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RSS को बीजेपी की संभावित हार के असर से बचाने की कवायद है नड्डा का बयान

RSS को बीजेपी की संभावित हार के असर से बचाने की कवायद है नड्डा का बयान

भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने अभी हाल ही में अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि भाजपा अब आरएसएस पर निर्भर नहीं है। वो खुद में यह चुनाव जीतने में सक्षम है। इस बयान के बाद देश में भाजपा-संघ रिश्तों पर बहस शुरू हो गई। यह बहस भी हुई कि कैसे मोदी और शाह ने आरएसएस को उसकी जगह बता दी। वरिष्ठ पत्रकार पंकज श्रीवास्तव ने इसका कुछ अलग विश्लेषण किया है। उन्हीं से जानिएः

भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी.नड्डा का यह कहना सामान्य नहीं है कि ‘अब पार्टी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की ज़रूरत नहीं है।’ उनका तर्क है कि बीजेपी अब सक्षम हो गयी है। जब सक्षम नहीं थी तब आरएसएस की ज़रूरत थी। सवाल ये है कि बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष को ऐन लोकसभा चुनाव के बीच को यह सफ़ाई देने की ज़रूरत क्यों पड़ी? कहीं ऐसा तो नहीं कि नड्डा संभावित हार की आशंका से घबराये हुए हैं और आरएसएस को इसके दाग़ से बचाने की क़वायद एक योजना के तहत शुरू की गयी है।

आरएसएस की स्थापना के 2025 में सौ साल हो जाएँगे। किसी भी संगठन के लिए शताब्दी वर्ष एक बड़े आयोजन की सबब होता है। संगठन चाहता है कि उसकी एक सदी की विकास-यात्रा को बड़े पैमाने पर शो-केस किया जाए। वह गर्व की अनुभूति से भरा होता है। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से कुछ समय पहले आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने ऐलान किया कि संघ की स्थापना का शताब्दी समारोह नहीं मनाया जाएगा! तो क्या आरएसएस को अपनी विकासयात्रा पर कोई गर्व नहीं है? इसे कौन मान सकता है! हिटलर और मुसोलिनी के आदर्शों और प्रविधियों का इस्तेमाल करके भारतीय लोकतंत्र को सैन्यवादी बहुसंख्यकतंत्र में तब्दील करने के अपने सौ साल के प्रयासों को आगे बढ़ाने में वह हर दम नज़र आती है। अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ ख़ासतौर पर अपने नफ़रती अभियान से वह एक कदम भी पीछे नहीं हटी है जो ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’ कि उसके नारे का अफ़सोसनाक अनुवाद ही है।

आख़िर आरएसएस की इस ‘विनम्रता’ की वजह क्या है? इसका एक ही जवाब है-डर! दरअसल, आरएसएस को डर है कि 2024 में मोदी के नेतृत्व में बीजेपी हार की ओर बढ़ रही है। आरएसएस को डर है  कि केंद्र में विपक्ष की सरकार की उपस्थिति आरएसएस की शताब्दी समारोह की भव्यता संभव नहीं होने देगी। जे.पी.नड्डा का बयान भी इसी पेशबंदी के तहत समझा जाना चाहिए। यह आरएसएस की छवि बचाने की बड़ी योजना का हिस्सा है। यानी बीजेपी हारे तो यह न कहा जाये कि यह आरएसएस की हार है। ग़ौर करने पर यह भी दिखता है कि इस चुनाव में आरएसएस कार्यकर्ताओं की निष्क्रियता की ख़बरें लोकसभा चुनाव के हर अगले चरण के बाद ज़्यादा तेज़ी से फैली या फैलायी गयी हैं। यह भी चुनाव बाद की आशंकाओं से निपटने की ही क़वायद है।

जे.पी.नड्डा जब कहते हैं कि आरएसएस की अब बीजेपी को ज़रूरत नहीं है तो इस बात को छिपा जाते हैं कि बीजेपी में साठ फ़ीसदी से ज़्यादा मौजूदा सांसद आरएसएस की शाखा से निकले हैं। प्रधानमंत्री से लेकर ज़्यादातर मुख्यमंत्री और मंत्री आरएसएस पृष्ठभूमि से हैं। सबसे बड़ी बात कि देश-प्रदेश के सभी संगठनमंत्री आरएसएस से ही भेजे जाते हैं। यानी बीजेपी का पूरा ढाँचा आरएसएस से ही निर्मित है। इसलिए दोनों को अलग मानने की कोई वजह नहीं हो सकती।

यह सही है कि मोदी के राज में आरएसएस के सरसंघचालक या अन्य बड़े नेताओं को वैसा विज़ुअल महत्व नहीं मिलता जैसा कि अटल बिहारी वाजपेयी के समय मिलता था, लेकिन ये भी सच्चाई है कि  नरेंद्र मोदी ने पीएम पद पर रहते हुए आरएसएस की विभाजनकारी नीतियों को पूरी ताक़त से लागू किया। यह कुछ चुनावी वादों की बात नहीं है, देश में सांप्रदायिक विभाजन, ख़ासतौर पर हिंदुओं और मुस्लिमों एक दूसरे के ख़िलाफ़ बताने और साबित करने को पीएम मोदी ने जिस तरह से अपनी राजनीतिक शैली बना रखी है वह भारत के प्रधानमंत्री पद के अनुरूप तो क़तई नहीं है, लेकिन इसकी उन्हें परवाह भी नहीं है। इस आलोचना को आरएसएस के कैडर प्रशंसा की दृष्टि से देखता है। अटल बिहारी वाजपेयी इस मोर्चे पर कई बार उसे निराश करते थे।

पहले जनसंघ और फिर बीजेपी का गठन निश्चित ही आरएसएस की योजना के तहत हुआ था। आज़ादी की लड़ाई में अंग्रेज़ों का साथ देने और आज़ादी के तुरंत बाद महात्मा गाँधी की हत्यारे नाथूराम गोडसे के संघ प्रशिक्षित होने के दाग़ ने आरएसएस को खुलकर सार्वजनिक जीवन में आने की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी थी। संघ के दूसरे सरसंघचालक गुरु गोलवलकर ने जनसंघ के गठन को लेकर कहा था कि ‘गाजर की पुंगी है, बजी तो बजी, नहीं तो खा जायेंगे।’ जनसंघ ऐसा ही गाजर की पुंगी साबित हुआ और 1977 में बनी जनता पार्टी में उसका विलय कर दिया गया। इरादा शायद पूरी जनता पार्टी पर क़ब्ज़ा करने का था लेकिन वह संभव नहीं हुआ और 1980 में बीजेपी का गठन किया गया। राममंदिर आंदोलन के ज़रिए अल्पसंख्यक विरोधी भावनाएँ जगाने में आरएसएस ने पूरी ताक़त झोंकी। मोदी का पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता तक पहुँचना इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि रही।

लेकिन मोदी जी के दस साल के शासन ने आरएसएस की नैतिक आभा को पूरी तरह ख़त्म कर दिया है। आरएसएस के प्रचारक रहे मोदी जी जब सत्ता के लिए तमाम दूसरी पार्टियों को तोड़ते हैं या भ्रष्टाचारियों को रातो-रात मंत्री बनाते हैं सवाल आरएसएस पर भी उठता है कि आख़िर उसके प्रशिक्षण में ऐसी क्या कमज़ोरी है कि शुचिता और संस्कार के नारे कुर्सी पर बैठते ही भुला दिये जाते हैं।

रही-सही कसर कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने पूरी कर दी है। राहुल बीजेपी के साथ-साथ आरएसएस को भी हमेशा निशाने पर रखते हैं और उसके ‘फ़ासिस्ट’ इरादों को देश के सामने खोलकर रखते हैं।


आरएसएस को डर है कि अगर कहीं सत्ता फिर कांग्रेस के हाथ गयी तो उसके लिए मुश्किल खड़ी हो सकती है। यह डर बेवजह नहीं है। जिस उत्तर प्रदेश को लेकर बीजेपी लोकसभा चुनाव में बहुत उत्साहित थी, वहाँ से जो ख़बरें आ रही हैं वह आरएसएस को और भी चिंतित कर रही हैं। कांग्रेस और समाजवादी पार्टी गठबंधन जिस तरह से बढ़त बनाते दिख रही है, वह यूपी को बीजेपी का वाटरलू बना दे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

कुल मिलाकर चुनाव में हार की आहट सुनने के साथ ही आरएसएस के रहस्यलोक को बचाने की कोशिशें तेज़ हो गयी हैं। चाहे संघ का शताब्दी समारोह न मनाने का मोहन भागवत का ऐलान हो या फिर जे.पी.नड्डा का यह कहना कि आरएसएस की अब बीजेपी को ज़रूरत नहीं है, दोनों ही आरएसएस को आने वाले तूफ़ान से बचाने की कोशिश है।

(लेखक पंकज श्रीवास्तव कांग्रेस से भी जुड़े हैं)

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