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क्या भारत सरकार अपने नागरिकों की प्यास बुझाने को तैयार है?

क्या भारत सरकार अपने नागरिकों की प्यास बुझाने को तैयार है?

पूरी दुनिया में जल संकट बढ़ रहा है। खासकर भारत जैसे देश जो कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था के दायरे में आते हैं, यहां यह संकट तो और भी गंभीर है। लेकिन जिस देश में रात-दिन मुद्दा हिन्दू-मुसलमान हो, उस देश में 60-70 फीसदी लोगों की पानी की जरूरत को पूरा करने पर बात क्यों होगी। स्तंभकार वंदिता मिश्रा ने भारत की जनता की इस प्यास को जानने की कोशिश की है कि वो कितनी बड़ी है। ऐसी प्यास जो किसी 'कोला' के पीने से नहीं बुझेगी। पढ़िए और महसूस कीजिए इस प्यास कोः

निर्देशक जॉर्ज मिलर की 2015 में आई ऑस्ट्रेलियन पोस्ट-अपॉकलिप्टिक फिल्म ‘मैड मैक्स: फ्युरी रोड’ वैसे तो एक कॉमिक बुक पर आधारित फिल्म है लेकिन अपनी विषयवस्तु के कारण यह हमारे दौर की बेहद प्रासंगिक फिल्म है। पानी और ईंधन से जूझ रहे एक समाज और उसमें पनपते अपराधों को समेटती यह फिल्म हर व्यक्ति द्वारा देखी जानी चाहिए जिससे पानी को न सिर्फ एक कीमती संसाधन के रूप में अच्छे से समझा जा सके बल्कि यदि जरूरत पड़े तो इसे कीमती गहनों की तरह सहेजने और बचाने के विचार के रूप में भी आगे बढ़ाया जा सके।

हो सकता है कि रसायनशास्त्र के लिए जल बस एक केमिकल फार्मूला हो लेकिन प्यास से तड़प रहे समाज के लिए यह एक ऐसी कीमती करेंसी है जिसका मोल कोई लगा नहीं सकता। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) के अनुसार, दुनिया की लगभग 400 करोड़ आबादी हर साल कम से कम एक महीने के लिए पानी की कमी से जूझ रही है। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन(FAO) के अनुसार 2025 तक दुनिया की लगभग 180 करोड़ आबादी ‘पूर्ण जल-संकट’ का सामना कर रही होगी। यह सच में बहुत डराने वाली बात है!

भारत में दुनिया की 18% जनसंख्या निवास करती है लेकिन यहाँ उपलब्ध जल वैश्विक जल संसाधन का मात्र 4% ही है। प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के कारण पानी की स्थिति बदतर होती जा रही है। केंद्रीय जल आयोग (CWC) देश के 150 जलाशयों की नियमित मॉनिटरिंग करता है। CWC की हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार, राष्ट्रीय स्तर पर इन जलाशयों का वर्तमान जल संग्रहण, इनकी कुल क्षमता का मात्र 27% है जबकि पिछले साल इसी समय यही जल संग्रहण क्षमता लगभग 36% थी। पिछले एक दशक के दौरान इन जलाशयों में औसत जल उपलब्धता लगभग 32% रही है।

रिपोर्ट पढ़ने के बाद यह एहसास हुआ कि दक्षिण भारत में तो हालात लगातार गंभीर होते जा रहे हैं। CWC के विश्लेषण से पता चलता है कि भंडारण स्तर में सप्ताह-दर-सप्ताह कमी हो रही है। दक्षिणी क्षेत्र के जलाशयों में वर्तमान जल संग्रहण क्षमता, कुल भंडारण क्षमता का केवल 15% ही रह गया है जोकि पिछले दो सप्ताहों में क्रमशः 17% और 16% था। हर सप्ताह लगातार घटता जा रहा यह जल स्तर हम सभी के लिए एक बेहद गंभीर स्थिति है, इसकी ओर तत्काल ध्यान दिए जाने की जरूरत है। दक्षिणी क्षेत्र, जिसमें आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु शामिल हैं, की कुल भंडारण क्षमता 53.334 बीसीएम है। 9 मई के जलाशय भंडारण बुलेटिन के अनुसार, इन जलाशयों में उपलब्ध लाइव स्टोरेज 7.921 बीसीएम है, जो उनकी कुल क्षमता का केवल 15 प्रतिशत है।

वर्ष 2015 में, भारत समेत संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्यों ने ‘एजेंडा सतत विकास लक्ष्य 2030’ को सर्वसम्मति से स्वीकार किया। इसके तहत 17 सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) को तैयार किया गया। इन्ही में से एक सतत विकास लक्ष्य-6 है जिसका उद्देश्य 2030 तक "सभी के लिए पानी और स्वच्छता की उपलब्धता और स्थायी प्रबंधन सुनिश्चित करना" है। कोशिश तो यह थी कि जल्द से जल्द इसे सकारात्मक तरीके से आगे बढ़ाया जाए। लेकिन.. 

यथार्थ यह है कि इस समय पूरी दुनिया में प्रत्येक तीन में से एक व्यक्ति स्वच्छता के बिना ही रहता है।


पिछले महीने ही ज़ाम्बिया ने पानी की वजह से राष्ट्रीय आपदा की घोषणा की थी, मेक्सिको सिटी ऐतिहासिक जल संकट से गुजर रहा था और स्पेन ने तो सूखे की वजह से ‘इमरजेन्सी’ तक की घोषणा कर दी थी। पानी को लेकर पूरी दुनिया का राजनैतिक नेतृत्व बिल्कुल असफल साबित हुआ है और यही हाल भारतीय नेतृत्व का भी है।  

जो भारतीय नेतृत्व 2047 तक ‘विकसित भारत’ का सपना दिखा रहा है वह यह नहीं बता रहा है कि- चुनावों में जल संकट की जगह मुसलमान और पाकिस्तान मुद्दा क्यों हैं?


आखिर क्यों 2024 तक हर घर जल का वादा करने के बावजूद 3.5 करोड़ भारतीयों को साफ-सुरक्षित जल तक नहीं मिल पा रहा है? वर्षों पहले, महात्मा गाँधी के नाम पर ‘स्वच्छ भारत’ का सपना दिखाने वाला नेतृत्व आज 10 साल बाद भी क्यों लगभग 70 करोड़ लोगों के पास सुरक्षित शौच की व्यवस्था नहीं कर पाया? जबकि पीएम मोदी के नेतृत्व वाला नीति आयोग अपने समग्र जल प्रबंधन सूचकांक (Composite Water Management Index)  के माध्यम से आगाह कर चुका है कि देश के 60 करोड़ से अधिक लोग जल की गंभीर कमी का सामना कर रहे हैं। यह आकलन भी किया गया है कि वर्ष 2030 तक देश की जल-मांग, उपलब्ध-आपूर्ति की तुलना में दोगुनी हो जाएगी। मैं बस सोच रही हूँ कि इस समस्या से सामना करने के लिए क्या सरकार के पास कोई योजना है? अगर है तो वो चुनावों की रैलियों में सामने क्यों नहीं आती? 

आखिर 60 करोड़ लोगों की प्यास रैलियों में भाषण का मुद्दा क्यों नहीं है?


देश की आज़ादी, पंडित नेहरू और काँग्रेस को लेकर ‘आसक्त’ हो चुके पीएम मोदी इस आँकड़े पर ध्यान क्यों नहीं देते कि आज़ादी के बाद के 75 वर्षों में प्रति व्यक्ति वार्षिक जल उपलब्धता 75% कम हो गई है। 1947 में प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता 6,042 घन मीटर से 2021 में 1,486 घन मीटर रह गई है। केंद्रीय भूजल बोर्ड के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, भारत के 700 जिलों में से 256 जिलों में भूजल स्तर "गंभीर" या "अति-शोषित" बताया गया है। क्या यह गंभीर विषय नहीं है? देश की सत्ता जिसके हाथ में है उसे ही तो इन सब समस्याओं से सामना करने लिए नीतियाँ बनानी होंगी? या फिर बार-बार पीछे जाकर ‘कोसो-नीति’ से काम चलाया जाएगा? कोसो नीति से उनकी पार्टी का भला हो सकता है देश का भला नहीं होने वाला। 

वैसे तो सूचकांकों को सिरे से नकार देने के मामले में वर्तमान मोदी सरकार का पूरी दुनिया में कोई मुकाबला नहीं है लेकिन फिर भी सरकार के समक्ष यह आंकड़ा पेश करना जरूरी है। पूरी दुनिया में पानी की कमी मापने के लिए ‘फाल्कनमार्क सूचकांक’ का इस्तेमाल किया जाता है। इसके अनुसार जिस भी आबादी में प्रति व्यक्ति (नवीकरणीय)जल की उपलब्धता 1700 घन मीटर से कम है वहाँ ‘जल-संकट’ की स्थिति समझी जानी चाहिए। यदि इस सूचकांक की मानें तो भारत में 76% नागरिक, जल संकट का सामना कर रहे हैं। क्या यह एक गंभीर मुद्दा नहीं है? मुझे तो लगता है इससे गंभीर कोई मुद्दा ही नहीं है।

जल शक्ति मंत्रालय के अंतर्गत 2019 में जल जीवन मिशन की स्थापना की गई थी और मोदी सरकार द्वारा इसी के तहत यह घोषणा की गई थी कि 2024 तक प्रत्येक ग्रामीण घर में नल से जल की उपलब्धता सुनिश्चित की जाएगी। इसी मिशन की अध्यक्षता कर रहे IIM बैंगलोर के प्रोफेसर, गोपाल नाइक ने हाल ही में कहा है कि “भारत में तेजी से बढ़ती जा रही पानी की कमी एक वास्तविकता है और आने वाले वर्षों में इसके और बदतर होने की आशंका है..”। इसका अर्थ है कि संकट जितना बड़ा दिख रहा है उससे कहीं ज्यादा बड़ा है।

भारत सरकार द्वारा चलाए जा रहे कुछ कार्यक्रम जैसे-जल शक्ति अभियान, अमृत सरोवर मिशन, और अटलभूजल योजना तो पंजाब सरकार द्वारा चलाया जा रहा, ‘पानी बचाओ, पैसा कमाओ’ जैसे कुछ कार्यक्रम हैंजिन्हे राज्य सरकारें भी चला रही हैं। लेकिन मुद्दा यह है कि क्या ये कार्यक्रमअपने उद्देश्यों में सफल हो रहे हैं? क्या ये कार्यक्रम बढ़ती प्यास और खत्म होतेपानी के बीच राहत देने में सफल हुए हैं? संभवतया नहीं, कम से कम ऊपर दिए गए आँकड़े तो यही बता रहे हैं।    

जबकि प्यास बुझाना सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारी है और नागरिकों को स्वच्छ पीने योग्य पानी मिलना उनका मूल अधिकार। भारत के संविधान का अनुच्छेद-21 ‘जीवन के अधिकार’ की घोषणा करता है, जिसे किसी भी हालत में रोका या प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता, चाहे स्थितियां किसी युद्ध की ही क्यों न हों। स्वच्छ जल का अधिकार इसी जीवन के अधिकार का हिस्सा है। मोदी सरकार काँग्रेस के दौर की लगभग हर नीति को बदल रही है लेकिन ताज्जुब की बात तो यह है कि ‘राष्ट्रीय जल नीति-2012’ को प्रतिस्थापित करके किसी दूसरी नीति को अभी तक नहीं लाया गया है जबकि जल संकट लगातार गहराता जा रहा है। भारत में लगभग 21% संक्रामक रोग और हर दिन 5 वर्ष से कम आयु के 300 से अधिक बच्चों की मौत का कारण खराब गुणवत्ता वाला पानी ही है (NFHS-5)। दिल्ली, मुंबई, जयपुर, बंगलुरु, लखनऊ, भटिंडा और चेन्नई उन शहरों में शुमार हो चुके हैं जहां निकट भविष्य में भीषण जल संकट का सामना करना पड़ेगा। 

कम आय वाले देशों में लगभग 80% नौकरियाँ पानी पर निर्भर हैं जहाँ कृषि आजीविका का मुख्य स्रोत है।


वैश्विक स्तर पर ताजे पानी का सर्वाधिक उपयोग 72% कृषि द्वारा उपयोग किया जाता है। यदि पानी को संसाधन के रूप में संभाला नहीं गया तो या तो शहर प्यास से जान दे देंगे, भूख से तड़पेंगे या फिर बाढ़ में बह जाएंगे। पानी की कमी राष्ट्र की अवधारणा को भी खा जाएगी, ध्यान रखना चाहिए कि 1970-2000 के बीच वैश्विक प्रवासन में 10% की वृद्धि पानी की कमी से ही हुई थी। आने वाले समय में यह और बढ़ सकती है। प्रवासन और पानी की कमी संघर्ष को जन्म दे सकती है और नाभिकीय युग में इस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि यह संघर्ष, आखिरी संघर्ष बनकर रह जाए। और दुनिया सच में जॉर्ज मिलर की ‘मैड मैक्स: फ्युरी रोड’ की तरह न बन जाए जहां हिंसा, प्रेम, नीति, समाज, सुख, दुख, आशा, निराशा सबकुछ पानी की उपलब्धता और अनुपलब्धता से निर्देशित होते हों। 

संभवतया इसीलिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी की जाने वाली उसकी फ्लैगशिप रिपोर्ट-यूएन वर्ल्ड वाटर डेवलपमेंट रिपोर्ट-2024- की थीम के लिए ‘शांति और समृद्धि के लिए जल’ को चुना गया है। क्योंकि इस अंतर्राष्ट्रीय, अंतरसरकारी मंच को यह आभास हो चुका है कि भविष्य की शांति और समृद्धि जल की उपलब्धता द्वारा ही तय की जाने वाली है। मेरा सवाल है कि क्या भारत सरकार भविष्य के लिए तैयार है? क्या वर्तमान भारत सरकार अपने नागरिकों से प्रेम करती है? क्या वर्तमान भारत सरकार को इस खतरे का अंदाज़ा भी है?  

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