इस्मत चुग़ताई: एक ‘बोल्ड’ औरत जिसने समलैंगिकता पर कहानी लिख दी!
समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में इस्मत चुग़ताई का नाम किसी तआरुफ का मोहताज़ नहीं। वह जितनी हिंदुस्तान में मशहूर हैं, उतनी ही पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी। उनके चाहने वाले यहाँ भी हैं और वहाँ भी। आज भी उर्दू और हिंदी दोनों ही ज़ुबानों में उनके पाए की कोई दूसरी कथाकार नहीं मिलतीं। इस्मत चुग़ताई ने उस दौर में स्त्री-पुरुष समानता और इन दोनों के बीच ग़ैर बराबरी पर बात की, जब इन सब बातों पर सोचना और लिखना भी मुश्किल था। अपने ही घर में मज़हब, मर्यादा, झूठी इज़्ज़त के नाम पर ग़ुलाम बना ली गई, औरत की आज़ादी पर उन्होंने सख्ती से कलम चलाई और उसके हक़ीक़ी हुकूक के हक और उसकी हिफाज़त में अपनी आवाज़ बुलंद की।
वह सचमुच में एक स्त्रीवादी लेखिका थीं। अपने समूचे साहित्य में उन्होंने निम्न मध्यवर्गीय मुसलिम तबक़े की औरतों की समस्याओं, उनके सुख-दुःख, उम्मीद-नाउम्मीद को बड़े ही बेबाकी से अपनी आवाज़ दी। भारतीय समाज में सदियों से दबी-कुचली और रूढ़ सामाजिक बंधनों से जकड़ी महिलाओं के दर्द को न सिर्फ़ उन्होंने संजीदगी से समझा, बल्कि उसे अपने साहित्य के माध्यम से लोगों के बीच ले गईं। उन्होंने उन मसलों पर भी कलम चलाई, जिन्हें दीगर साहित्यकार छूने से भी डरते और कतराते थे।
इस्मत चुग़ताई के लेखन में धर्मनिरपेक्षता और आधुनिकता का हमेशा ज़ोर रहा। अंधविश्वास, धार्मिक कट्टरता, सांप्रदायिकता, सामंती प्रवृतियों, वर्गभेद और जातिभेद का उन्होंने जमकर विरोध किया। इस्मत चुग़ताई का दौर, वह दौर था जब उर्दू अदब में सआदत हसन मंटो, कृश्न चंदर, राजिंदर सिंह बेदी, ख्वाजा अहमद अब्बास जैसे चमकदार लेखक अपनी लेखनी से हंगामा बरपाए हुए थे। इन सबके बीच अपनी जगह बनाना कोई आसान काम नहीं था, लेकिन इस्मत चुग़ताई ने न सिर्फ़ इस चुनौती को स्वीकार किया, बल्कि अपनी एक अलग पहचान भी बनाई।
उर्दू के बेमिसाल अफसानानिगार सआदत हसन मंटो और इस्मत चुग़ताई के बीच का रिश्ता बड़ा अजीब था। वे एक-दूसरे को पसंद भी करते थे, तो वक़्त आने पर एक-दूसरे की खिंचाई करने में भी बाज नहीं आते थे। इस्मत चुग़ताई के बारे में मंटो ने एक विस्तृत ख़ाका (व्यक्ति चित्र) भी लिखा है। इस ख़ाके में उन्होंने इस्मत चुग़ताई के पूरे किरदार और उनके कृतित्व को बड़े ही ईमानदारी और मनोरंजक तरीक़े से बयाँ किया है। मंटो लिखते हैं, ‘इस्मत का बचपन बड़ा ग़ैर सेहत बख्श रहा है। पर्दे के उस पार की तफ्सीलात बयान करने में इस्मत को यदे-तुला हासिल है। इस्मत को समाज से नहीं, शख्सीयतों से शगफ है। शख्सियतों से नहीं अशखास से है। इस्मत के पास जिस्म के एहतिसाब का एक ही ज़रिया है और वह है मसास-इस्मत के अफसानों की कोई सम्त ही नहीं-इस्मत की ग़ैर मामूली कुव्वतें-मुशाहिदा हैरत में गर्क कर देती है। इस्मत फुहशनिगार है-हलका-हलका तंज और मिजाह, इस्मत के इस्टाइल की मुमताज ख़ूबियाँ हैं। इस्मत तलवार की धार पर चलती है।’ (सआदत हसन मंटो-दस्तावेज 5, पेज 73)
‘लिहाफ’ वह कहानी है, जिसने इस्मत चुग़ताई को एक साथ शोहरत दी, तो बदनामी भी। महिलाओं के बीच समलैंगिकता के बोल्ड मुद्दे पर लिखी गई यह हंगामेदार कहानी, उस दौर की मशहूर पत्रिका ‘अदबे लतीफ’ में प्रकाशित हुई।
उसी वक़्त इस्मत चुग़ताई का एक कहानी संग्रह आ रहा था, तो यह कहानी किताब में भी छप गई। परंपरावादी मुसलिम समाज इस कहानी को पढ़कर भड़क उठा। कुछ अदीबों, नक्कादों (आलोचकों) और शुरफा (शरीफों) ने बरतानिया हुकूमत का तवज्जोह इस कहानी की तरफ़ कराया और सरकार से माँग की, ‘कहानी नैतिकता के ख़िलाफ़ है, लिहाज़ा सरकार इस कहानी को जब्त कर ले।’ कहानी के ख़िलाफ़ अख़बारों में मजमून निकले और अदबी और ग़ैर अदबी महफिलों में इस पर गर्मागर्म बहसें होतीं। इस कहानी के विरोध में पत्रिका के संपादक और उनके पास इतने ख़त आए कि एक वक़्त तो वे और उनके पति शाहिद लतीफ परेशान हो गए। ‘कागजी है पैरहन’ में वे ख़ुद इन ख़तों के बारे में लिखती हैं,
‘इन ख़तों का लहज़ा इतना भयानक था कि पहले तो मेरे पसीने छूट गए। मैंने सहमकर अपनी कलम की लगाम खींची और अपनी दानिस्त में तो मैंने उसके बाद ढील नहीं छोड़ी, लेकिन बुरा हो उस माहौल का, जहाँ मैंने परवरिश पाई। धड़ल्ले से बात करने की आदत नहीं छूटी, और लोग झल्लाकर गालियों पर उतारू हो जाते हैं तो उनसे मुझे कोई जाती अनाद नहीं होता। बहुत सी मार-पीट, नोच-खसोट के बाद फिर मिल बैठने की आदत रही। कभी चुटकी लेने में मजा आता है, अगर कोई पलटकर पत्थर दे मारे तो उससे बुग्ज (नफरत) नहीं पैदा होता।’ (इस्मत चुग़ताई- कागजी है पैरहन, पेज-17)
बहरहाल फहाशी (अश्लीलता) के इल्ज़ाम में मंटो और इस्मत चुग़ताई दोनों पर अदालत में मुक़दमे चले। यहाँ तक कि उन दोनों की गिरफ्तारी भी हुई। लाहौर की अदालत में जब इनके मामले की सुनवाई होती थी, तो इन दोनों को देखने के लिए कॉलेजों के तालिबे-इल्म टोलियाँ बांध-बांधकर आती थीं। बहरहाल, यह मुक़दमा, अदालत में नहीं टिक सका। मंटो और इस्मत चुग़ताई इस मुक़दमे से बाइज़्ज़त बरी हो गए। मुक़दमे से फ़ुर्सत होने के बाद जज साहब ने उन्हें कोर्ट के पीछे के एक कमरे में तलब किया। उनसे जो बातचीत हुई, वह दिलचस्प बातचीत किताब ‘कागजी है पैरहन’ में दर्ज है,
‘मैंने आपकी अक़सर कहानियाँ पढ़ी हैं और वो फुहश नहीं। और न ‘लिहाफ’ फुहश है। मगर मंटो की तहरीरों में बड़ी गलाजत (गंदगी) भरी होती है।’
‘दुनिया में भी गलाजत भरी है’, मैं मखनी (मिनमिनी) आवाज़ में बोली।
‘तो क्या ज़रूरी है कि उसे उछाला जाए।’
‘उछालने से वह नज़र आ जाती है और सफ़ाई की तरफ़ ध्यान जा सकता है।’ जज साहब हँस दिए।’
(इस्मत चुग़ताई- कागजी है पैरहन, पेज-15)
कहानी ‘लिहाफ’ के बारे में खुद इस्मत चुग़ताई क्या सोचती थीं, पाठकों के लिए यह जानना भी बड़ा दिलचस्प होगा। जब इस कहानी के बारे में उर्दू के एक अदीब एम. असलम, जो कई किताबों के लेखक थे, से उनकी बहस हुई, तो चुग़ताई ने उन्हें यह कहकर लाजवाब कर दिया,
‘मुझे कभी किसी ने नहीं बताया कि ‘लिहाफ’ वाले मौजू पर लिखना गुनाह है। न मैंने किसी किताब में पढ़ा कि इस मर्ज या लत के बारे में नहीं लिखना चाहिए। शायद मेरा दिमाग़ अब्दुरर्रहमान चुग़ताई का ब्रश नहीं, एक सस्ता सा कैमरा है, जो कुछ देखता है, खट से बटन दब जाता है और मेरा कलम मेरे हाथ में बेबस होता है। मेरा दिमाग़ उसे बरगला देता है। दिमाग़ और कलम के क़िस्से में दख़लअंदाज़ नहीं हो पाती।’ (इस्मत चुग़ताई- कागजी है पैरहन, पेज-32-33)
कहानी ‘लिहाफ’ के बाद इस्मत चुग़ताई ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। पत्रिकाओं में उनकी कहानियों की माँग बढ़ने लगी। पाठक उनकी कहानियों का इंतज़ार करते। जब-जब भी उनकी कहानियों पर एतराज़ उठते, कहानियों की माँग और भी बढ़ जाती।
‘लिहाफ’ के प्रकाशन के बाद उनके आलोचकों ने तो उन्हें फहशनिगार (अश्लील लेखक) का तमगा दे दिया। उनके बारे में यह बातें फैलाई जातीं कि वे जिंसियात (यौन विज्ञान) पर ही लिखती हैं। लेकिन इस्मत चुग़ताई ने इन आलोचना की बिल्कुल परवाह न की। उन्होंने वही लिखा, जो अपने समाज में देखा। सच को सच और ग़लत को ग़लत कहने की हिम्मत इस्मत चुग़ताई के अंदर थी। वे फहशनिगार नहीं, हकीकतनिगार (यर्थाथवादी लेखक) थीं।
इस्मत की कहानियों पर मंटो लिखते हैं,
“भूल भुलैयाँ, ‘तिल’, ‘लिहाफ’ और ‘गेंदा’ जैसे अफसाने औरत की मुख्तलिफ अदाएँ हैं। साफ़, शफ्फाक, हर क़िस्म के तसन्नो से पाक। यह अदाएँ वह इश्के वह गमजे नहीं जिनके तीर बनाकर मर्दों के दिल और कलेजे छलनी किए जाते हैं। जिस्म की भोंडी हरकतों से इन अदाओं का कोई ताल्लुक नहीं, इन रूहानी इशारों की मंजिले-मकसूद इंसान का जमीर है, जिसके साथ वह औरत ही की अनजानी, अनबूझी मगर मखमली फितरत लिए बगलगीर हो जाता है।’’ (सआदत हसन मंटो- दस्तावेज 5, पेज 64)
इस्मत चुग़ताई, औरतों में पर्दे के रिवाज़ को ग़लत मानती थीं। वह औरतों को हर तरह की आज़ादी के हक़ में थीं। औरतों पर समाजी, मज़हबी बंदिशों की उन्होंने हमेशा मुख़ालफ़त की। पर्दे के बारे में उनके ख्याल थे,
‘इतनी बात तो है कि पर्दा हटता है तो कुछ छिछोरे क़िस्म के जज्बात जो सिर्फ़ तसव्वुर के बल पर परवान चढ़ते हैं और बड़ी जेह्नी उलझनों का बाइस होते हैं, कुछ बल्कि बहुत कुछ सुलझ जाते हैं। हक़ीक़त ज़्यादा वाजह (स्पष्ट) हो जाती है। एक-दूसरे को जिंसे-मुखालिफ (विपरीत लिंगी) ही नहीं, आम इंसान की हैसियत से समझते हैं। आसानी होती है। अंधे मुआशकों (प्रेम प्रसंगों) का इमकान (संभावना) कम हो जाता है। ज़िंदगी निस्बतन (अपेक्षाकृत) पायदार (स्थायी) बुनियादों के सहारे बनती-संवरती है।’ (इस्मत चुग़ताई- कागजी है पैरहन, पेज-1)
अपनी आत्मकथा ‘कागजी है पैरहन’ में उन्होंने कई जगह लैंगिक असमानता और महिलाओं के शोषण पर खुलकर बात की है।
‘निस्वानियत (स्त्रीत्व) मुझे ढोंग लगती थी। मस्लहत मुझे झूठ मालूम होती थीं, सब्र, बुज़दिली और शकर-मक्कारी। मैंने हाथ घुमाकर कभी नाक नहीं पकड़ी। यहाँ तक कि बनना, सँवरना, सिंगार करना और भड़कीले कपड़े पहनना भी मुझे ऐसा लगता था जैसे मैं अपने अयूब (दोष) छिपाकर धोखा दे रही हूँ।’
इस्मत चुग़ताई ने अपनी कहानियों में औरत की इक्तसादी (आर्थिक) महकूमी और मजबूरी पर हमेशा कलम चलाई। आर्थिक तौर पर वे औरत को मज़बूत होता देखना चाहती थीं। इस बारे में उनका सोचना था,
‘एक लड़की अगर अपने वारिसों का सिर्फ़ इसलिए हुक़्म मानती है कि इक्तसादी तौर पर मजबूर है तो फरमांबरदार नहीं, धोखेबाज़ ज़रूर हो सकती है। एक बीबी शौहर से सिर्फ़ इसलिए चिपकी रहती है कि रोटी-कपड़े का सहारा है, तो वह तवायफ से कम मजबूर नहीं। ऐसी मजबूर औरत की कोख से मजबूर और महकूम-जेहनियत इंसान ही जन्म ले सकेंगे। हमेशा दूसरी तरक्कीयाफ्ता कौमों के रहमो-करम पर इक्तफा (संतोष) करेंगे। जब तक हमारे मुल्क की औरत मजबूर, लाचार, जुल्म सहती रहेगी, हम इक्तसादी और सियासी मैदान में एहसासे-कमतरी का शिकार बने रहेंगे।’ (इस्मत चुग़ताई- कागजी है पैरहन, पेज-15)
इस्मत चुग़ताई को वतन की गंगा-जमुनी तहजीब से बेहद प्यार था। वतन की साझा संस्कृति में वह अपनी भी हिस्सेदारी की बात करती थीं,
‘मैं मुसलमान हूँ, बुतपरस्ती शिर्क (अल्लाह की जात में किसी को शरीक करना, जो इसलाम के मुताबिक़ पाप है।) है। मगर देवमाला (पुराण, माइथालॉजी) मेरे वतन का विरसा (धरोहर) है। इसमें सदियों का कल्चर और फलसफा समोया हुआ है। ईमान अलाहदा है, वतन की तहजीब अलाहदा है। इसमें मेरा बराबर का हिस्सा है। जैसे उसकी मिट्टी, धूप और पानी में मेरा हिस्सा है। मैं होली पर रंग खेलूँ, दीवाली पर दिये जलाऊँ तो क्या मेरा ईमान मुतजलजल (कंपायमान) हो जाएगा। मेरा यक़ीन और शऊर क्या इतना बोदा है, इतना अधूरा है कि रेजा-रेजा (टुकड़े-टुकड़े) हो जाएगा।’ (इस्मत चुग़ताई- कागजी है पैरहन, पेज-22)
इस्मत चुग़ताई ने 24 अक्टूबर, 1991 को इस दुनिया से विदाई ली। जाते-जाते भी वह दुनिया के सामने एक मिसाल छोड़ गईं। उनकी वसीयत के मुताबिक़ मुंबई के चंदनबाड़ी श्मशान गृह में उन्हें अग्नि को समर्पित किया गया। एक मुसलिम औरत का मरने के बाद, दफ़नाए जाने की बजाय हिंदू रीति रिवाज़ों से दाह-संस्कार, सचमुच उनका एक आश्चर्यजनक और साहसिक फ़ैसला था। इस्मत चुग़ताई के इस फ़ैसले से उनके कुछ तरक्क़ीपसंद साथी नाराज़ भी हुए। लेकिन चुग़ताई अलग मिट्टी की बनी हुई थीं, न तो वह अपने जीते जी कभी लीक पर चलीं और न ही मरने के बाद। इस्मत चुग़ताई की शानदार शख्सियत के बारे में मंटो ने क्या ख़ूब कहा है,
‘इस्मत पर बहुत कुछ कहा गया है और कहा जाता रहेगा। कोई उसे पसंद करेगा, कोई नापसंद। लेकिन लोगों की पसंदगी और नापसंदगी से ज़्यादा अहम चीज इस्मत की तख्लीकी कुव्वत है। बुरी, भली, उरियाँ, मस्तूर जैसी भी है, काइम रहनी चाहिए। अदब का कोई जुगराफिया नहीं। उसे नक्शों और खाकों की कैद से, जहाँ तक मुमकिन हो, बचाना चाहिए।’ (सआदत हसन मंटो-दस्तावेज-5, पेज 73)