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लॉकडाउन की रणनीति फ़ेल, अब क्या करेगी मोदी सरकार?

लॉकडाउन की रणनीति फ़ेल, अब क्या करेगी मोदी सरकार?

मोदी सरकार इस मामले में ग़लत साबित हो चुकी है कि लॉकडाउन से कोरोना का संक्रमण रुक जाएगा। अब उसे जल्द से जल्द आर्थिक गतिविधियों को शुरू करना चाहिए।

लॉकडाउन का तीसरा दौर 17 मई को ख़त्म होने जा रहा है। 54 दिन के लॉकडाउन से अगर मोदी सरकार ने यह उम्मीद की थी कि इससे कोरोना का संक्रमण रुक जाएगा तो इस मामले में वह ग़लत साबित हो चुकी है। रविवार को ही संक्रमण के 4 हज़ार से ज़्यादा मामले सामने आए हैं। 

यही नहीं, मई महीने के 11 दिनों में कोरोना के मामलों की संख्या दोगुनी हो गई है। 30 अप्रैल को मरीज़ों की संख्या 33 हज़ार थी जो अब 67 हज़ार के आंकड़े को पार कर गई है। पिछले तीन हफ़्ते से कोरोना के संक्रमण की रफ़्तार लगातार बढ़ती जा रही है, जिसका साफ मतलब है कि लॉकडाउन के ज़रिए कोरोना को रोकने की रणनीति फ़ेल हो गई है। 

पहला लॉकडाउन ख़त्म होने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि हम कोरोना को रोकने में कामयाब हो रहे हैं। ज़ाहिर है उनका यह बयान भी ग़लत साबित हो चुका है और लॉकडाउन को दो बार और बढ़ाने का फ़ैसला भी। जिसे वे कोरोना से निपटने का सही रास्ता बता रहे थे, कहा जा सकता है कि वह भी ग़लत ही साबित हो रहा है। 

प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के नेता भले ही अपनी पीठ ठोकते रहें मगर न केवल लॉकडाउन का फ़ैसला ग़लत साबित हो रहा है, बल्कि उसे लागू करने के तरीक़े में भी खामियाँ उभरकर सामने आई हैं।

पहले क्यों नहीं भेजा मजदूरों को?

सबसे पहले तो 4 घंटे के नोटिस पर ही लॉकडाउन को लागू करना अपने आप में एक बड़ी चूक साबित हो चुकी है। इस चूक के नतीजे हम देख रहे हैं। लाखों मज़दूर लॉकडाउन में ही अपने घरों को पैदल, साइकिल या रिक्शे आदि से जाने को मजबूर हो गए और अब जबकि कोरोना का संक्रमण मार्च के मुक़ाबले कई गुना रफ़्तार से बढ़ रहा है तो उन्हें ट्रेन से भेजने के इंतज़ाम किए जा रहे हैं। अगर यही काम 24 मार्च के पहले कर लिया गया होता तो न तो इतनी अफरा-तफरी फैलती और न ही ज़्यादा संक्रमण के बीच उन्हें वापस भेजने का जोखिम उठाना पड़ता।

तीसरा लॉकडाउन लागू होने के बाद जिन इलाक़ों में ढील दी गई है, वहाँ भी अब कोरोना के फैलने की आशंका बढ़ गई है, क्योंकि सोशल डिस्टेंसिंग का ठीक ढंग से पालन होना संभव नहीं रह गया है। 

मोदी सरकार के बिना सोचे-विचारे फ़ैसले सुनाने की रणनीति का ही नतीजा है कि लॉकडाउन में छूट देने के बाद बेरोज़गारी और उद्योग-धंधों के सामने कामगारों का संकट खड़ा हो गया है। इस दोहरे संकट से निपटना आसान नहीं होगा, क्योंकि मज़दूर जिन अपने राज्यों में वापस लौटे हैं वहाँ उद्योग-धंधे हैं ही नहीं और इतनी जल्दी वहाँ निवेश करने वाले आ जाएँगे, इसकी उम्मीद करना नासमझी होगी। 

उत्तर भारत के इन राज्यों में नेतृत्व भी ऐसे लोगों के हाथों में है जिनसे ज़्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती। बिहार और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री और सरकारें वहां पिछले 15 से 20 साल से काबिज़ हैं, मगर इन राज्यों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है। 

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की तो बात ही करना बेकार है। पिछले तीन साल में उन्होंने भी साबित कर दिया है कि उन्हें केवल सांप्रदायिक राजनीति आती है, आर्थिक चुनौतियों से निपटना उनके वश का नहीं है। राजस्थान और झारखंड का हाल भी बुरा है, हालाँकि वहाँ के मुख्यमंत्रियों को सवा साल ही हुआ है।

अगर इन मज़दूरों को उन्हीं प्रदेशों में सहायता और सुरक्षा प्रदान कर दी गई होती तो शायद बहुत सारे मज़दूर वहीं रुक जाते और आर्थिक गतिविधियों पर कम असर पड़ता। मगर सरकार के पास दूरदृष्टि होती तभी तो वह इन पहलुओं के बारे में सोच पाती। वह तो घोषणा करके भी उन लोगों तक सही समय पर मदद नहीं पहुँचा सकी जो अपने गाँवों-घरों में ही थे। 

फिर उस समय भी हमारे पास चीन और दक्षिण कोरिया के उदाहरण थे, जिन्होंने सीमित लॉकडाउन करके कोरोना को नियंत्रित किया था। हालाँकि वहाँ फिर से कोरोना फैलने की ख़बर है मगर अभी भी वहाँ राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन नहीं किया गया है। और अब तो स्वीडन जैसे देशों के उदाहरणों से भी सबक लिया जा सकता है जहाँ किसी तरह का प्रतिबंध नहीं लगाया गया। 

अब मोदी सरकार के पास इसके अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है कि लॉकडाउन को हटाकर आर्थिक गतिविधियों को शुरू करे। ज़ाहिर है कि वह फिर से बिना ठोस योजना के आगे बढ़ रही है या यूँ कहें कि अँधेरे में हाथ-पाँव मार रही है, इसलिए इसमें हर तरह के जोखिम हैं।

मजदूरों में भड़केगा असंतोष

अव्वल तो कोरोना फैलने की गति बढ़ने का जोखिम है। दूसरा, जिस तरह से उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात की सरकारों ने मज़दूर क़ानूनों को स्थगित किया है, उससे मज़दूरों में असंतोष भड़केगा और वे कारोबारियों को बहुत सहयोग देने के लिए आगे नहीं आएंगे। इसके विपरीत टकराव का वातावरण बन सकता है और बनना भी चाहिए। अमानवीय सेवा शर्तों का विरोध करना उनका मौलिक अधिकार है। 

बिना विचार-विमर्श के निरंकुश ढंग से चलने वाली सरकारें इसी तरह देश और समाज का नुक़सान करती हैं। उनमें खुद को सही मानने का इतना अहंकार और ज़िद होती है कि वे किसी की सुनती ही नहीं। लाज़िमी है कि हिंदुस्तान भी भुगत रहा है और आगे भी भुगतेगा।  

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