठाया गया लेकिन ग्वालियर राजपरिवार की बेटी महज इससे संतुष्ट नहीं हैं, उन्हें राजस्थान भाजपा की पूरी कमान चाहिए और वह भी चुनाव जीतने के बाद मुख्यमंत्री बनाए जाने की घोषणा के साथ।उधर गहलौत सरकार की अनेक लोकलुभावन योजनाओं और घोषणाओं ने सचिन की बगावत के बावजूद कांग्रेस को मुकाबले में ला दिया है।यह भी भाजपा की चिंता का सबब है। हाल ही में उड़ीसा के बालासोर में हुई भीषण रेल दुर्घटना ने रेलवे में सुधार के सरकारी दावों पर भी सवाल खड़ा कर दिया है । उधर कर्नाटक में बजरंग दल पर पाबंदी की कांग्रेसी घोषणा को बजरंग बली के सम्मान से जोड़ने की पूरी कवायद और प्रधानमंत्री मोदी के तूफानी प्रचार के बावजूद भाजपा की करारी शिकस्त ने हिंदुत्व के ध्रुवीकरण और मोदी मैजिक के हर समय संकट मोचक होने पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया है।

बिहार, प.बंगाल और महाराष्ट्र में पिछले लोकसभा चुनावों के प्रदर्शन को न दोहरा पाने की आशंका से परेशान भाजपा की दक्षिण भारत को लेकर जो उम्मीद थी कर्नाटक के नतीजों ने उस पर भी ग्रहण लगा दिया है। जिस तरह दिल्ली में यौन शोषण के मुद्दे पर महिला पहलवानों के आंदोलन को हरियाणा पंजाब राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की खाप पंचायतों और किसान संगठनों का समर्थन मिलने से सरकार की छवि पर भी असर पड़ रहा है जो आगे चलकर किसान आंदोलन जैसी शक्ल भी ले सकता है। सरकार को इस तरह की जानकारी भी मिल रही है कि महंगाई, बेरोजगारी, ओपीएस, अग्निवीर, महिला सुरक्षा जैसे मुद्दों और जातीय जनगणना को लेकर विपक्ष जिस तरह सरकार पर अपना दबाव बढ़ा रहा है और अगर यह इसी तरह चलता रहा तो अगले साल मार्च अप्रैल तक सरकार के खिलाफ जनता का रुझान (एंटी इन्कंबेंसी) खासा बढ़ सकता है, जिसके नुकसान की भरपाई मुश्किल हो सकती है।

तर्क दिया जा रहा है कि विपक्ष अपनी तैयारी अगले साल मार्च अप्रैल के हिसाब से कर रहा है और अचानक चुनावों की घोषणा उसे संभलने का मौका नहीं देगी। राहुल गांधी अगर पश्चिम से पूरब की यात्रा पर निकलते हैं तो जल्दी चुनाव होने पर उन्हें अपनी यात्रा रोकनी पड़ेगी।साथ ही अगर विधानसभा चुनावों में भाजपा को अनुकूल नतीजे नहीं मिले तो पार्टी कार्यकर्ताओं और समर्थकों का मनोबल कमजोर हो जाएगा जिसका असर लोकसभा चुनावों पर भी पड़ेगा। लेकिन अगर दोनों चुनाव साथ हो जाते हैं तो नरेंद्र मोदी की निजी लोकप्रियता का लाभ राज्यों के चुनावों में भी मिलेगा और भाजपा के लिए विधानसभा चुनावों और लोकसभा चुनावों दोनों जीतने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी। क्योंकि मोदी की छवि राज्यों में भाजपा के खिलाफ बने विरोधी माहौल और कमजोर स्थिति पर भारी पड़ जाएगी और जब मतदाता वोट डालने जाएंगे तब वो मोदी के चेहरे पर ही वोट डालेंगे और दोनों ही जगह इसका फायदा भाजपा को मिल सकता है।

लोकसभा चुनाव जल्दी कराने के पक्ष में सबसे मजबूत तर्क यह भी है कि इसी साल सितंबर में नई दिल्ली में जी-20 देशों का शिखर सम्मेलन होगा जिसमें अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन, रूसी राष्ट्रपति पुतिन, चीनी राष्ट्रपति शी जिन पिंग समेत सभी वैश्विक नेता आएंगे।प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी न सिर्फ इनकी मेजबानी करेंगे बल्कि उनकी अपनी वैश्विक छवि भी बढ़कर विराट हो जाएगी।सरकार और भाजपा प्रधानमंत्री मोदी और भारत को विश्व गुरु के रूप में जनता के बीच प्रस्तुत करेगी और जी-20 की कामयाबी के प्रचार से आच्छादित माहौल में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराकर इसका पूरा लाभ इसी तरह लिया जा सकेगा जैसा 2009 में अमेरिका के साथ परमाणु समझौते के बाद मनमोहन सिंह की सिंह इज़ किंग की छवि का लाभ कांग्रेस को मिला था।

समय से पहले लोकसभा चुनाव कराने के विरोध में भी कुछ तर्क हैं। पहला यह कि भाजपा इसका खामियाजा 2004 में अटल बिहारी वाजपेई की सरकार गंवा कर भुगत चुकी है।यह तर्क देने वालों का कहना है कि जी-20 के प्रचार प्रसार का असर सिर्फ शहरी मतदाताओं तक सीमित रहेगा और दूर दराज ग्रामीण इलाकों में इसका कोई असर नहीं होगा और यह प्रयोग इंडिया शाईनिंग जैसा उल्टा भी पड़ सकता है।दूसरा तर्क यह भी है कि अभी सरकार के पास कम से कम दस महीने का वक्त है जिसमें न सिर्फ भाजपा संगठन के कील कांटे दुरुस्त किए जा सकते हैं बल्कि सरकार उन तमाम कारणों को भी कम कर सकती है जिनकी वजह से लोगों में सरकार के प्रति असंतोष पनपने की आशंका है। पहलवानों का मुद्दा सुलझाया जा सकता है।

इस तिमाही के जीडीपी के आंकड़े, खुदरा महंगाई में कमी के संकेत और जीएसटी की वसूली में आशातीत बढ़ोत्तरी से आर्थिक मुद्दों पर काबू पाया जा सकता है।फिर करीब 84 करोड़ लोगों को मिलने वाले मुफ्त राशन के साथ उनके लिए कुछ और लोकलुभावन कार्यक्रम शुरु करके सरकार के पक्ष में माहौल बनाया जा सकेगा।

अगले साल अप्रैल मई में लोकसभा चुनाव कराने के पक्ष में सबसे मजबूत तर्क है जनवरी 2024 में अयोध्या में श्री राम मंदिर के उद्घाटन का भव्य आयोजन जिसके जरिए एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राम भक्त छवि देश के सामने उभर कर आएगी और भाजपा का हिंदुत्व कार्ड हिंदुओं को पार्टी के पक्ष में गोलबंद कर सकेगा।

इस सबके बीच सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस नेतृत्व वाले विपक्ष ने लोकसभा चुनावों के लिए अपने केंद्रीय मुद्दे तय करने शुरु कर दिए हैं।दोनों तरफ की सियासी पैंतरेबाजी से साफ होने लगा है कि अगला लोकसभा चुनाव अमीर बनाम गरीब, हिंदुत्व बनाम सामाजिक न्याय और मोदी बनाम मुद्दे के बीच ही होगा।इसमें सत्ता पक्ष सितंबर में दिल्ली में होने वाले जी-20 शिखर सम्मेलन की चमक और जनवरी में होने वाले अयोध्या में श्रीराम मंदिर के उद्घाटन से बनने वाले हिंदुत्व के ज्वार पर सवारी करके मैदान में उतरेगा,वहीं विपक्ष कुछ बड़े पूंजीपतियों की बेतहाशा बढ़ी अमीरी के मुकाबले गरीबी रेखा के नीचे की आबादी में बढ़ोत्तरी और जातीय जनगणना के जरिए सामाजिक न्याय के घोड़े पर सवार होकर भाजपा का मुकाबला करेगा।शायद इसे भांप कर ही भाजपा ने अपना नया नारा गढ़ा है `सेवा सुशासन और गरीब कल्याण।`

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